कूर्मांचल के कुछ दिन


Kurvanchal ke kuch din by Dharmveer Bharti


Dharmveer Bharti 
हिमालय की बर्फीली चोटियों की छांव में फूल, फल, झरने और बंगलों वाले कूर्मांचल का नाम लेते ही मेरी आंखों के आगे रामगढ़ की एक शाम धुंधली तस्वीर की तरह खिंच जाती है। एक बहुत ऊंची, वनाच्छादित पर्वत-ऋंखला के इस बाजू में मीलों लंबा एक फलों का बगीचा है। सुनहले, हरे, पीले, सिंदूरी और गुलाबी सेबों से लदे हुए पेड़ों की कतारें पार कर हम उस बंगले में जा पहुंचे हैं, जिसमें महाकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने अपने कुर्मांचल-प्रवास के कुछ दिन बिताए थ्ो। बस की सड़क सैकड़ों फीट नीचे मटियाले सांप की तरह घाटियों और जंगलों में रेंगती-सरकती चली जा रही है, सड़क के भी सैकड़ों फीट नीचे रामगढ़ के घरों की टीन वाली छतें दीख रही हैं, और उनमें चलते-फिरते लोग चीटियों की तरह लग रहे हैं, और धीरे-धीरे धनुषाकार होता हुआ जा रहा है। बंगले के सामने के लॉन में बेंत की खूबसूरत हरी कुरसियां डाल दी गईं हैं और बगीचे के मैनेजर ने चाय बनवाकर मंगाई है।
 8००० फीट की ऊंचाई पर चाय की उस मेज पर हर तरह के लोग। मैनेजर, जो बता रहा कि इन पहाड़ियों में कौन से फल और उग सकते हैं ? कौन से उद्योग चल सकते हैं ? इससे देश को क्या आय हो सकती है? मेरे एक मित्र, जो बता रहे हैं कि वे एक दिन में 32 मील चलकर मुक्तेश्वर गए और लौट आए, राह में भूख लगने पर वे दर्जनों पराठे खा गए, क्योंकि पहाड़ों का भी घी भी बहुत शुद्ध होता है। मेरी पत्नी, जिसे दु:ख है कि सूरज डूब गया, अब उसका कैमरा बेकार है और मन में सोच रही है कि काश इन पहाड़ों पर सेब की जगह हरी मिर्ची के बगीचे होते। आर्जण्टाइना का एक साधु, जो आत्मा की अमरता, हिमालय का आध्यात्मिक प्रभाव, अनेकता में एक और वेदांत की माया पर कुछ चिर-परिचित बातें कर रहा है। इन भांति-भांति के लोगों के बीच...चुप ! कुछ-कुछ सहमा-सा...कुछ मंत्र मुग्ध...बार-बार उधर देखता हुआ जिधर हिमालय की मुख्य हिमवती चोटियां बादल और धुंधलके में छिपी हुई है, जो सिर्फ एक शाम में अकस्मात् चमक उठी थीं। बादलों का अवगुण्ठन उठा कर रामगढ़ के उत्तर में बर्फ के फूलों के धनुष की तरह अर्द्धवृत्ताकार में फैल गई थीं। उस दिन से बादलों में जो छिपीं तो फिर दीखी नहीं...पर मन में लाने कैसी प्यास भर गई। वहां उन सेबों के बीच बैठा हुआ भी, मैं वहां नहीं था,उन्हीं अदृश्य घाटियों में भटक रहा था, उन्हीं खोयी हुई ऋंखलाओं की ओर चला जा रहा था...बिल्कुल अकेला, जाने किस जादू से सब कुछ जैसे एक प्रतीक में बदल गया था। जिंदगी के गर्द-गुबार और धुंधलके को चीर कर वह कौन-सी ऊंचाइयां हैं, जो अकस्मात् चमक कर फिर छिप जाती है और मेरा मन अकुला उठता है, उनकी ओर चल पड़ता है एक निरंतर अनथक यात्रा...चरैवेति चरैवेति...चलते चलो,चलते चलो। उस दिन, उस दिन हिमालय मुझे अपना चिर-परिचित लगा था, जिसे मैं जाने कब से ढूंढ़ रहा था, जो यहां भूमि पर उदित होने से पूर्व जैसे मेरे मन की गहराईयों में, अंतराल में सोया पड़ा था और जब से वे हिमालय की चोटियां यहां उग आईं, तब से मन का वह हिस्सा रिक्त पड़ा है, खाली पड़ा है और तभी से वह हिमालय को खोज रहा है कि उसकी रिक्कता, उसका खालीपन फिर भरा-भरा-सा हो जाये।
