संवैधानिक संकट से ज्यादा सियासी ड्रामा


111 दिन के कार्यकाल के बाद आखिरकार मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत को अपने पद से इस्तीफ देना पड़ा। भले ही, इसकी वजह बताई जा रही हो कि आगामी साल में विधानसभा चुनाव होने की वजह से उपचुनाव कराए जाने संभव नहीं है, इसीलिए उन्हें मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ रहा है। अब पार्टी ने खटीमा से विधायक पुष्कर सिंह धामी को मुख्यमंत्री बनाया है। बीजेपी भले ही, इस सारे घटनाक्रम को सामान्य और संवैधानिक घटना बताए, लेकिन इसके राजनीतिक और चुनावी समीकरण हों, इससे बिल्कुल भी इनकार नहीं किया जा सकता है, क्योंकि उत्तराखंड में जिस तरह से अब तक कोई भी सत्तारूढ़ पार्टी रिपीट नहीं हुई और बीजेपी का ग्रॉफ राज्य में नीचे की तरफ गिरा है, उससे पार्टी हाईकमान के भी पसीने छूट रहे हैं, उसे सूझ नहीं रहा है कि आखिरकार करें तो करें क्या ? क्योंकि इस पूरे घटनाक्रम से यह सवाल भी उठता है कि जब आगामी विधानसभा चुनावों के मध्येनजर राज्य की खाली विधानसभा सीटों पर चुनाव कराया जाना असंभव था तो तीरथ सिंह रावत को मुख्यमंत्री बनाया क्यों ? क्या पार्टी के अंदर इतने भी विशेषज्ञ नहीं हैं कि उन्हें इस बात का अंदाजा पहले था ही नहीं। इस परिस्थिति में इसे संवैधानिक संकट से अधिक राजनीतिक ड्रामेबाजी कहें तो इसमें कोई भी अतिशियोक्ति नहीं होगी।



क्या बीजेपी को लगता है कि ऐसी राजनीतिक ड्रामेबाजी करके वह दोबारा से उत्तराखंड फतह कर लेगी। यह सवाल पुष्कर सिंह धामी को मुख्यमंत्री बनाए जाने के बाद भी खत्म नहीं हुआ है, क्योंकि यह जैसी अग्निपरीक्षा तीरथ सिंह रावत के लिए थी, वहीं वैसी ही अग्निपरीक्षा पुष्कर सिंह धामी के लिए भी है। बशर्ते, वह राज्य के राजनीतिक समीकरणों से थोड़ा अधिक मैच कर रहे हों, पर सबसे बड़ा सवाल यह है कि पिछले पांच वर्षों में राज्य में विकास का पैमाना क्या रहा है ? यह ठीक है कि आपने आते ही बिजली फ्री करने का ऐलान कर दिया हो, लेकिन इससे नहीं लगता है कि आप तो मुख्य विपक्षी कांग्रेस से ही नहीं, बल्कि आम आदमी पार्टी से भी डरे हुए हो। 

दिल्ली में आम आदमी पार्टी द्बारा फ्री बिजली, पानी पर तंज कसने वाले आज उसी आम आदमी पार्टी की राह पर चलने को क्यों मजबूर हो पड़े हैं ? दूसरा सबसे बड़ा सवाल यह भी है कि आपके पास कोई ऐसा भी चेहरा नहीं है, जो पांच साल तक सरकार चला सके और उसका कार्य ऐसा हो कि उसके नाम पर अगला चुनाव भी लड़ा जाए। ऐसे में, कब तक दूसरों को नसीहत देते रहने से काम चलेगा। पिछले 20 सालों में राज्य विकास के लिए कम और मुख्यमंत्री बदले जाने के लिए अधिक चर्चा में रहा है। राजनीतिक ड्रामेबाजी के नाम पर जिस तरह राज्य को ही ड्रामा बना दिया है, उसमें आम आदमी की समस्याएं बिल्कुल गौण हो गईं हैं। आम युवा रोजगार के लड़-मर रहा है और यहां धकाधक मुख्यमंत्री की बैंकेंसी निकाली जा रही है, क्या इन सब चीजों से राजकोष का नुकसान नहीं हो रहा है ? जब राज्य के विकास में पैसा खर्च किया जाना चाहिए, युवाओं को रोजगार दिया जाना चाहिए, तब राजनीतिक ड्रामेबाजी कर केवल मुख्यमंत्रियों और मंत्रियों का भविष्य संवारा जा रहा है। आप अंदाजा लगा सकते हैं कि राज्य के 20 साल के सफर में मुख्यमंत्री के 10 चेहरे सामने चुके हैं। इनके नाम हैं नित्यानंद स्वामी, भगत सिंह कोश्यारी, एनडी तिवारी, बीसी खंडूरी, रमेश पोखरियाल, विजय बहुगुणा, हरीश रावत, त्रिवेंद्र सिंह रावत, तीरथ सिह रावत और पुष्कर सिंह धामी। यानि औसतन यहां पांच नहीं बल्कि दो साल ही एक मुख्यमंत्री का कार्यकाल रहता है।

