एहसास ("Ehsaas": Hindi Kahaani)
Hindi Kahani "Ehsaas" by bishan papola
जब तुम मुझे छूते हो तो अजीब-सी कशिश होने लगती है।
मैं तन्मय हो जाती हूं।
बिल्कुल तन्मय....!
बस ऐसा लगता है, जैसे आप में ही खो जाऊं। मेरी आंखों के सामने बस आपकी की ही तस्वीर कौंधने लगती है।
ये क्या है चन्दर... ?
क्या है बोलो...?
और क्यों होता है ऐसा...?
उसने जैसे क्षण भर के लिए बड़े ही आलिगनबद्ध होकर मेरी तरफ देखा। जैसे वह मेरी आंखों में अपने सवालों का जवाब खोजने लगी हो।
शायद, क्षण भर में जवाब मिल गया था उसे। उसने निर्मेष भाव से मेरी तरफ तांका, थोड़ा मेरे करीब आई और मेरे माथ्ो को चूम लिया था उसने।
अगले ही क्षण लंबी गहरी सांस लेते हुए वह मेरी बांहों में लिपट पड़ी थी। मैं भी गहरी सांस लिए बैगर न रह सका। जैसे उसकी खुशबू भी मुझे तन्मय कर रही थी। उसकी खुशबू में अनंत की सी गहराई थी। जैसे एक अलग-सी दुनिया का सा अहसास दे रही थी वह खुशबू।
फूलों की दुनिया जैसा। मैं जैसे उस दुनिया का अकेला माली था।
बिल्कुल अकेला...!
देखो चन्दर। उसने कहा।
मैंने उसकी तरफ शून्य भाव से देखा। उसकी निगाहों में मुझे अजीब-सी गहराई नजर आई।
क्या...? मैंने उसकी निगाहों की गहराई को चीरते हुए कहा।
ये वादियां कितनी खुबसूरत हैं ना...?
जैसे क्षण भर के लिए वह चहकी और बड़ी-सी चंचलता के साथ कहने लगी थी।
बस, तुम हो और ये वादियां...?
और कोई नहीं....!
सच में कोई नहीं। उसकी भीनीं-भीनीं नजरें जैसे मेरी नजरों में अटक-सी गईं, जिसमें मुझे असीम शांति समेटे हुईं वादियां साफ नजर आ रहीं थीं।
बिल्कुल साफ।
जब मैं बोलूं तो बस वादियां सुनें। जब तुम मुझे देखो तो वादियां शून्य भाव से निहारें। बस ये वादियां ही रहें हमारे प्यार के गवाह...।
बस ये वादियां, ये खुबसूरत वादियां।
हरी-भरी वादियां।
हां...! असीम शांति को समेटे हुई ये वादियां...। उसकी आवाज में एक अजीब-सी उद्ग्निता थी, जो मेरे ह्दय को कचोट रही थी।
सहसा उसकी नजरें नदी के शीतल जल में अटक पड़ी थीं। वह अपनी निर्मल नजरों से जल की निर्मलता को शून्य भाव से तांक रही थी। कुछ पल के लिए जैसे वह खुद में खो-सी गई थी।
फिर बोली।
देखो, कितनी शीतलता और निर्मलता है इस नदी के जल में।
क्या आप देख पा रहे हैं ?
समझ पा रहे हैं ? उसने क्षण भर के लिए गहरी निगाहों से मेरी तरफ तांका। वह नदी की गहराई,उछल-कूद मचाती मछलियां और वो कंकर-पत्थर, जो इस नदी की निर्मलता में साफ दिखाई दे रहे हैं। और हां...। उनकी गति को समझना कितना आसान हो रहा है ना...! उसकी आवाज में मुझे वेदना का सा अहसास हुआ।
काश...! ऐसी निर्मलता इंसान के मन की भी होती ना। उसने कहा।
ऐसा क्यों...? मैं क्षण भर के लिए उसके सुर्ख होठों को देखता रहा। इसीलिए, क्योंकि मैं आपके मन के अंदर झांक पाती। उसकी धड़कन को पढè पाती, उसके अहसास को और करीब से महसूस कर पाती और उन अहसासों में खो जाती। और हां देख पाती कि मेरी तस्वीर कितनी गहरी है आपके मन में...? क्या मुझे वह साफ दिख पाती या फिर धुंधली। या फिर कैसी भी नहीं...?
