बीजेपी: क्या वाया असम यूपी भी होगा फतह
उत्तर प्रदेश में चुनावों की आहट अभी से सुनाई देने लगी है। पार्टियां चुनावी समीकरणों में सेंध लगाने में लगभग जुट गईं हैं। कहीं हाथ मिलाने का दौर शुरू हो चला है तो कहीं योजनाओं से संबंधित घोषणाओं में चुनावी बिगुल साफ समझ में आ रहा है। कुल मिलाकर पार्टियां अपनी स्थिति को समझने व उसे मजबूत करने में जमीनी तौर पर जुट गई हैं। यहां देश के सबसे बड़े राज्य और सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी यानि बीजेपी के समीकरणों को समझना थोड़ा ज्यादा जरूरी लगता है, क्योंकि केन्द्र में स्वयं बीजेपी की सरकार है और अभी-अभी असम के चुनावों से जिस प्रकार पार्टी दिल्ली और बिहार चुनावों के हार का गम भूल पाई है, वह कैसे असम वाली जीत का अनुभव यूपी में दोहरा पाएगी यह राजनीतिक तौर पर काफी मायने रख्ोगा। पार्टी के लिए सबसे बड़ी बात कहें या फिर चुनौती, वह है यूपी में सीएम का चेहरा बनाने की। इस पर राजनीतिक पंडितों के अलावा स्वयं विपक्षी पार्टियों की भी नजर है, क्योंकि कहीं-न-कहीं उनकी रणनीति भी इसी आधार पर तय होगी। बीजेपी के लिए भी इसी आधार पर चुनावी समीकरणों को साधना आसान हो पाएगा। यहां थोड़ा उत्तर प्रदेश की पृष्ठभूमि को समझना जरूरी है। प्रदेश की आबादी 2० करोड़ के आसपास है। यहां एक आंग्ल भारतीय सदस्य को मिलाकर विधानसभा की कुल 4०4 सीटें हैं। 1967 में विधानसभा सीटों की संख्या 431 थी, इसके बाद यह संख्या घटकर 426 हो गई थी। 9 नवंबर 2००० में उत्तराखंड के अलग होने के बाद आंग्ल भारतीय सदस्य को मिलाकर विधानसभा की सीटें 4०4 पर आकर सिमट गईं थी। यह बात बहुतों को चौंका सकती है कि दुनिया के 242 देशों से भी अधिक जनसंख्या उत्तर प्रदेश की है। अगर, यह स्वतंत्र होता तो दुनिया का छठा सबसे बड़ा देश होता। ऐसे में यह राज्य भारतीय राजनीति का केन्द्र बने, इस पर बहुत ज्यादा आश्चर्य नहीं होना चाहिए, लेकिन देश की सत्तासीन सबसे बड़ी पार्टी बीजेपी के लिए यह राज्य मायने रख्ो, यह ज्यादा लाजिमी लगता है। वैसे भी बीजेपी एक दशक से भी अधिक समय से यूपी की सत्ता से वनवास झेल रही है। वह पिछले चुनावों में सपा और बसपा जैसी क्ष्ोत्रीय पार्टियों की काट नहीं ढूढ़ पाई। और इस बार भी यही दोनों पार्टियां बीजेपी के लिए सिरदर्द बनेंगी। लिहाजा, पार्टी के समक्ष विकास के अलावा, जातिगत समीकरणों को भुनाने का दबाब तो है ही इससे भी अधिक प्राथमिकता इस बात की है कि पार्टी की तरफ से सीएम का चेहरा कौन होगा ? कयास भले ही पार्टी के बहुत से राजनीतिक चेहरों पर लगाए जा रहे हों, लेकिन यह न तो बहुत तार्किक समझा जा सकता है न ही व्यवहारिक। समय पर सीएम का चेहरा तय नहीं करने का नुकसान पार्टी को दिल्ली व बिहार में झेलना पड़ा है। भले ही पुर्वोत्तर राज्य असम चुनावों में कूदने तक पार्टी ने दिल्ली व बिहार की गलती को नहीं दोहराया और असम में सदानंद सोनेवाल को आगे कर चुनाव लड़ा। नतीजा यह हुआ कि पहली बार असम के सियासी संग्राम में वह सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। यूपी इस मायने में अधिक महत्वपूर्ण है। सीएम पद के लिए पार्टी द्बारा नाम तय होने के बाद ही यूपी के चुनावी समीकरणों का आंकलन भी संभव हो पाएगा। विकास के नाम पर जनता के बीच जाना बहुत अच्छा फार्मुला है, क्योंकि इस दौर में विकास के नाम पर जितने लोगों को अपनी तरफ आकर्षित किया जा सकता है, वह जातिगत समीकरणों पर संभव नहीं हो पाता है, जिसका उदाहरण लोकसभा चुनावों में साफ दिखा। इसको भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में सही संकेत भी माना गया कि कम-से-कम देश में जातिगत राजनीति अब अपने अंतिम पड़ाव में है। लोग अब वोट