समझ से परे हैं # मई दिवस# के मायने




# आज एक मई है। हर साल एक मई # मजदूर दिवस # के रूप में मनाया जाता है। इसमें कोई शक नहीं कि हर मंच पर इस दिवस पर मजदूरों, श्रम कानूनों व उनकी सुरक्षा को लेकर बड़ी-बड़ी बातें की जाती हैं। चाहे वह सरकार हो या फिर श्रमिक संगठन, प्रबंधन व कोई अन्य संस्थाएं, लेकिन जिस तरह के परिवेश में श्रमिक काम करते हैं, उनसे जितने घंटे काम लिए जाते हैं और जो उन्हें न्यूनतम मजदूरी मिलती है, उससे ऐसा कहीं भी नहीं लगता है कि मजदूरों के लिए किए जाने वाले दावे और # श्रम कानूनों #
का वास्तविक परिवेश से कहीं भी दूर-दूर तक लेना-देना है। अपनी हाड़तोड़ मेहनत से बड़ी-बड़ी इमारतें और फैक्ट्रियों में माल तैयार करने वाला श्रमिक तो उसी गर्त में रह जाता है, लेकिन इमारतों और फैक्ट्रियों के मालिक कुछ ही वर्षों में करोड़ों, अरबों में व्यारे-न्यारे करने लगते हैं। ऐसे में अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस के मायने भी समझ से परे है। वह इसीलिए, जब एक शताब्दी से अधिक समय बीत गया हो और श्रमिक अपने काम के निर्धारित घंटों व महज न्यूनतम वेतन से भी कोषों दूर है।
 यहां पर थोड़ा सा उस पृष्ठिभूमि का उल्लेख भी जरूरी है, जिसकी वजह से अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस की शुरुआत की गई। असल में, 1 मई 1886 से ही # अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस # मनाया जाता है, जब अमेरिका के शिकागो शहर में मजदूर यूनियनों ने काम का समय आठ घंटे से अधिक न रख्ो जाने को लेकर हड़ताल की थी। इस हड़ताल के दौरान शिकागो की हेय मार्केट में बम धमाका हुआ था। यह बम किसने फेंका, उसका कोई पता नहीं चला था, लेकिन इसके निष्कर्ष के तौर पर पुलिस ने मजदूरों पर गोली चला दी थी, जिसमें सात मजदूर मारे गए थ्ो। इन्हीं मजदूरों की शहादत की याद में हर साल एक मई को मजदूर दिवस के रूप में मनाया जाता है। इसके बाद 1889 में पेरिस में अंतरराष्ट्रीय महासभा की द्बितीय बैठक के दौरान फ्रेंच क्रांति को याद करते हुए एक प्रस्ताव पारित किया गया कि इसको अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस के रूप में मनाया जाए। उसी समय से विश्व भर के 8० देशों में # 'मई दिवस' # को राष्ट्रीय अवकाश के रूप में मान्यता प्रदान की गई। भारत में मई दिवस पहली बार वर्ष 1923 में मनाया गया, जिसका सुझाव सिगारवेलु चेट्टियार नामक कम्यूनिस्ट नेता ने दिया था। उनका सुझाव था कि दुनिया भर के मजदूर इस दिन को मनाते हैं तो भारत में भी इसको मान्यता दी जानी चाहिए। मद्रास से जिसकी शुरुआत की गई। इस प्रकार भारत में 1923 से इसे राष्ट्रीय अवकाश के रूप में मान्यता दी गई। विभिन्न देशों में इसे मनाने का तरीका भले ही अलग हो, लेकिन इसका मूलभूत आशय व उद्देश्य श्रमिकों को मुख्य धारा में बनाए रखना और उन्हें अपने अधिकारों के प्रति समाज में जागरूकता लाना ही है।
 # शिकागो # की घटना के बाद अमेरिका पर एकदम कोई बड़ा प्रभाव नहीं पड़ा था, लेकिन कुछ समय के बाद अमेरिका में 8 घंटे काम करने का समय निश्चित कर दिया गया था। भारत और दुनिया के दूसरे मुल्कों में भी मजदूरों के 8 घंटे काम करने संबंधित कानून लागू हैं। निर्धारित काम के घंटों के अलावा न्यूनतम वेतन, स्वास्थ्य संबंधी योजनाएं, श्रमिकों के बच्चों को शिक्षा से जोड़ने संबंधी कानून व महिला श्रमिकों के लिए भी तरह-तरह के कानून बनाए गए हैं। देश के कई राज्यों में निर्माण क्ष्ोत्र में काम करने वाले श्रमिकों के सुरक्षित भविष्य के लिए भवन निर्माण कर्मकार अधिनियम भी बनाया गया है, जिसके तहत सेवायोजकों को कुल निर्माण लागत का एक प्रतिशत हिस्सा सेस के तौर पर जमा करना होता है। भवन निर्माण कर्मकार अधिनियम के तहत श्रमिकों के कल्याण के लिए खोले गए खातों में अरबों रुपए की धनराशि जमा है, लेकिन क्या यह सरकारी मशीनरी की लापरवाही नहीं है कि हर साल श्रमिक कल्याण बोर्ड के खाते में जमा होने वाली धनराशि में से महज एक प्रतिशत धनराशि भी मजदूरों के हित में खर्च नहीं की जाती है ?
 