#किसानों# की पीड़ा पर महज मरहम न लगाएं, #पुख्ता इलाज# की भी सोचें
उत्तर प्रदेश में किसानों का दु:ख दर्द सुनने और समझने गए कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने मोदी सरकार पर किसानों की उपेक्षा का आरोप लगाया। उन्होंने कहा कि मोदी सरकार को उद्योपतियों की तरह किसानों के कर्जे भी माफ करने चाहिए। उन्होंने किसानों को जरूरी सहूलियतें भी मुहैया कराने की बात कही। उन्होंने उद्योगपतियों के कर्जे माफ करने से लेकर विजय माल्या के फरार होने संबंधी मामले को लेकर भी मोदी सरकार पर जमकर हमला बोला। राहुल गांधी की पीड़ा बिल्कुल जायज है, क्योंकि देश में किसानों की जो हालत है, वह वाकई चिंताजनक है।
राहुल उसी पार्टी का नेतृत्व करते हुए किसानों की पीड़ा पर मरहम लगा रहा थ्ो, जिस कांग्रेस पार्टी ने देश में आजादी के बाद लगभग छह दशक तक राज किया है। यह थोड़ा सोचने वाली बात है कि क्या महज दो वर्षों में ही किसानों की हालत खराब हो गई? कांग्रेस राज में कितने किसानों के कर्जे माफ किए गए, क्या इसका कोई जबाब उनके पास था। अगर, था तो इसका उल्लेख क्यों नहीं किया गया? यहां सवाल बीजेपी या कांग्रेस का नहीं है, बल्कि उस स्थिति या परिस्थिति का है, जिसमें ख्ोतों में सोना उगाने वाले किसान जी रहे हैं। देश की आजादी के छह दशक के बाद भी आखिर किसान बदतर हालत में क्यों है? दूसरों का पेट भरने के लिए फसल उगाने वाला किसान आत्महत्या करने के लिए क्यों मजबूर है? फौरी तौर पर चर्चा करें तो किसानों की आत्महत्या के मामले में पिछले दो वर्षों में जो स्थिति है, क्या पहले ऐसी नहीं थी। किसान आज भी तन ढंकने के लिए कपड़े से वंचित है। सिर छुपाने के लिए पक्का मकान बनाने में असमर्थ है। अगर, सरकारें किसानों के बारे में गंभीरता से सोचतीं तो क्या छह दशक बाद भी किसान बदतर हालत में होता। इसका सीधा-सा जवाब यही हो सकता है, बिल्कुल भी नहीं। तो ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि राहुल गांधी किस मुंह से किसानों की पीड़ा पर मरहम लगा रहे थ्ो। क्या पिछले छह दशक के दौरान किसान केवल वोट बैंक नहीं समझा गया है?
जब चुनाव करीब होते हैं तो कोई भी पार्टी या तो किसानों के कर्जे माफ करने की बात करती है या फिर उनकी फसलों के बेहतर दाम दिलाने या फिर बिचौलियों के बढ़ते प्रभाव को खत्म करने की बात करती है। चुनाव आते हैं, वोट पड़ते हैं, नई सरकार बनती है फिर भी किसान की हालत नहीं बदलती। न तो किसान कर्जे से उबर पा रहा है और न ही उसे बाजार में अन्न की सही कीमत मिल पा रही है। न ही बिचौलियों का प्रभाव खत्म हो पा रहा है। इसी का नतीजा है कि सैकड़ों किसान प्रतिवर्ष आत्महत्या को मजबूर हो रहे हैं। आत्महत्या करने वाले किसानों में उन किसानों का औसत कहीं अधिक रहता है, जो सरकारी कर्जे के तले दबे रहते हैं। सूबे में जल्द ही विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। इसीलिए नेताओं को फिर से किसानों की याद आने लगी है। अभी तो राहुल गांधी किसानों की पीड़ा पर मरहम लगा रहे हैं। अन्य पार्टियों के नेता भी पीछे नहीं रहेंगे। आने वाले दिनों में किसानों की पीड़ा पर मरहम लगाने वालों की भीड़ बढ़ेगी। जिस तरह नेता वोट बैंक के लिए किसानों की पीड़ा पर मरहम लगाते हैं, अगर उसकी पीड़ा की दवा करने के बारे में भी सोच लें तो किसान भी खुशहाल हो जाएगा। वह मौत को नहीं बल्कि खुशहाल जिंदगी को गले लगाएगा...।
