#उत्तराखंड# : धुएं में ओझल थी #नैसर्गिक सुन्दरता# uttrakhand

#पहाड़# जाने का संयोग बनता है तो दिमाग में नैसर्गिक सुन्दरता का कौंधना लाजिमी होता है। जब इसके विपरीत स्थिति दिख्ो तो स्वयं की आंखों पर भी भरोसा करना थोड़ा मुश्किल हो जाता है। पिछले दिनों मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। पर्वत श्रृंखलाओं, हरे-भरे पेड़-पौधों, सीढèीनुमा ख्ोत-खलिहानों और हिमालय की तस्वीर अनायास दिमाग में कौंधने लगी। एक उत्सुकता सी बन गई थी, आसमान छूते पर्वत-श्रृंखलाओं, हिम से ढंके पर्वतों, ख्ोत-खलिहानों को देखने की। इस उत्सुकता में यह भूल गया था कि पहाड़ के जंगल तो आग से धधक रहे हैं।
जब #हल्द्बानी# से आगे का सफर शुरू हुआ तो #पर्वत श्रृखलाओं# और हिमालय को देखने की उत्सुकता जैसे काफूर-सी हो गई थी। आंख्ो चौंधिया-सी गई थी। दिमाग में जंगलों लगी भीषण आग का मंजर कौंधने लगा। ये क्या तस्वीर हो गई है खुबसूरत पहाड़ की ? कहां खो गई है नैसर्गिक सुन्दरता ? कहां ओझल हो गई है हिम से ढंके पर्वतों की श्रृंखला ? कुछ ऐसे सवालों की झड़ी दिमाग में उठने लगी। बस धंुध की गाढ़ी रेखाएं चारों और फैली नजर आ रहीं थी बस। सच में, नैसर्गिक सुन्दरता आग से पैदा हुई धुंध में ओझल-सी हो गई थी। एक अजीब-सी बेरुखी शांत और स्तब्धता को चीर रही थी जैसे। पर्वत श्रृंखलाओं को देखने के लिए भी आंखों में जबरदस्त संघर्ष करना पड़ रहा था। सामने बस नजर आ रही थी तो काली डामर की अजगर जैसी सड़क। उसमें दौड़ती गाड़ियां। कई बार तो गाड़ियां रफ्तार में ही गाड़ियां ठिठक कर रुक जातीं, क्योंकि सड़कें भी पूरी तरह कंकड़-पत्थरों से पट चुकीं थीं। कहीं ऊपर से पत्थर न आए...संभाल के... जैसी बातें जब अनायास ही लोगों के मुंह से निकलती तो एक जोर के ब्रेक के साथ गाड़ी सहम-सी जाती। धंुध में काली राख और धूल के ऐसे कण तैर रहे थ्ो, जिसने नैसर्गिकता से मिलने वाली ताजगी को उलाहना और व्याकुलता में तब्दील कर दिया था।
कई किलोमीटर आगे बढ़ने के बाद मुश्किल से पहाड़ नजर आ भी रहे थ्ो तो वे जर्जर, वीरान, काले और बदसूरत लग रहे थ्ो। पेड़-पौध्ो व झाड़ियां दम तोड़ती हुई नजर आ रहीं थीं। जगह-जगह पानी के टैंकर खड़े थ्ो सड़कों का घ्ोरे हुए, जिनसे लंबा-सा पाइप #प्राकृतिक# स्रोतों में घुसाया गया था पानी भरने के लिए। हेलीकॉफ्टर में नैनी झील और भीमताल से पानी भरने की और उस पानी को आग से धधकते हुए जंगलों में छिड़कने की जद्दोजहद भी खूब दिख रही थी। कई हजार लीटर पानी भरा गया नैनी झील और भीमताल से, जिससे झील में भी पानी बेहद कम नजर आने लगा था। झील के किनारे भी सपाट और सूख्ो नजर आ रहे थ्ो। झील से पानी भरने का क्षण भी लोगों के लिए एक अलग कौतूहल उत्पन्न कर रहा था। आग की विभीषिका हर जगह नजर आ रही थी। आग की भयानकता का अंदाजा इसी से लग रहा था कि लगभग 2269 हेक्टेयर जंगल जलकर राख हो गया। लोग यही बता रहे थे कि पौड़ी, नैनीताल, रूद्रप्रयाग और टिहरी के जंगल तो कुछ ज्यादा ही वीरान हो गए हैं और वीरानी के बीच फैली धुंध एक अजीब-सा डर पैदा करने लगी है। जले पेड़ खामोश हो गए हैं। पहाड़ में बारिश नहीं हुई तो शायद आग जंगलों को और