उसके इस संकोच ने जैसी मेरी शून्यता को चीर दिया था। मैं चौंक पड़ा..।
हां, मन हमेशा इस नदी के पानी तरह निर्मल ही होता है। बस उसकी निर्मलता का पता अहसासों से लगता है। और तस्वीर आंखों की गहराई में नजर आती है।
गहराई में।
हां, आंखों की...!
उसकी व्याकुल आंख्ों, मेरी आंखों में अटक-सी गईं थीं। जैसे वह मेरी जर्जर आंखों की गहराई में अपनी तस्वीर तलाशने लगी थी।
वो किनारे नदी के। कितने रूख्ो और व्याकुल से लग रहे हैं ना...। शायद, एक-दूसरे से मिलने के लिए। क्या इनकी व्याकुलता कभी खत्म नहीं होगी...? उस रेगिस्तान की तरह, जिसमें कभी घास नहीं उग पाती।
उसके चेहरे पर अजीब-सी रेखाएं खिच आईं तब।
हां...! उन स्लम बस्तियों में रहने वाले लोगों की तरह भी तो, जिनकी व्याकुलता आसपास बनी अट्टालिकाओं को निहारकर केवल बढ़ती रहती है। खुद में क्रोधित, कुंठित होते हैं बस वे। एक खीझ, एक दर्द उनके मन में रहता है कि काश ! हम भी इन अट्टालिकाओं में कभी वास कर पाएंगे...?
शायद नहीं...!
कभी नहीं!!!
सच में, ये नदी के किनारे भी सोचते होंगे। हमारे बीच गुजरने वाली नदी कितनी, शीतल और निर्मल है,लेकिन हम इतने जर्जर और सूख्ो। उसने छोटा-सा कंकर नदी के पानी में फेंका, जैसे कुछ पल के लिए नदी के निर्मल जल की निर्मल गति ठहर-सी पड़ी थी और उसमें दिख रहीं वादियां और अन्य चीजें धुंधली हो गईं थीं। हिम से ढ़के पर्वतों की दुधिया रोशनी भी काफूर हो गई थी जैसे...!
उसने मेरी तरफ देखा। क्या ये किनारे उस युगल जोड़े की तरह भी नहीं हैं...? जो सामाजिक बाध्यताओं की वजह से एक-दूसरे के नहीं हो पाते। वे एक-दूसरे के अहसासों को महसूस कर पाते हैं बस। ऐसे अहसासों में जीना कितना मुश्किल होता होगा ना। इतना मुश्किल कि एक दिन अहसासों की दुनिया भी खत्म हो जाती होगी।
पर मैं...!
इस मैं के साथ वह मुझसे लिपट पड़ी थी। ऐसे जैसे कि अहसासों को भी पकड़ लेना चाहती थी वह।
हमेशा के लिए...।
मैंने उसके रेशमी मुलायम बालों को सहेजा। उन बालों की कोमलता ने जैसे मेरे जर्जर हाथों की लकीरों को और गहरा कर दिया था।
आपके हाथों का अहसास कितना खुबसूरत है ?
कितना खुबसूरत...?
कितनी गहराई है इसमें...?
कितनी शीतलता है इसमें, कितनी निर्मलता।
इन वादियों से भी ज्यादा गहराई और सामने नदी के जल से भी ज्यादा निर्मलता।
और हां, उस हिमालय पर्वत की तरह खुबसूरत। उसने हिमालय पर्वत की तरफ निर्मेष भाव से तांका, जो कई पर्वत ऋंखलाओं के बाद असीम खुबसूरती का आंचल ओढ़े हुए था। हिमालय पर्वत की यह लंबी ऋंखला जैसे नीले गगन को छुए हुई थी।
उसने क्षण भर के लिए आंख्ों बंद कर दी थीं।
हां...! इन रेशमी बालों की शून्यता को चीरो, इन सुर्ख होंठों को भी छुओ।
ये कितने व्याकुल लग रहे हैं ना...?