कुछ ऐसी ही स्थिति श्रम कानूनों को लागू करने के संबंध में भी है। सामान्य अदालतों के अलावा श्रम विभागों व श्रम न्यायालयों में भी वादों का बोझ लगातार बढ़ रहा है। छोटे-छोटे वादों के निस्तारण में भी वर्षों बीत जाते हैं। इनमें # पेमेंट ऑफ वेजज, # टाइमली पेमेंट, ओवर टाइम, निर्धारित से अधिक घंटे काम कराए जाने संबंधी मामले तक शामिल होते हैं। इन मामलों को लंबा लटकाने में कानूनों की जटिलता उतनी आड़े नहीं आती है, जितनी जटिलता संबंधित विभागों में बैठे अधिकारियों, ट्रेड यूनियनों के पदाधिकारियों और प्रबंधन की मिलीभगत की वजह से आती है। ट्रेड यूनियनों का इतिहास मजदूर हितैषी भले ही रहा हो, लेकिन आज के परिवेश में संगठन भी न तो उतनी व्यापकता में जाना चाहते हैं और न ही काम करना चाहते हैं। उनकी भूमिका अब प्रबंधन और मशीनिरी के खिलाफ जटिलता के साथ खड़े होने की न रहकर, एक ऐसे मिडीएटर की रह गई है, जो ऐसे मौके की तलाश करता है, जिससे उनके भी आर्थिक हित सध सकें। जाहिर सी बात है, इसमें उन्हें प्रबंधन द्बारा दिए जाने वाला प्रलोभन श्रमिक हितों की लड़ाई से कहीं बेहतर विकल्प के तौर पर दिखने लगता है। भले ही इसमें कुछ अपवाद जरूर हों, लेकिन इस तित्रकोणीय चक्र में मजदूर अवश्य पिस के रहा है।
 महात्मा गांधी ने कहा था कि ''किसी देश की तरक्की उस देश के कामगारों और किसानों पर निर्भर करती है। सेवायोजक स्वयं को उद्योगपति, मालिक या प्रबंधक समझने की बजाय ट्रस्टी समझें और लोकराजी ढांचों में तो सरकार भी लोगों की तरफ से चुनी जाती है जो राजनीतिक लोगों को अपने देश की बागडोर ट्रस्टी के रूप में सौंपते हैं’’। क्या सेवायोजक और क्या सरकारें व सरकारी मिशीनरी में बैठे अफसर इसके मूल को समझने में सक्षम हो पाए हैं ? ऐसे में क्या इसके मूल तत्वों को समझना और उसके तहत काम करने की व्यापक आवश्यकता नहीं है?
 देश में सरकारें बदलती रहती हैं। श्रम कानूनों में बदलाव लाने की एक मुहिम-सी छिड़ जाती है। अभी भी मोदी सरकार कई श्रम कानूनों में बड़े बदलावों का दम भर रही है। सरकार # 44 श्रम कानूनों # को मिलाकर एक कानून बनाए जाने के पक्षधर है। वहीं ट्रेड यूनियनों के गठन को लेकर भी नई सीमारेखा तय किए जाने के पक्ष में केन्द्र सरकार है। # न्यूनतम वेतन, मैटरनिटी लीव # की अवधि को बढ़ाने, वोनस व ग्रैच्यूटी के नियमों में ढील देने संबंधी प्रस्तावों पर भी विचार-विर्मश चल रहा है। नए कानून में तीन पुराने कानूनों को मिलाया जाएगा। नौकरी से निकाले जाने पर ज्यादा मुआवजे पर विचार किया जा रहा है। इसके साथ ही एक साल से पुराने कर्मचारी को छंटनी के पहले तीन महीने का नोटिस देना जरूरी होगा। नया श्रम कानून इंडस्ट्रियल डिस्प्युट्स एक्ट 1947, ट्रेड यूनियंस एक्ट 1926 और इंडस्ट्रियल एंप्लॉयमेंट (स्टैंडिग ऑर्डर्स) एक्ट 1946 की जगह लेगा। ऐसा नहीं लगता है कि महज कानूनों में बदलाव कर दिया जाएगा और मजदूरों को लाभ मिलना शुरू हो जाएगा। यह कतई कारगर नहीं माना जा सकता है। कानून पहले भी बने हैं। उनके मूल में भी मजदूर हित निहित हैं और उनका सामाजिक और आर्थिक विकास भी समाहित है। महज कानून बनाने से नहीं बल्कि कानूनों को वास्तविक पटल से जोड़ना ज्यादा जरूरी है, तभी आर्थिक विकास की के आइने में केवल कुछ लोग ही नहीं बल्कि समाज के अंतिम पायदान पर बैठे लोगों की झलक दिख्ोगी और # मई दिवस # के मायने भी सार्थक साबित होंगे।


# 1 मई 2०16 # को # नेशनल दुनिया # में प्रकाशित लेख।







No comments