"गांधी" के विचारों की "प्रासंगिकता"


  "Mahatma Gandhi" Ji Ke Vicharo Ki Prasangikta In Hindi
"राष्ट्रपिता महात्मा गांधी" "National Father Mahatma Gandhi" की 15०वीं जयंती वर्ष की शुरूआत हो चुकी है। जिन चुनौतियों पर "Mahatma Gandhi" ने कई वर्षों पहले मंथन किया था और उन पर काम करने के लिए अपना जीवन खपा दिया, आज भी भारत के साथ-साथ दुनिया उन चुनौतियों का समाधान नहीं खोज पाई है। यह कहना गलत नहीं होगा कि चुनौतियां कम होने के बजाय अधिक बढ़ी हैं। उसके तमाम कारण हैं। हैरानी इस बात पर होती है कि वक्त के तकाजे को समझते हुए, उन चुनौतियों का समाधान खोजने के बजाय उन्हें और जटिल बनाया जा रहा है। समस्याएं एक क्ष्ोत्र में हों तो बात भी की जाए, लेकिन हर पिलर समस्याओं से जूझ रहा है। चाहे आप सामाजिक चुनौतियों की बात कर लीजिए, राजनीतिक चुनौतियों की बात कर लीजिए और उस विचारधारा की बात कर लीजिए, जिसके बलबूते सामाजिक के साथ-साथ राजनीतिक पिलरों को मजबूती मिलती है। आर्थिक विकास की बड़ी-बड़ी बातें करना अच्छा लगता है, लेकिन धरातल पर आज भी विकास के इस मोर्चे का लाभ समाज के अंतिम पायदान पर बैठे हुए व्यक्ति को नहीं मिल पाया है। गांधी जी की इस परिकल्पना को जब आजादी के 7० से भी अधिक वर्षों तक हम पूरा नहीं कर पाए हैं तो क्या इसके लिए कौन जिम्मेदार है ? 