इनकी व्याकुलता खत्म होगी।
इनकी नीरसता उस राख से पुते हुए जंगल के समान ही खत्म हो जाएगी, जिसमें आग लगने के बाद हरी-भरी घास उगने लगती है। जिस प्रकार हरियाली जंगल को खुबसूरत बनाती है, उसकी प्रकार कोमलता होंठों को।
हां चन्दर हां...।
वह मेरी गोद में निस्तेज होकर लेट गई थी। मैंने उसके सुर्ख होंठों में जर्जर अंगुलियां फेरी। क्षण में उसके होंठ गुलाब की पंखडियों की तरह खिल गए थे जैसे। और मेरी जर्जर अंगुलियां मोम की तरह कोमल-सी हो गईं थीं। मैंने उसके होंठों के मर्म को अपने होंठों से छुआ। जैसे उसके अहसास मेरे अहसासों में विलीन हो रहे थ्ो।
चन्दरर्रर्रर्रर्रर...।
उसकी यह टेह सामने पर्वत ऋंखलाओं की गहरी वादियों में गंूज पड़ी थी जैसे। मैं सहसा चौंक पड़ा था।
चंदा। कहां हो तुम...?
पर वहां कोई न था। मेरा दिल अजीब-सी वेदना में चीखने लगा था। मेरी आंख्ों आंसुओं से भर आईं थीं। शायद, वह नहीं, उसके "एहसास" ("Ehsaas") मेरे साथ थ्ो बस...! मुझे चारों तरफ उसकी परछाई नजर आने लगी थी, जो सामने पेड़ के पास आकर ठहर-सी पड़ी थी जैसे। मैं सहसा पेड़ की तरफ बढ़ा, लेकिन क्षण भर में ही उसकी परछाई भी गहरी वादियों के बीच कहीं ओझल हो गई थी...!
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Bishan Papola |
मैं तन्मय हो जाती हूं।
बिल्कुल तन्मय....!
बस ऐसा लगता है, जैसे आप में ही खो जाऊं। मेरी आंखों के सामने बस आपकी की ही तस्वीर कौंधने लगती है।
ये क्या है चन्दर... ?
क्या है बोलो...?
और क्यों होता है ऐसा...?
उसने जैसे क्षण भर के लिए बड़े ही आलिगनबद्ध होकर मेरी तरफ देखा। जैसे वह मेरी आंखों में अपने सवालों का जवाब खोजने लगी हो।
शायद, क्षण भर में जवाब मिल गया था उसे। उसने निर्मेष भाव से मेरी तरफ तांका, थोड़ा मेरे करीब आई और मेरे माथ्ो को चूम लिया था उसने।
अगले ही क्षण लंबी गहरी सांस लेते हुए वह मेरी बांहों में लिपट पड़ी थी। मैं भी गहरी सांस लिए बैगर न रह सका। जैसे उसकी खुशबू भी मुझे तन्मय कर रही थी। उसकी खुशबू में अनंत की सी गहराई थी। जैसे एक अलग-सी दुनिया का सा अहसास दे रही थी वह खुशबू।
फूलों की दुनिया जैसा। मैं जैसे उस दुनिया का अकेला माली था।
बिल्कुल अकेला...!
देखो चन्दर। उसने कहा।
मैंने उसकी तरफ शून्य भाव से देखा। उसकी निगाहों में मुझे अजीब-सी गहराई नजर आई।
क्या...? मैंने उसकी निगाहों की गहराई को चीरते हुए कहा।
ये वादियां कितनी खुबसूरत हैं ना...?
जैसे क्षण भर के लिए वह चहकी और बड़ी-सी चंचलता के साथ कहने लगी थी।
बस, तुम हो और ये वादियां...?
और कोई नहीं....!
