कारवां गुजर गया, गुबार देखते रहे...


  हिंदी साहित्य के बड़े हस्ताक्षर गोपालदास 'नीरज’ अब इस दुनिया में नहीं रहे। उनके चले जाने से 'हिंदी साहित्य’ की प्रमुख विद्या 'गीत’ के एक युग का अंत हो गया। वह जिस प्रकार अपने गीतों में शब्दों का चयन करते थ्ो, वे बेहद ही लाजबाब होते थ्ो। यही वजह है कि कई वर्षों पहले लिख्ो उनके गीत आज भी लोगों के जुबान पर उसी तरह चलते हैं, जैसे उस दौर में चलते थ्ो। 
कारवां गुजर गया, गुबार देखते रहे...। 
स्वपÝ झरे फूल से, मीत चुभ्ो शूल से,
लुट गए सिंगार सभी बाग के बबूल से,
और हम खड़े-खड़े बाहर देखते रहे।
कारवां गुजर गया, गुबार देखते रहे। 

शायद ही, कोई शख्स ऐसा होगा, जिसके जेहन में गोपालदास नीरज की यह प्रसिद्ध रचना नहीं होगी। ऐसे ही, फिल्म 'मेरा नाम जोकर’ का वह गाना कौन भूल सकता है- 'ए भाई! जरा देख के चलो...’। इसी तरह फिल्म 'पहचान’ का गाना-'बस यही अपराध मैं हर बार करता हूं’...। फिल्म 'चंदा और बिजली’ का गाना-'काल का पहिया घूमे रे भाइया! ...’। 
 ये ऐसे गीत हैं, जिनमें एक विश्ोष सहजता देखते को मिलती है। इसीलिए तो ये गीत और रचनाएं हर किसी के जुबां पर रहते हैं। ये तो कुछ चुनिंदा रचनाएं और गीत ही हैं, लेकिन 'गोपालदास नीरज’ के गीतों और रचनाओं का संसार बहुत बड़ा है। इसे संयोग कहेंगे या फिर अचंभा। जिस तरह की सादगी उन्होंने अपने जीवन में ओढ़े रखी, उसी तरह की सादगी और सहजता उनकी रचनाओं और गीतों में भी नजर आती है। उम्र के पड़ाव में आगे बढ़ने के साथ-साथ उनकी लोकप्रियता भी बढ़ती गई। तभी तो वह जिस मंच पर कविता पाठ करने जाते थ्ो, वहां अधिकांश भीड़ नीरज जी के नाम से जुटती थी। और अंत तक लोग उनको सुनने के लिए बैठे रहते थ्ो। जीवन के लगभग पांच दशक तक उन्होंने मंचों पर काव्यपाठ कर लोगों का मनोरंजन भी किया, उन्हें अपने लोकप्रिय गीतों और महान रचनाओं से रुबरु भी कराया। वह शब्दों के जादूगर तो थ्ो ही, बल्कि उनकी आवाज में भी एक जादू था। इसीलिए तो उन्हें सुनने के लिए लोग बेताब रहते थ्ो। बेताब...। 
4 जनवरी 1925 को उत्तर प्रदेश के जिला इटावा के ग्राम पुरावली में जन्में नीरज जी पहले ऐसे व्यक्ति थ्ो, जिन्हें शिक्षा और साहित्य के क्ष्ोत्र में भारत सरकार ने दो-दो बार सम्मानित किया। हिन्दी साहित्य, शिक्षा जगत और कवि सम्मेलनों में अपना जीवन खपा देने वाले नीरज जी को फिल्मों में सर्वश्रेष्ठ गीत लेखन के लिए लगातार तीन बार 'फिल्म फेयर पुरस्कार’ से भी सम्मानित किया गया। इटावा की कचहरी में मामूली सी टाइपिस्ट और उसके बाद सिनेमाघरों की एक दुकान पर नौकरी करने वाले नीरज जी अपने जीवन में इतने बड़े मुकाम को छुएंगे, इस पर निश्चित ही विश्वास नहीं होता है, पर उनके जीवन की इस सच्चाई का पूरी दुनिया जानती है कि किस प्रकार उन्होंने जीवन की तंग गलियों से गुजरने के बाद अपनी सृजन क्षमता को शिखर तक पहुंचाया, वह अपने-आप में बहुत बड़े हस्ताक्षर रहे, जो जिदंगी में हार मानने वालों के लिए एक प्ररेणा भी है और सबक भी। उनके जाने के बाद इस खालीपन को भर पाना शायद ही कभी संभव हो पाएगा।
 गोपालदास नीरज को कई सम्मान और पुरस्कार भी हासिल हुए, जिनमें 1991 में 'भारत सरकार’ ने 'पदम्श्री सम्मान’ से सम्मानित किया, वहीं 2००7 में 'पद्म भूषण’ जैसे सम्मान से सम्मानित किया गया, इसके अलावा विश्व उर्दू परिषद् पुरस्कार के अलावा उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ द्बारा 1994 में उन्हें 'यश भारती’ सम्मान से भी सम्मानित किया। 



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