बदसूरत कर देती। नुकसान कई गुना ज्यादा हुआ होता। लोगों ने बताया कि केन्द्र और राज्य सरकार की टीमें भी आग बुझाने में हांफती नजर आई। उनमें यह शिकायत आम दिखी कि जिन्हें पहाड़ों में चलना नहीं आता वे क्या आग बुझाते ? अगर, इस काम में स्थानीय लोगों को शामिल किया जाता तो शायद आग पहले ही बुझा ली जाती। यह तो शुक्र रहा कि बारिश हो गई, जिसमें आग बुझ गई। गांवों के नजदीक पहुंचने पर तो हरे-भरे सीढèीनुमा खेतों के प्रति उठने वाला कौतूहल भी कहीं खो सा गया था, क्योंकि सख्त, जर्जर हो आए खेतों से बस सफेद राखनुमा धूल उड़ रही थी, हवा के हल्के से झोंके के साथ। धूल भी दूर तलक उड़ती और क्षण भर में ही जैसे धुंध में विलीन हो जाती। देवभूमि की यह तस्वीर नैसर्गिकता से कितनी अलग थी। निराश और उदास करने वाली जंगलों की वीरानी, उदासी एक अजीब-सी बेरुखी को प्रदर्शित कर रही थी। जंगलों में हरी घास का नामो-निशान नहीं था। दूर तक बस उजाड़ से जंगल और भीषण आग में नट हो गए पेड़-पौधे ही नजर आ रहे थे। सूखे के चलते नदियों का कल-कल छल-छल कर बहने वाला पानी भी बस रेंग रहा था, एक संकुचित दिशा में। नदियों के चौड़े किनारे भी व्यथित से लग रहे थे। बड़े-बड़े पत्थरों और रेतीली मिट्टी के सिवा कुछ न था चौड़े किनारों पर। नदियों के पानी रफ्तार भी अपनी निरंतरता को भूलती नजर आ रही थी। सूखे नौले और नौलों पर पानी भरने के लिए लगी कतार, सूखे की अजब कहानी बयां कर रही थी। नदियों के उद्गम स्थल में इस तरह पानी का संकट, यह सब विश्वास करना कितना मुश्किल था। पहाड़ों में पानी का संकट, सूखे की मार झेल रहे विदर्भ और बुंदेलखंड की याद दिला रहा था। टैंकरों के आगे पानी भरने के लिए जुटी भीड़। लोगों के चेहरों पर थकान और उदासी के अजीब-से भाव, जो एक पीड़ा को प्रदर्शित कर रहे थे।
वैसे तो #उत्तराखंड# के जंगलों में आग लगने की घटनाएं हर साल आम रहती हैं, लेकिन इस बार तो आग के अलावा सूखे की भी कुछ अलग ही स्थिति दिखी। सूखे खेतों के अलावा पहाड़ भी हरियाली विहीन हो गए। पीने के पानी और मवेशियों के लिए चारे को संकट अलग से। इस पीड़ा में डूबे लोग यही कहते दिखे, पता नहीं क्या होगा इस पहाड़ का? ऐसे में शहरों को पलायन नहीं करेंगे तो और क्या? मजबूरी है यहां के लोगों की ?
सूखे से जूझ रहे लोगों को वास्तव में उत्तराखंड के जंगलों में लगी भीषण आग ने एक अलग अनुभव दिया। जूझने का और जीवन के संघर्ष को जारी रखने का। उनके चेहरों पर मायूसी और उदासी के बीच भी एक आत्मविश्वास की लकीर छुपी हुई नजर आ रही थी। एक उत्सुकता, एक उमंग, एक लालसा उनके संघर्ष में छुपी हुई थी। जर्जर सूख चुकी थाती पर फिर से खेती करने की लालसा। एक अलग-सा संघर्ष ही सही, पर एक उम्मीद की किरण भी। इस बात को लेकर कि फिर से पहाड़ हरियाली से खिल उठेंगे। पेड़-पौधों, खेत-खलिहानों और पर्वत श्रृंखलाओं का #यौवन# फिर से लौट आएगा। फिर से #नैसर्गिक सुन्दरता# से भरपूर पर्वत श्रृंखलाओं की वादियों में ताजगी विचरण करने लगेगी। पहले की तरह.....।
यह #संस्मरण# नेशनल दुनिया में बुधवार, 11 मई 2०16 को प्रकाशित हो चुका है।
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