इस सारे राजनीतिक ड्रामेबाजी का सियासी गणित देखें तो यह केवल चुनावी बिसात से अधिक कुछ नहीं है। पौड़ी से सांसद तीरथ सिंह रावत 10 मार्च को मुख्यमंत्री बने थे। नियमत: उन्हें अपने पद पर बने रहने के लिए 10 सितंबर तक विधानसभा का सदस्य बनना था। आपको बता दें कि राज्य में विधानसभा की दो सीटें गंगोत्री और हल्द्बानी खाली हैं, जहां उपचुनाव होना है। पहले तो अटकलें थीं कि रावत गंगोत्री सीट से उपचुनाव लड़ सकते हैं, लेकिन अगले साल यानि 2022 के फरवरी-मार्च में ही विधानसभा चुनाव को देखते हुए यह मुश्किल माना जा रहा था कि निर्वाचन आयोग उपचुनाव कराए। इस घटनाक्रम से एक बात तो साफ हो गई है कि राज्य में खाली पड़ी दोनों ही विधानसभा सीटों पर उपचुनाव नहीं कराया जाएगा। पर इतनी जल्दी मुख्यमंत्री बदलने का फैसला लेने के पीछे तीरथ की फजीहत कराने वाली बयानबाजी अधिक जिम्मेदार नहीं दिखती। पार्टी हाईकमान को शायद लगा हो कि जिन्होंने आते ही छिछालेदर करवा दी हो, वह चुनावों में पार्टी की नैया क्या पार लगाएगा। 

कुल मिलाकर उत्तराखंड का ये प्रयोग बीजेपी का बनाया हुआ संयोग ही लगता है। त्रिवेंद्र सिंह रावत ग्रह नक्षत्रों के तात्कालिक संयोग का नतीजा थे तो तीरथ सिंह रावत शुरू से अंत तक केवल प्रयोग ही नजर आए। आते ही] उन्होंने जिस तरह फटे जींस को लेकर बयान दिया कि यूनिवर्सिटी में पढ़ने आई हो और अपना बदन दिखा रही हो, क्या होगा इस देश का। इस बयान पर उन्हें बहुत खरी-खोटी सुननी पड़ी। बकायदा, इस मामले में उनकी पत्नी को सफाई देनी पड़ी। उनके कई और बयानों ने काफी सुर्खियां बटोरी थी, लेकिन जिस तरह यह बात सामने रही हैं कि तीरथ रावत को मुख्यमंत्री बनाए जाने के बाद पार्टी ने आंतरिक सर्वे कराया, उसमें बेहद डरावने नतीजे सामने आए। सर्वे में मालूम हुआ कि तीरथ सिंह रावत के नेतृत्व में बीजेपी के लिए उत्तराखंड विधानसभा का चुनाव जीतना मुश्किल है, जिससे पार्टी हाईकमान भी घबरा गया, क्योंकि पश्चिम बंगाल के नतीजों के बाद से ही बीजेपी नेतृत्व अंदर से हिला हुआ है। ऐसे में, पार्टी हाईकमाने की फिक्र यह बढ़ गई कि अगर, उपचुनाव हुए और रावत अपनी सीट नहीं निकाल पाये तो क्या होगा ? और अगर रावत के इस्तीफे के बाद उनकी लोक सभा सीट पौड़ी गढवाल के नतीजे भी मनमाफिक नहीं आये तो उस स्थिति में क्या होगा ? जब उत्तराखंड ही नहीं, पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे हों तो जाहिर-सी बात पार्टी की चिंता बढ़ेगी ही बढ़ेगी। पार्टी बिल्कुल भी नहीं चाहती है कि उसे इतना बड़ा सियासी नुकसान हो। पहले तीरथ सिंह रावत के गंगोत्री से उपचुनाव लड़ने की संभावना जताई जा रही थी, लेकिन माना जा रहा है कि तीरथ सिंह रावत गंगोत्री से चुनाव लड़ने के पक्ष में नहीं थे। 

सूत्रों के हवाले से यह खबर भी सामने आई थी कि तीरथ सिह रावत के चुनाव क्षेत्रों की अदला बदली हो सकती है। मतलब ये था कि तीरथ सिंह रावत की लोकसभा सीट पौड़ी गढ़वाल से पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत के लिए दिल्ली का रास्ता बनाया जा सकता था और उनकी डोइवाला विधानसभा सीट पर उपचुनाव में तीरथ सिंह रावत उम्मीदवार होते, हालांकि ऐसा कम ही होता है कि कोई मुख्यमंत्री उपचुनाव ही हार जाए। इसके बाद भी अगर, पार्टी ने मुख्यमंत्री बदल लिया है तो यह उसके सियासी डर को दर्शाता तो है ही बल्कि इसके बड़े सियासी गेम की तरफ भी ईशारा करता है। और यह ईशारा है कि उस पश्चिम बंगाल की तरफ, जहां ममता बनर्जी ने बीजेपी के सपनों पर पानी फेर दिया था। यानि पार्टी हाईकमान ने एक तीर से दो निशाने साधने की पूरी कोशिश की है। 

