...और एक अदद ठिकाने की रेस कैसे होगी सफल ?
जाट बाहुल्य वोट बैंक में अच्छी पैंठ रखने वाले राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी(आरएलडी) प्रमुख अजित सिंह अपनी खिसकती राजनीतिक जमीन को बचाने के लिए हर पार्टी के दर पर भटक रहे हैं। पहले बीजेपी व कांग्रेस के दरवाजे से उन्हें मायूसी मिली। सपा के दरवाजे से भी उन्हें कोई पुख्ता आश्वासन नहीं मिल पाया। ऐसे में उनका राज्यसभा में जाना आसान नहीं दिख रहा है, क्योंकि कहीं-न-कहीं उनके लिए राज्यसभा के माध्यम से दिल्ली में ठिकाना संभव हो पाता। पूर्व प्रधानमंत्री और उनके पिता चौधरी चरण सिंह के नाम आवंटित बंग्ला खाली हो जाने के बाद वह दिल्ली से दूर हैं। ऐसे में दूसरी पार्टियों के टिकट के माध्यम से दिल्ली पहुंचने की रेस भी उनके लिए आसान नहीं दिख पा रही है। राजनीति और राजनेता की अभिलाषा को थोड़ा आसान शब्दों में समझा जाए तो बिना दिल्ली के न तो राजनीति सफल दिखती है और न ही राजनेता। ऐसे में अजीत सिंह इस मामले में कैसे पीछे रह सकते हैं? प्रदेश में विधानसभा चुनावों को लेकर जब सभी पार्टियों के बीच सक्रियता साफ दिख रही हो और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट बाहुल्य क्ष्ोत्र को अजित सिंह का गढ़ माना जाता हो, ऐसे में चौधरी अजीत सिंह अपनी गिरती राजनीतिक जमीन को मजबूत करने के विकल्प क्यों न तलाश्ो? जिस नफे-नुकसान के साथ वह बीजेपी, कांग्रेस और सपा के साथ गठबंधन करना चाहते थ्ो, उसके लिए तो कोई पार्टी तैयार नहीं हुई, लेकिन संबंधित पार्टी में विलय का संकेत मिला तो उनका मायूस होना जायज ही था, जबकि प्रदेश की राजनीति में अजीत सिंह की गिनती एक कदवर नेता के रूप में होती है। थोड़ा पीछे मुड़कर देख्ों तो हर पार्टी उनसे गंठबंधन के लिए विकल्प रखती थी। तब गठबंधन की शर्तें भी चौधरी अजीत सिंह के अनुसार तय होती थीं। कांग्रेस, बीजेपी और सपा के साथ गठबंधन में वह चुनाव भी लड़ चुके हैं। अब ऐसी कौन-सी परिस्थिति आ गई है कि जो पार्टियां गठबंधन के लिए अजीत सिंह के दरवाजे पर आती थीं। अब अजीत सिंह को स्वयं उनके दरवाजे खटखटाने पड़ रहे हैं? जब राजनीति और राजनेता के आंकलन का सवाल हो तो ऐसे सवालों के मूल को समझना बहुत जरूरी हो जाता है। प्रदेश में जिस तरह जातीय समीकरणों पर चुनावों के परिणाम तय होते हैं। चाहे वह विधानसभा चुनाव हों या फिर लोकसभा चुनाव। विधानसभा चुनावों में ऐसे समीकरणों का महत्व थोड़ा और बढ़ जाता है। उसमें संबंधित वोट बैंक में पकड़ रखने वाले नेता की अहमियत न बढ़े ऐसा कतई संभव नहीं दिखता। ऐसी स्थिति में अजीत सिंह की गिनती न हो ऐसा भी संभव नहीं दिखता। वह कई लोकसभा और विधानसभा चुनावों में केन्द्रीय भूमिका में दिख्ो। चाहे वह बीजेपी का शासनकाल रहा हो या फिर कांग्रेस का। लेकिन हलिया लोकसभा चुनावों ने पूरी तस्वीर ही बदल दी है। उक्त सवालों के जबाब भी इन्हीं परिणामों में खोजें तो ज्यादा उचित होगा। ये हालात भी इसी का परिणाम है कि अजित सिंह को गठबंधन के लिए दर-दर भटकना पड़ रहा है और उनके हाथ मायूसी ही लग रही है। ऐसे में अजीत सिंह अब किस विकल्प को आजमाएंगे, जिससे उनकी दिल्ली में ठिकाने की रेस आसान हो सके? यह विकल्प पूर्व विकल्पों से भी अधिक जटिल दिखाई पड़ता है। वैसे तो 2०12 के विधानसभा चुनावों में ही उनकी पार्टी की खराब स्थिति दिखने लगी थी। 