चाय के प्याले खनकते हैं और उधर कालाखान के जंगलों में एक चिड़िया निरंतर रट लगाने लगती है...जुहो! जुहो! जुहो! इस दर्द भरी पुकार से हम सब परिचित हैं। ताकुला की गहरी घाटियों में उगे बांझ के वनों में, कौसानी के झरनों पर, कत्यूर में गोमती के किनारे यह पुकार हर यात्री को सुनाई पड़ती है। यह चिड़िया बराबर बोलती है- जुहो! जुहो! जुहो! हमारी उत्सुकता देखकर मैनेजर ने बताया कि इस पक्षी के बारे में एक मार्मिक लोककथा कूर्मांचल में प्रचलित है। कहते हैं कि किसी जमाने में एक अत्यंत रूपवती पहाड़ी कन्या थी, जो वर्ड्स्वथã की लूसी की तरह झरनों के संगीत, वृक्षों के मर्मर और घाटियों की प्रतिध्वनियों पर पली थी, लेकिन उसका पिता गरीब था और लाचारी में उसने अपनी कन्या मैदानों में ब्याह दी, वे मैदान जहां सूरज आग की तरह तपता है, जहां झरनों और बंगलों का नामो-निशान नहीं, जहां भूख्ो अजगरों की तरह धधकती लूएं आदमी को साबित निगल जाती है। प्रियतम के स्नेह की छाया में वर्षा और सर्दी तो किसी तरह कट गए पर सूर्य के उत्तरायण होते ही वह अकुला उठी। उसने नैहर जाने की प्रार्थना की। पर सास और ननद ने इनकार कर दिया। वह धूप में तपे गुलाब की तरह मुरझाने लगी। ऋंगार छूटा, वेशविन्यास छूटा, खाना-पीना छूट गया। अंत में सास ने कहा, अच्छा कल तुम्हें भ्ोज देंगे। सुबह हुई...उसने आकुलता से पूछा... 'जुहो’? (जाऊं)। सास ने कहा... 'भोल जाला (कल सुबह जाना)’। वह और भी मुरझा गई। एक दिन किसी तरह कटा। दूसरे दिन उसने पूछा 'जुहो’? सास फिर बोली- 'भोल जाला’। रोज वह अपना सामान संवारती। प्रिय से विदा लेती और पूछती... 'जुहो’? रोज सास नाराज होकर मुंह फर कर कहती... 'भोल जाला’। एक दिन जेठ का दसतपा लग गया, धरती धूप से चटखा गई, वृक्षों पर चिड़ियां लू खाकर गिरने लगीं। वधू ने फिर हांफते हुए सूख्ो गले से अंतिम बार सास से पूछा... 'जुहो’? सास ने पंख्ो की डंडी से पीठ खुजाते हुए कहा... 'भोल जाला’। फिर वह कुछ नहीं बोली। शाम को एक वृक्ष के नीचे वह अचेतन पड़ी हुई मिली, प्राणहीन ! गरमी से काली पड़ गई थी। वृक्ष की डाली पर एक चिड़िया बैठी थी, जो गरदन हिलाकर बोली... 'जुहो’? और उत्तर की प्रतीक्षा न कर नन्हें-नन्हें पंख फैलाकर कूर्मांचल की ओर उड़ गई। मैनेजर ने चाय का प्याला रखते हुए कहा-तब से आज तक कूर्मांचल के जंगलों में एक चिड़िया दर्द भरे स्वर में बार-बार पूछती है- जुहो? जुहो? जुहो? और फिर एक कर्कश पक्षी-स्वर सुन पड़ता है- 'भोल जाला’। और फिर वह चिड़िया चुप हो जाती है। एक बेबसी की चुप।
 हम लोगों ने 'भोल जाला’ का स्वर नहीं सुना, पर कुछ देर निरंतर रट के बाद वह चिड़िया अपने-आप चुप हो गई। उसका दर्द हमें बहुत गहरे छू गया। ऐसे घाव तो हम सबों के मन में हैं न, पता नहीं किन हरियाली घाटियों के वासी हमारे प्राण उन अपरिचित निर्मम परिस्थितियों की सीमा में बंध्ो, परदेश में भटक-से रहे हैं और उसी सुदूर के प्यासे हैं, वह सुदूर हमें बार-बार बुलाता है, और हम पूछते हैं-जुहो ? और हमारी विवश्ताएं, हमारे बंधन, हमारी सीमाएं कर्कश स्वर में कहती हैं-'भोल जाला’। और हम चुप हो जाते हैं। पर वह प्यास तो चुप नहीं होती। वह रटती जाती है... जुहो! जुहो! जुहो! हम रवीन्द्र ठाकुर के बंगले में सामने बैठे थ्ो और मैं सोच रहा था कहीं ऐसे ही किसी क्षण में तो रवीन्द्र ने मर्माहत होकर नहीं कहा था:
आमि चंचल हे
आमि सुदूरेर पियासी!
दिन चले जाये, आमि आनमने
तारि आशा चेये था कि वातायने।।
और इसी प्यास से व्याकुल होकर कूर्मांचल के इस सुकुमार कवि पंत ने कहा था:
क्या मेरी आत्मा का चिरधन
मैं रहता नित उन्मन-उन्मन,
स्थिर अपलक नयनों का चिंतर, 
क्या खोज रहा है वह अपनापन?