सच में कोई नहीं। उसकी भीनीं-भीनीं नजरें जैसे मेरी नजरों में अटक-सी गईं, जिसमें मुझे असीम शांति समेटे हुईं वादियां साफ नजर आ रहीं थीं।
बिल्कुल साफ।
जब मैं बोलूं तो बस वादियां सुनें। जब तुम मुझे देखो तो वादियां शून्य भाव से निहारें। बस ये वादियां ही रहें हमारे प्यार के गवाह...।
बस ये वादियां, ये खुबसूरत वादियां।
हरी-भरी वादियां।
हां...! असीम शांति को समेटे हुई ये वादियां...। उसकी आवाज में एक अजीब-सी उद्ग्निता थी, जो मेरे ह्दय को कचोट रही थी।
सहसा उसकी नजरें नदी के शीतल जल में अटक पड़ी थीं। वह अपनी निर्मल नजरों से जल की निर्मलता को शून्य भाव से तांक रही थी। कुछ पल के लिए जैसे वह खुद में खो-सी गई थी।
फिर बोली।
देखो, कितनी शीतलता और निर्मलता है इस नदी के जल में।
क्या आप देख पा रहे हैं ?
समझ पा रहे हैं ? उसने क्षण भर के लिए गहरी निगाहों से मेरी तरफ तांका। वह नदी की गहराई,उछल-कूद मचाती मछलियां और वो कंकर-पत्थर, जो इस नदी की निर्मलता में साफ दिखाई दे रहे हैं। और हां...। उनकी गति को समझना कितना आसान हो रहा है ना...! उसकी आवाज में मुझे वेदना का सा अहसास हुआ।
काश...! ऐसी निर्मलता इंसान के मन की भी होती ना। उसने कहा।
ऐसा क्यों...? मैं क्षण भर के लिए उसके सुर्ख होठों को देखता रहा। इसीलिए, क्योंकि मैं आपके मन के अंदर झांक पाती। उसकी धड़कन को पढè पाती, उसके अहसास को और करीब से महसूस कर पाती और उन अहसासों में खो जाती। और हां देख पाती कि मेरी तस्वीर कितनी गहरी है आपके मन में...? क्या मुझे वह साफ दिख पाती या फिर धुंधली। या फिर कैसी भी नहीं...?
उसके इस संकोच ने जैसी मेरी शून्यता को चीर दिया था। मैं चौंक पड़ा..।
हां, मन हमेशा इस नदी के पानी तरह निर्मल ही होता है। बस उसकी निर्मलता का पता अहसासों से लगता है। और तस्वीर आंखों की गहराई में नजर आती है।
गहराई में।
हां, आंखों की...!
उसकी व्याकुल आंख्ों, मेरी आंखों में अटक-सी गईं थीं। जैसे वह मेरी जर्जर आंखों की गहराई में अपनी तस्वीर तलाशने लगी थी।
वो किनारे नदी के। कितने रूख्ो और व्याकुल से लग रहे हैं ना...। शायद, एक-दूसरे से मिलने के लिए। क्या इनकी व्याकुलता कभी खत्म नहीं होगी...? उस रेगिस्तान की तरह, जिसमें कभी घास नहीं उग पाती।
उसके चेहरे पर अजीब-सी रेखाएं खिच आईं तब।
हां...! उन स्लम बस्तियों में रहने वाले लोगों की तरह भी तो, जिनकी व्याकुलता आसपास बनी अट्टालिकाओं को निहारकर केवल बढ़ती रहती है। खुद में क्रोधित, कुंठित होते हैं बस वे। एक खीझ, एक दर्द उनके मन में रहता है कि काश ! हम भी इन अट्टालिकाओं में कभी वास कर पाएंगे...?
शायद नहीं...!
कभी नहीं!!!
