दिल्ली कूच के 'सबक’

 "Kishan-Kranti-Yatra" in Hindi

  by bishan papola
  'किसान क्रांति यात्रा’ "Kishan Kranti Yatra" जब गाजियाबाद के रास्ते दिल्ली में प्रवेश करने वाली थी तो दिल्ली-यूपी बॉर्डर पर उसे रोक दिया गया। सरकार कोशिश करती रही कि किसी भी प्रकार किसानों को दिल्ली में प्रवेश से रोका जाए, लेकिन किसान नहीं माने, आखिरकार मंगलवार रात साढ़े बारह बजे उन्हें दिल्ली में प्रवेश करने की इजाजत मिल गई, जिससे किसानों का खुश होना लाजिमी था, क्योंकि वह अपनी मांगों को लेकर शांतिपूर्ण मार्च निकाल रहे हैं। अब देखने वाली बात यह होगी कि सरकार किसानों के संदेश को किस तरह से लेती है। जिस प्रकार देश का अन्नदाता हमेशा से ही राजनीति का शिकार होता आया है, उससे किसान की उम्मीदें अब टूटने लगी हैं। उसे सब्जबाग तो दिखाए जाते हैं, लेकिन कोई भी सरकार उस सब्जबाग को पूरा करने का काम नहीं करती है। लिहाजा, किसानों को या तो सड़कों पर उतरना पड़ता है या दिल्ली की तरफ कूच करना पड़ता है या फिर आत्महत्या जैसे कदम उठाने के लिए मजबूर होना पड़ता है। अगर, सरकारें इसके बाद भी नहीं सोचती हैं तो यह बेहद शर्मनाक है। 

Kisan-Kranti-Yatra
 Modi Government जब सत्ता में नहीं आई थी तो उन्होंने चुनावी दंगल जीतने के लिए 'किसानों की आय दोगुनी’ करने के सब्जवाग दिखाए थ्ो, लेकिन जो स्थिति पहले और इस दौर में देखने को मिल रही है, उससे कहीं भी नहीं लगता है कि देश में किसानों को कोई फायदा हुआ और न होने वाला है और न ही उनका जीवन स्तर सुधरने वाला है। आर्थिक तंगी झेल रहे किसानों की आत्महत्या Kisano Ki Atmahtya  करने का सिलासिला लगातार जारी है, लेकिन राज्य सरकारें थोड़ा-बहुत कर्ज माफ कर महज उन्हें संत्वाना देने के अलावा कोई दूसरा काम नहीं कर रही हैं। कर्ज माफ करने से बेहतर अगर, किसानों की फसल का उन्हें बाजार भाव के अनुसार समर्थन मूल्य मिलने लगे तो निश्चित ही किसानों की स्थिति सुधरने लगे, लेकिन 'सरकार और बिचौलियों की मिलीभगत’ में किसान हमेशा से ही शोषित होता आया है। भारत एक 'कृषि प्रधान’ देश है। देश की 7० फीसदी आबादी कृषि पर निर्भर रहती है। हर किसी को यह कहते हुए भी गर्व होता है कि हां, हम एक कृषि प्रधान देश हैं, लेकिन इस दौर में जिस प्रकार किसान आंदोलन करने को बाध्य हैं, उससे सरकारों का कुरूप चेहरा समझ में आता है। किसान कर्ज तले दबा है, आत्महत्या कर रहा है, गोलियां खा रहा है, लेकिन न तो सरकारें जाग रही हैं और न ही राजनीतिक पार्टियों के बीच किसानों की स्थिति को लेकर कोई सामंजस्य बनता नजर आ रहा है। सरकारें कहने को तो कहती हैं कि वह किसानों का ध्यान रख्ोंगे, पर महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, राजस्थान, यूपी, छत्तीसगढ़, तेलंगना, कर्नाटका आदि राज्यों में किसानों का जो आक्रोश देखने को मिला है, उससे सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि देश का किसान महज 'राजनीति की ही चक्की’ में 'पिसता’ रहा है। वह 'चुनावी मुद्दा’ तो बन जाता है, लेकिन उसकी मांगें व जरूरतें सिर्फ 'चुनावी घोषणा-पत्रों’ में ही सिमट कर रह जाती हैं। इसके बाद किसान के पास या तो 'आंदोलन’ करने का रास्ता बच जाता है या फिर 'आत्महत्या’ का। 
 राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो National Crime Records Burea (NCRC) के आंकड़ों के मुताबिक, किसान आत्महत्याओं में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। आत्महत्या के सबसे ज्यादा मामले महाराष्ट्र में सामने आए। 3० दिसंबर 2०16 को जारी एनसीआरबी की रिपोर्ट 'एक्सिडेंटल डेथ्स एंड सुसाइड इन इंडिया 2०15’ के मुताबिक साल 2०15 में 12 हजार 6०2 किसानों और खेती से जुड़े मजदूरों ने आत्महत्या की। इस रिपोर्ट को देखें तो साल 2०14 में 12 हजार 36० किसानों और खेती से जुड़े मजदूरों ने खुदकुशी कर ली। यह संख्या 2०15 में बढ़ कर 12 हजार 6०2 हो गई। साल 2०14 के मुकाबले 2०15 में किसानों और खेती से जुड़े मजदूरों की आत्महत्या में दो फीसदी की बढ़ोतरी हुई। 
 वहीं, इन मौतों में करीब 87.5 फीसदी मौतें केवल सात राज्यों में ही हुई हैं, जिसमें मध्यप्रदेश चौथे नंबर पर है। साल 2०15 में महाराष्ट्र में 4 हजार 291, कर्नाटक में 1 हजार 569, तेलंगाना 1 हजार 4००, मध्य प्रदेश 1 हजार 29०, छत्तीसगढ़ 954, आंध्र प्रदेश 916 और तमिलनाडु में 6०6 किसानों ने आत्महत्या कर की। यह सिलसिला अब भी जारी है। 
 आश्चर्य की बात यह है कि जब सरकार ने किसानों की आय दोगुनी करने का दंभ भरा है तो किसान सड़कों पर उतरने को क्यों मजबूर है? उसे दिल्ली की तरफ कूच करने की जरूरत क्यों आन पड़ी? क्या इससे नहीं लगता है कि वास्तव में देश का अन्नदाता परेशान है, भूखमरी के कगार पर है, कर्ज तले दबा पड़ा है, आत्महत्या को मजबूर है। इतना सब होने के बाद भी अगर, केन्द्र व राज्य सरकारों को किसानों की मांगों का कोई हल नहीं सूझ पा रहा है तो यह निश्चित ही सरकारों की विफलता है। 
 किसानों के संघर्ष के बीच सुप्रसिद्ध कवि घाघ की दो मशहूर पक्तियां याद आती हैं...
उत्तम खेती, मध्यम बाम।
निषिद चाकरी, भीख निदान।।
 इसका अर्थ यह हुआ कि खेती सबसे अच्छा कार्य है। व्यापार मध्यम है, नौकरी निषिद्ध और भीख मांगना सबसे बुरा काम, लेकिन वास्तविकता में ख्ोती-किसानी की स्थिति सभी के सामने है। अगर, देश के किसानों को बदहाली से बचाना है तो सरकारों को राजनीतिक हितों को साधने से ऊपर उठकर किसानों की वास्तविक समस्या को समझना होगा और उनकी मांगों पर गौर करना होगा।



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