क्या है ममता कनेक्शन 

उत्तराखंड में मुख्यमंत्री बदलकर बीजेपी ने पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के सामने भी ठीक तीरथ सिंह रावत जैसी ही स्थिति पैदा कर दी है। दरअसल, बीजेपी के प्रत्याशी शुभेंदु अधिकारी से नंदीग्राम विधानसभा सीट हारने की वजह से ममता बनर्जी को भी छह माह के अंदर हर हाल में विधानसभा पहुंचना होगा, हालांकि उन्होंने भवानीपुर की अपनी सीट खाली करा ली है, अब देखना यह है कि चुनाव आयोग इस सीट पर उपचुनाव कब कराता है। बता दें कि पश्चिम बंगाल में 2 मई को चुनावी नतीजे आए थे और 4 मई को ममता बनर्जी का शपथग्रहण समारोह हुआ था, उसी हिसाब से 4 नबंवर से 4 नवंबर से पहले ममता बनर्जी को विधानसभा पहुंचना होगा। अब देखने की बात यह है कि यहां चुनाव होता है या फिर महाराष्ट्र जैसी स्थिति अपनाई जा सकती है। असल में, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्घव ठाकरे 28 नवंबर, 2019 को मुख्यमंत्री बने थे और 28 मई, 2020 से पहले उनको महाराष्ट्र के किसी भी सदन का सदस्य बन जाना था। उद्घव ठाकरे मान कर चल रहे थे कि अप्रैल, 2020 में विधान परिषद के चुनाव होंगे और उनका काम हो जाएगा। लगभग बहुत सारे मुख्यमंत्री विधानसभा की जगह, जहां विधान परिषद हैं, उच्च सदन का रास्ता ही अख्तियार करते हैं, लेकिन कोरोना वायरस के चलते देश में संपूर्ण लॉकडाउन लगा तो चुनाव आयोग ने महाराष्ट्र विधानसभा की 7 सीटों के लिए उपचुनाव कराये जाने का मामला भी अनिश्चितकाल के लिए टाल दिया था। उद्घव ठाकरे ने एक से ज्यादा बार कैबिनेट से प्रस्ताव पास करा कर भेजा जरूर, लेकिन राज्यपाल भगत सिंह  कोश्यारी उनको विधान परिषद के लिए मनोनीत करने को राजी ही नहीं हुए। आखिरकार, थक हार कर उद्घव ठाकरे ने प्रधानमंत्री मोदी को फोन मिलाया और उनका काम बन गया। तो क्या ऐसे ही ममता बनर्जी भी प्रधानमंत्री मोदी को मनाने में सफल हो पाएंगी। यह देखना काफी दिलचस्प होगा। वैसे, ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल में विधान परिषद के गठन की तरफ भी कदम बढ़ाया है। विधानसभा से प्रस्ताव पास भी करा लिया है, लेकिन लोकसभा की मंजूरी के बगैर ऐसा नहीं होगा और मोदी-शाह ये सब मंजूर करें ऐसा मुमकिन नहीं दिखता है। शायद, मोदी-शाह को यही करना होता तो क्या तीरथ सिंह रावत की कुर्बानी दी जाती, यह सबसे बड़ा सवाल है।

क्या कुमाऊं मंडल साधना चाहती है बीजेपी ?

क्या उत्तराखंड में सत्तारूढ़ बीजेपी कुमाऊं मंडल को साधने की कोशिश में है। पुष्कर सिंह धामी को मुख्यमंत्री बनाकर ऐसा इसीलिए लगता है, क्योंकि मुख्य प्रतिपक्षी कांग्रेस के कद्दावर नेता और आगामी चुनावों में पार्टी के संभावित चेहरे हरीश रावत से पार्टी को मिलने वाली चुनौती से जूझना पड़ेगा। यही कारण है कि कुमाऊं से क्षत्रिय मुख्यमंत्री धामी और अब ब्राह्मण अजय भट्ट को केंद्र में राज्य मंत्री का जिम्मा दिया गया है। दरअसल, हरीश रावत भी कुमाऊं से आते हैं। उन्होंने कांग्रेस हाई कमान से चेहरे पर चुनाव लड़ने की मांग की है। बदली परिस्थितियों में शायद उनकी मांग सुन भी ली जाए। इंदिरा हृदयेश के निधन के बाद कांग्रेस पार्टी के भीतर नेता प्रतिपक्ष के चयन का मामला दिल्ली हाई कमान के पाले में है, लेकिन आलाकमान पंजाब और छत्तीसगढ़ में पार्टी के मसलों में व्यस्त होने से इस ओर ध्यान नहीं दे पा रहा है। उधर, पिछले 10 दिनों से दिल्ली में डटे कांग्रेस के प्रदेश उपाध्यक्ष धीरेंद्र प्रताप ने कहा कि कांग्रेस मसले में भी जल्द फैसला होने वाला है। उम्मीद है कि इस हफ्ते के आखिर में नेता प्रतिपक्ष के मामले पर कांग्रेस अपना निर्णय घोषित कर देगी।


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