2००2 के विधानसभा चुनाव में आरएलडी के 14 विधायक जीते थे, लेकिन यह संख्या 2०12 तक आते-आते नौ तक सिमट गई। लोकसभा चुनावों की तस्वीर आरएलडी के पक्ष में और भी खराब रही। 2००2 में आरएलडी के संसद में नौ सांसद थ्ो। इन दोनों ही दौर में पार्टी बीजेपी के साथ गठबंधन में थी। 2०14 लोकसभा चुनाव में आरएलडी की तरफ से संसद में जाने वाले सांसदों की संख्या शून्य पर पहुंच गई। मोदी की आंधी में न तो चौधरी अजित सिंह अपने जाट वोट बैंक पर दम भरने के बाद भी करिश्मा दिखा पाए और न ही अपनी और अपने बेटे की सीट को बचाने में कामयाब हो पाए, जबकि, बीजेपी ने अपने दम पर पूरे प्रदेश की 8० लोकसभा सीटों में 72 सीटों पर जीत हासिल की। संसद की सीट खाली होने के बाद उन्हें चौधरी चरण सिंह के नाम से आवंटित बंग्ला भी खाली करना पड़ा। जब वह संसद से दूर हो गए तो उनके लिए राज्यसभा ही एक विकल्प बचा हुआ था। इससे न केवल वह केन्द्रीय राजनीति में सक्रियता का सपना पाल रहे थ्ो बल्कि दिल्ली में एक अदद ठिकाने की तलाश में भी थ्ो। जब राज्यसभा में जाने के विकल्प भी उनके समक्ष ना के बराबर हैं तो ऐसे में अब विधानसभा चुनाव उनके लिए कितना मायने रख्ोंगे, यह काफी अहम सवाल है। क्या अब वह अपने बलबूते विधानसभा चुनाव फतह करने की रणनीति बनाएंगे? इसके लिए वह क्या विकल्प अपनाएंगे, जिससे बिना सहारे के अपनी खोती हुई राजनीतिक जमीन को दोबारा हासिल कर सकें? कम-से-कम अपने वोट बैंक को तो थामे रख पाएं? पार्टी के लिए यह चुनौती राज्यसभा में दूसरी पार्टी के बलबूते जाने की चुनौती से भी अधिक कठिन लगती है, क्योंकि जिस प्रकार मुज्जफरनगर दंगों के बाद जाट वोट बैंक बीजेपी के तरफ झुका था, उसे अभी बहुत अधिक समय नहीं हुआ है। जहां तक जाट आरक्षण को लेकर चल रहे आंदोलन का सवाल है, उसको लेकर भी बीजेपी कोई बड़ा दांव ख्ोले, इसमें भी कोई शक नहीं। अगर, ऐसा होता है तो चौधरी अजित सिंह के लिए अपनी राजनीतिक जमीन को मजबूत ही नहीं स्थिर रख्ो रखना भी बहुत अधिक मुश्किल हो जाएगा। ऐसे में जाटों की बहुलता वाले यूपी के 12 जिलों की 6० विधानसभा सीटों में उनकी पार्टी निर्णायक भूमिका निभाए, यह संभव नहीं दिखता है। यह बात बीजेपी भी जानती है कि जाट वोट बैंक में उसकी स्थिति ठीक है, ऐसे में वह चौधरी अजित सिंह का सहारा क्यों लें ? जिस तरह के चुनावी समीकरण बन रहे हैं बीजेपी के अलावा अन्य पार्टियां भी अजित सिंह से चुनावी गठबंधन करें यह भी संभव नहीं दिखता है। सपा को अजित सिंह के साथ गठबंधन में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुस्लिम वोट बैंक को खोने का डर है तो बसपा जाटव और जाट वोट बैंक के बीच छत्तीस के आकड़े के चलते किसी भी स्थिति में अजित सिंह से गठबंधन नहीं करना चाहेगी, क्योंकि बसपा अपने पैठ वोट बैंक को नहीं खोना चाहेगी। अगर, कांगेस की बात करें तो वह भी अजित सिंह को लेकर बहुत ज्यादा उत्साहित नहीं होगी। क्योंकि, पार्टी ने भले ही प्रशांत किशोर को यूपी चुनावों की कमान सौंप दी हो, लेकिन पार्टी कोई करिश्मा कर पाएगी, यह संभव नहीं दिखता है। ऐसे में वह गठबंधन के फेर में फंसने के बजाय स्वयं की राजनीतिक जमीन का आंकलन करने में अधिक रूचि दिखाएगी।
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