सच में, ये नदी के किनारे भी सोचते होंगे। हमारे बीच गुजरने वाली नदी कितनी, शीतल और निर्मल है,लेकिन हम इतने जर्जर और सूख्ो। उसने छोटा-सा कंकर नदी के पानी में फेंका, जैसे कुछ पल के लिए नदी के निर्मल जल की निर्मल गति ठहर-सी पड़ी थी और उसमें दिख रहीं वादियां और अन्य चीजें धुंधली हो गईं थीं। हिम से ढ़के पर्वतों की दुधिया रोशनी भी काफूर हो गई थी जैसे...!
उसने मेरी तरफ देखा। क्या ये किनारे उस युगल जोड़े की तरह भी नहीं हैं...? जो सामाजिक बाध्यताओं की वजह से एक-दूसरे के नहीं हो पाते। वे एक-दूसरे के अहसासों को महसूस कर पाते हैं बस। ऐसे अहसासों में जीना कितना मुश्किल होता होगा ना। इतना मुश्किल कि एक दिन अहसासों की दुनिया भी खत्म हो जाती होगी।
पर मैं...!
इस मैं के साथ वह मुझसे लिपट पड़ी थी। ऐसे जैसे कि अहसासों को भी पकड़ लेना चाहती थी वह।
हमेशा के लिए...।
मैंने उसके रेशमी मुलायम बालों को सहेजा। उन बालों की कोमलता ने जैसे मेरे जर्जर हाथों की लकीरों को और गहरा कर दिया था।
आपके हाथों का अहसास कितना खुबसूरत है ?
कितना खुबसूरत...?
कितनी गहराई है इसमें...?
कितनी शीतलता है इसमें, कितनी निर्मलता।
इन वादियों से भी ज्यादा गहराई और सामने नदी के जल से भी ज्यादा निर्मलता।
और हां, उस हिमालय पर्वत की तरह खुबसूरत। उसने हिमालय पर्वत की तरफ निर्मेष भाव से तांका, जो कई पर्वत ऋंखलाओं के बाद असीम खुबसूरती का आंचल ओढ़े हुए था। हिमालय पर्वत की यह लंबी ऋंखला जैसे नीले गगन को छुए हुई थी।
उसने क्षण भर के लिए आंख्ों बंद कर दी थीं।
हां...! इन रेशमी बालों की शून्यता को चीरो, इन सुर्ख होंठों को भी छुओ।
ये कितने व्याकुल लग रहे हैं ना...?
इनकी व्याकुलता खत्म होगी।
इनकी नीरसता उस राख से पुते हुए जंगल के समान ही खत्म हो जाएगी, जिसमें आग लगने के बाद हरी-भरी घास उगने लगती है। जिस प्रकार हरियाली जंगल को खुबसूरत बनाती है, उसकी प्रकार कोमलता होंठों को।
हां चन्दर हां...।
वह मेरी गोद में निस्तेज होकर लेट गई थी। मैंने उसके सुर्ख होंठों में जर्जर अंगुलियां फेरी। क्षण में उसके होंठ गुलाब की पंखडियों की तरह खिल गए थे जैसे। और मेरी जर्जर अंगुलियां मोम की तरह कोमल-सी हो गईं थीं। मैंने उसके होंठों के मर्म को अपने होंठों से छुआ। जैसे उसके अहसास मेरे अहसासों में विलीन हो रहे थ्ो।
चन्दरर्रर्रर्रर्रर...।
उसकी यह टेह सामने पर्वत ऋंखलाओं की गहरी वादियों में गंूज पड़ी थी जैसे। मैं सहसा चौंक पड़ा था।
चंदा। कहां हो तुम...?
पर वहां कोई न था। मेरा दिल अजीब-सी वेदना में चीखने लगा था। मेरी आंख्ों आंसुओं से भर आईं थीं। शायद, वह नहीं, उसके "एहसास" ("Ehsaas") मेरे साथ थ्ो बस...! मुझे चारों तरफ उसकी परछाई नजर आने लगी थी, जो सामने पेड़ के पास आकर ठहर-सी पड़ी थी जैसे। मैं सहसा पेड़ की तरफ बढ़ा, लेकिन क्षण भर में ही उसकी परछाई भी गहरी वादियों के बीच कहीं ओझल हो गई थी...!
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