राहुल उसी पार्टी का नेतृत्व करते हुए किसानों की पीड़ा पर मरहम लगा रहा थ्ो, जिस कांग्रेस पार्टी ने देश में आजादी के बाद लगभग छह दशक तक राज किया है। यह थोड़ा सोचने वाली बात है कि क्या महज दो वर्षों में ही किसानों की हालत खराब हो गई? कांग्रेस राज में कितने किसानों के कर्जे माफ किए गए, क्या इसका कोई जबाब उनके पास था। अगर, था तो इसका उल्लेख क्यों नहीं किया गया? यहां सवाल बीजेपी या कांग्रेस का नहीं है, बल्कि उस स्थिति या परिस्थिति का है, जिसमें ख्ोतों में सोना उगाने वाले किसान जी रहे हैं। देश की आजादी के छह दशक के बाद भी आखिर किसान बदतर हालत में क्यों है? दूसरों का पेट भरने के लिए फसल उगाने वाला किसान आत्महत्या करने के लिए क्यों मजबूर है? फौरी तौर पर चर्चा करें तो किसानों की आत्महत्या के मामले में पिछले दो वर्षों में जो स्थिति है, क्या पहले ऐसी नहीं थी। किसान आज भी तन ढंकने के लिए कपड़े से वंचित है। सिर छुपाने के लिए पक्का मकान बनाने में असमर्थ है। अगर, सरकारें किसानों के बारे में गंभीरता से सोचतीं तो क्या छह दशक बाद भी किसान बदतर हालत में होता। इसका सीधा-सा जवाब यही हो सकता है, बिल्कुल भी नहीं। तो ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि राहुल गांधी किस मुंह से किसानों की पीड़ा पर मरहम लगा रहे थ्ो। क्या पिछले छह दशक के दौरान किसान केवल वोट बैंक नहीं समझा गया है?
जब चुनाव करीब होते हैं तो कोई भी पार्टी या तो किसानों के कर्जे माफ करने की बात करती है या फिर उनकी फसलों के बेहतर दाम दिलाने या फिर बिचौलियों के बढ़ते प्रभाव को खत्म करने की बात करती है। चुनाव आते हैं, वोट पड़ते हैं, नई सरकार बनती है फिर भी किसान की हालत नहीं बदलती। न तो किसान कर्जे से उबर पा रहा है और न ही उसे बाजार में अन्न की सही कीमत मिल पा रही है। न ही बिचौलियों का प्रभाव खत्म हो पा रहा है। इसी का नतीजा है कि सैकड़ों किसान प्रतिवर्ष आत्महत्या को मजबूर हो रहे हैं। आत्महत्या करने वाले किसानों में उन किसानों का औसत कहीं अधिक रहता है, जो सरकारी कर्जे के तले दबे रहते हैं। सूबे में जल्द ही विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। इसीलिए नेताओं को फिर से किसानों की याद आने लगी है। अभी तो राहुल गांधी किसानों की पीड़ा पर मरहम लगा रहे हैं। अन्य पार्टियों के नेता भी पीछे नहीं रहेंगे। आने वाले दिनों में किसानों की पीड़ा पर मरहम लगाने वालों की भीड़ बढ़ेगी। जिस तरह नेता वोट बैंक के लिए किसानों की पीड़ा पर मरहम लगाते हैं, अगर उसकी पीड़ा की दवा करने के बारे में भी सोच लें तो किसान भी खुशहाल हो जाएगा। वह मौत को नहीं बल्कि खुशहाल जिंदगी को गले लगाएगा...।
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