 महज, सत्ता लोलुपता का ख्ोल देश में चल रहा है। राजनीतिक स्वार्थ को सिद्ध करने के लिए जिस तरह मूल विषयों की तिलांजलि दी जा रही है, वह समस्याओं के समाधान खोजने का जरिया कभी नहींं बन सकता है। आजादी के दौरान जिस प्रकार अलग-अलग विचारधाराओं के बाद भी देश में एकजुटता थी, आज वही एकजुटता धर्म, जाति और संप्रदाय के बीच बंट गई है, जिससे देश का लोकतंत्र तो घायल हुआ ही बल्कि सामाजिक सद्भावना भी बिखंडित हुई है। आज देश में अपनी-अपनी विचारधारा को थोपने का जो ख्ोल चल रहा है, वह असल राष्ट्रवाद का प्रतीक नहीं है, बल्कि वह एक संकीर्ण सोच को ही प्रदर्शित कर रहा है। वास्तव में, समाज के बीच चल रहे संघर्ष के पीछे का कारण भी यही है। और जिस प्रकार इसमें राजनीतिक पार्टियों ने अपनी भागीदारी बढ़ाई है, उससे यह गैप कम होने के बजाय और बढ़ रहा है। गांधी जी का राष्ट्रवाद व्यक्ति से विकसित होते हुए दूसरों राष्ट्रों तक जाता है, जो व्यापक होकर भारत के आदि मंत्र वसुध्ौव कुटुम्बकम तक जाता है। जब हम गांधी की इस भूमिका को समझेंगे, तभी हम राष्ट्र की नींव हिंसा और प्रतिरोध मुक्त रख सकेंगे। 
आर्थिक विकास और आत्याधुनिक हथियारों की जो होड़ दुनिया भर में चल रही है, उससे आपसी संघर्ष की सोच तो उत्पन्न हुई ही है बल्कि बढ़ी भी है। फिर भी अगर हम दुनिया में शांति कायम करने की बात करते हैं तो निश्चित ही हमारी निगाह गांधी जी की तरफ जाती है। विकास की दौड़ में जिन अत्याधुनिक संसाधनों के मुहाने पर हम बैठे हैं, उसमें हम बाहरी तौर पर शांति की बात करते भी हैं तो निश्चत ही हमारे अंदर एक अलग-सा अंतरद्बंद भी चल रहा होता है। यही अंतरद्बंद विनाश का कारण बनता है, जबकि सत्य और अहिंसा की प्रासंगिकता को समझने के लिए हमें एक अलग तरह के त्याग और संघर्ष जरूरत होती है, जिसमें हम अंर्तद्बंद के शिकार नहीं होते हैं।
दुनिया बहुत आगे निकल गई है। अगर, इतना आगे बढ़ने के बाद भी हम अपनी समस्याओं के समाधान के लिए गांधी जी की तरफ देखते हैं तो निश्चित ही यह उनकी परिकल्पना का वृहद्ध रूप है, जिसकी प्रासंगिकता इस दौर में भी बनी हुई है। और दुनिया में शांति कायम करनी है तो गांधी की सोच पर चलने का साहस सभी को करना होगा। इस सोच को विकसित करने के लिए हमें साहस तो चाहिए ही बल्कि इसके अलावा त्याग, समर्पण और धौर्य की जरूरत भी पड़ती है। इस सोच में धर्म, जाति और सम्प्रदाय के बीच हमें गैप नजर नहीं आएगा बल्कि हम मानवता की छवि को अपने जेहन में उतारने में समक्ष हो जाएंगे। मानवता की सोच को आगे बढ़ाने वाले शख्स के आगे दूसरी सोच और विचारधारा बौनी साबित हो जाती है। 
 गांधी जी के आगे बढ़ने का प्रतीक भी मानवीय था। मानवीय आधार पर कठिन-से-कठिन जटिलताओं का हल निकाला जा सकता है, जबकि आक्रामक सोच के बूते हम समस्याओं का हल नहीं खोज सकते हैं। इस दौर में गांधी और उसकी प्रासंगिकता को कम आंकने की जो होड-सीè चल रही है, उसमें निश्चित ही आक्रामक सोच की परछाईं नजर आती है। इसका नतीजा यह हो रहा है कि हम एक सटीक दिशा तय नहीं कर पा रहे हैं। गांधी के मृत्यु के बाद अगर हमने कई दशक गुजार दिए हैं तो फिर भी अगर उनके विचारों की प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है तो इसके मायने बहुत महत्व रखते हैं। क्या सत्य, अहिंसा भी ऐसा मार्ग बन सकता है, जिससे हम हथियारों की होड़ के बीच भी शांति स्थापित कर सकते हैं ? गांधी जी का सत्य और अहिंसा का प्रयोग हमारे सामने है तो निश्चित ही दुनिया में शांति स्थापित करना असंभव नहीं है। 
 2 अक्टूबर 1944 की बात है, जब प्रसिद्ध व्ौज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने गांधी जी को भ्ोजे संदेश में कहा था कि आने वाली पीढ़ियां शायद ही यकीन करें कि हाड़-मांस का बना कोई ऐसा व्यक्ति भी इस धरती पर चलता-फिरता था, लेकिन गांधी जी की डेढ़ सौवीं जयंती पर उनके बारे में जानने-समझने को लेकर कौतुहल बना हुआ है, तो वह गांधी की दूरदृष्टि सोच का ही परिचायक है। हर व्यक्ति तमाम अंर्तद्बंद के बीच में भी शांति की खोज कर रहा है। यानि की शांति का महत्व अगर हर व्यक्ति विश्ोष के जीवन में है तो समाज,देश और दुनिया का वैचारिक ढांचा भी इसी आधार पर कायम रह सकता है।
अंग्रेजों के तमाम अत्याचार और शोषण के बीच अगर किसी महामानव ने सत्य और अहिंसा के बल पर चलकर उन्हें देश से खदेड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई तो यह इस धरती का ऐसा प्रयोग था, जो सबसे विरलतम तो था ही, बल्कि ऐसी सीख भी है, जिसको अपनाकर ही हमें सौहार्द और सद्भावना की कल्पना कर सकते हैं। क्या इस बात पर आश्चर्य नहीं होता है कि अत्याचारों के हिमायती अंग्रेजों को भगाने में गांधी के सत्य और अहिंसा के मार्ग ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, लेकिन हमने गांधी जी की परिकल्पना के विपरीत जो सामाजिक और राजनीतिक परिवेश विकसित किया है, उसमें निश्चित ही गांधी की सोच कहीं भी फिट नहीं बैठती है। यह अब की बात नहीं है, बल्कि इसी शुरूआत आजादी के बाद से होने लगी थी, तभी तो जो गांधी सवा सौ जीने की कामना करते थे, वह अपने जीवन को व्यर्थ मानने लगे थे। वह भगवान से दुआ करने लगे थ्ो कि उन्हें अपने पास बुला ले। शायद, उनकी यह बात सच भी साबित हुई और आजादी के कुछ ही महीनों बाद उनकी हत्या हो गई। यह संघर्षशील भारत के लिए बड़ी विडंबना ही थी। इस मामले में एक अंग्रेज ऑफिसर की बात जरूर याद आती है। उसने गांधी जी की मृत्यु के बाद कहा था, जिस गांधी को हमने इतने वर्षों तक कुछ नहीं होने दिया, ताकि भारत में जो हमारे खिलाफ माहौल है, वह और न बिगड़ जाए, उस गांधी को स्वतंत्र भारत एक वर्ष भी जीवित न रख सका।



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