कालिदास से लेकर सुमित्रानंदन पंत तक, हिमालय भारतीय कवि की आत्मा में बराबर यह प्यास जगाता रहा है। कूर्मांचल हिमालय का द्बार है। कूर्मांचल के पहाड़ों से दीखने वाला हिमालय पता नहीं कैसे अपने-आप खींचने लगता है। इस अजीब से आर्कषण को सबसे पहले मैंने कौसानी में अनुभव किया। मझकाली के खतरनाक मोड़ और अल्मोड़े की सूखी नीरस घाटी में होते हुए, कोसी पार कर सोमेश्वर की हरी उपजाऊ घाटियों से लेकर जब हम कौसानी पहुंचे तो लगभग निराश-से थ्ो। महात्मा गांधी ने अपने जीवन के कुछ अत्यंत रमणीय दिन यहां बिताए थ्ो, और उन्होंने इस स्थान की तुलना स्विट्जरलैण्ड से की थी। हम लोगों को चारों ओर कोसी की घाटी दीख रही थी पर उसमें क्या ऐसी विश्ोषता थी? थोड़ा और आगे बढ़े। चढ़ाई शुरू हुई। बस का अड्डा आया और हम उतर पड़े। वह सामने सहसा क्या दिख पड़ा ? बादल धीरे-धीरे हट रहे थ्ो और त्रिशूल का गगनभ्ोदी शिखर उदित हो रहा था। तीसरे पहर के सूरज की सुनहरी धूप उन ऋंखलाओं के शिखरों और गहरों पर अजब रहस्यमय ढंग से शिखर रही थी। अभी केवल एक शिखर दीख रहा था। लगभग तीस-चालीस मील दूर होगा, पर लग रहा था जैसे वह सामने खड़ा है, बिल्कुल हमारे माथ्ो पर झुका हुआ, कभी-कभी तो लगता था कि अनंत काल से उस शिखर पर जमी हुई बर्फ की ठंडी-ठंडी भाप हमारे माथ्ो को आशीर्वाद की तरह स्पर्श कर रही है। नयन, मन, प्राण-बंध जाने की बात सुनी थी पर अनुभव उसी दिन हुआ। लगा जैसे हमारी चेतना का कोई अंश ऐसा जरूर है, जो धरती के कठोर यथार्थ से हमें ऊपर की ओर उठा रहा है, वहां जहां अनंत काल से शुभ्र श्वेत हिम जमा हुआ है। इन्हीं शिखरों को शंकराचार्य ने देखा था, इन्हीं में कालिदास भटके थ्ो, इन्हीं में विवेकानंद ने आत्मसाक्षात्कार किया था। क्या यह केवल भ्रम था ? फिर मैं इस समय यह क्या महसूस कर रहा हूं ? एक अलौकिक शांति, और एक-दूसरे से आती हुई पुकार, जो इन हिमशिखरों के रहस्यमय वातावरण में मुझे बुला रही है। उस एक क्षण में मुझे जैसे असीम और अनंत में आस्था होने लगी। लगा, जैसे मेरे अस्तित्व का चरम साफल्य हिमालय की ऊंचाइयों से जरूर मेल खाता है। मुझे लगा, जैसे मेरा वास्तविक व्यक्तित्व वही है, यहां तो तैसे मैं छद्यमवेश धारण कर आपद्धर्म का जीवन बिता रहा हूं। एक दिन यह सब नीचे छोड़कर उन्हीं ऊंचे शिखरों पर जाना है। यह, जो मैं आजकल जी रहा हूं, यह तो उस यात्रा की तैयारी मात्र है। कब वह बेला आएगी, जब पूछंूगा...जूहो ? जाऊं? और फिर उस समय कोई भी मेरी यात्रा कल के लिए स्थगित न कर सकेगा, मैं अपने नन्हें पंख खोलकर आकाश नापता हुआ इन्हीं ऊंचाइयों की ओर उडूंगा।
 कूर्मांचल में बीते हुए बाकी दिनों में भी यही प्यास अपने को दोहराती रही। कत्यूर की घाटी में श्वेत पत्थरों पर बहती हुई गोमती में जब मैं जी भर नहाया, डुमलौट के रास्ते में चीड़ और रोडोडेन्ड्रान के घने जंगलों में जब मैं भटकता फिरा, घनी अंध्ोरी रातों में नैनीताल की सुन्दर झील में हरी, नीली बस्तियों के प्रतिबिंबों पर से जब अपनी नाव ख्ोता फिरा, ताकुला में घने बादलों से घिरकर जब नन्हीं फुहारों से भीगता रहा, तब बराबर महसूस करता रहा कि ये कुछ सौभाग्यशाली दिन हैं, जब हम अपने जीवन को गहरे स्तरों पर जीते हैं, जब हमें जीवन की परिधि असीम मालूम पड़ती है और हमें अपने अस्तित्व के नए और गहरे अर्थ मिलते हैं। किसी भी कलाकार के लिए इस प्यास को भूल जाना घातक होता है। हिमालय ने वह प्यास फिर कुरेद दी। इसके लिए मैंने चरम आभार के उस क्षण में मन-ही-मन उसे प्रणाम किया था, और अब भी जब उसका ध्यान आता है, मेरा सर कृतज्ञता से नत हो जाता है।


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