देंगे तो विकास के नाम पर। लेकिन पार्टी को यह बिल्कुल भी नहीं भूलना चाहिए कि जब लोकसभा के इतर विधानसभा के चुनाव होते हैं तो उसमें वोट बैंक के समीकरणों का गणित विकास के नाम पर बहुत ज्यादा बदला नहीं जा सकता बल्कि समीकरणों को भुनाने के प्रयास के अधिक मायने रखने लगते हैं। हालांकि, बीजेपी प्रदेश में जिन तैयारियों के साथ उतरने की कोशिश कर रही है वह इस बात का संकेत अवश्य देती है कि पार्टी लोकसभा चुनावों के लीक से हटकर यूपी का सियासी संग्राम सेंधने की कोशिश करेगी, इसीलिए पार्टी के लिए मुद्दे तो मायने रख्ोंगे ही उससे ज्यादा जरूरी सीएम का चेहरा समय से सामने लाना भी है। जब यूपी और बिहार जैसे ठेठ जातिगत समीकरणों वाले राज्यों का चुनाव हो तो यह बात अधिक मायने रखने लगती है। अगर, पार्टी कई चेहरों में से ढूंढकर एक चेहरा आगे करती है तो उसका सीधा और साफ संदेश जनता के बीच जाएगा। एक तो पार्टी चुनावों के दौरान न तो चेहरे को लेकर उलझेगी और न ही उसे दोगलापन का आरोप झेलना पड़ेगा। दूसरा जातिगत वोट बैंक के समीकरणों का गणित भी साफ समझ आने लगेगा, क्योंकि काफी हद तक सीएम का चेहरा ही जातिगत समीकरणों को स्पष्ट कर देगा। वैसे तो बीजेपी के पास यूपी में सीएम के चेहरों को लेकर बड़े विकल्प सामने हैं। स्मृति ईरानी, योगी आदित्यनाथ, कल्याण सिंह, डा. महेश शर्मा, वरूण गांधी जैसे नेताओं को लेकर तो चर्चा आम है। वोट बैंक के लिहाज से देखा जाए तो इन नामों से यूपी के वोट बैंक का बड़ा दायरा जुड़ जाता है, लेकिन यहां वोटों का धुव्रीकरण भी मायने रख्ोगा। जो स्थिति को तात्कालिक परिणामों में बदलने में मददगार साबित होगा। वोट बैंक के समीकरणों को समझा जाए तो प्रदेश में दलितों, ब्राह्मणों, यादवों, ठाकुरों का अच्छा खासा वोट बैंक है। इसके अलावा मुस्लिम वोट बैंक भी अच्छा खासा है। ऐसे में पार्टी के लिए अपने पैंठ वोट बैंक के अलावा समीकरणों को बदलने वाले वोट बैंक में भी ध्यान देना होगा। बसपा की तरफ से मायावती सीएम पद की उम्मीदवार रहेंगी। मसलन सपा की तरफ से अखिलेश यादव ही सीएम का चेहरा होंगे। कांग्रेस भी अभी चेहरा नहीं तलाश पाई है। अगर, वोट बैंक पर सेंध लगाने की बात करें तो महिला होने के नाते मायावती को दोहरा फायदा मिल सकेगा, क्योंकि एक तो महिला और दूसरा दलित वोट बैंक पर दबदबा। ऐसे में बीजेपी स्मृति ईरानी के चेहरे पर अवश्य विचार कर रही होगी, लेकिन पार्टी को इस बात की समीक्षा भी करनी होगी कि यूपी के राजनीतिक परिदृश्य में वह कितनी सफल होंगी? भले ही महिला होने का फायदा पार्टी समझ रही हो, लेकिन उनके साथ न केवल यूपी की राजनीति में नया चेहरा होने व लोकसभा चुनावों में हार का तमंगा भी जुड़ा हुआ है। योगी आदित्यनाथ, कल्याण सिंह, डा. महेश शर्मा व वरूण गांधी पर दांव कितना सही बैठेगा। इस पर भी पार्टी को गंभीरता से विचार करना होगा कि इसमें कौन सा चेहरा बेहतर परिणाम देगा। हालांकि ये सभी चेहरे यूपी की राजनीति से ही जुड़े हुए हैं। इनका एक राजनीति कद और वोट बैंक भी है। ये सभी नेता व्यापक उद्देश्य को लेकर राजनीति में सक्रिय हैं। कल्याण सिंह यूपी के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। वह प्रदेश की राजनीति की परिभाषा को बहुत करीब से जानते हैं, लेकिन कल्याण सिंह को छोड़ दिया जाए तो सपा, बसपा के सामने बीजेपी के अन्य चेहरे भी स्मृति ईरानी की तरह ही नए लगते हैं। ऐसे में बीजेपी के लिए चाहे मुख्यमंत्री के उम्मीदवार को लेकर हो या फिर एजेंडे को लेकर, यूपी मिशन-2०17 का मास्टर प्लॉन समय से स्पष्ट करना होगा। तभी सूबे की सियासत की कुर्सी पर पहुंचने की रेस आसान हो पाएगी।
waah ___
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