निशाने पर "सरकार"
प्रधानमंत्री कार्यालय (PMO) ने केंद्रीय मंत्रियों के खिलाफ मिलने वाली कथित भ्रष्टाचार की शिकायतों के ब्यौरे को साझा करने से इनकार कर दिया है। इसके पीछे उसका तर्क है कि इस तरह की सूचना मुहैया कराना एक जटिल काम है, क्योंकि ऐसी एक नहीं, बहुत-सी कथित शिकायतें आती रहती हैं। केंद्रीय मंत्रियों के खिलाफ कथित भ्रष्टाचार की शिकायतों के ब्यौरे को साझा नहीं करने संबंधी पीएमओ का बयान भले ही सामान्य तौर पर ज्यादा गंभीर न लगे, लेकिन ऐसे वक्त में, यह बेहद गंभीर अवश्य हो जाता है, जब देश की प्रमुख जांच एजेंसी "केंद्रीय जांच ब्यूरो"(CBI) के डीआईजी मनीष कुमार सिन्हा ने देश की सर्वोच्च अदालत यानि सुप्रीम कोर्ट में दायर अपनी याचिका में केंद्रीय कोयला राज्यमंत्री हरिभाई पी चौधरी पर किसी व्यवसायी से कई करोड़ रुपए रिश्वत लेने का आरोप लगाया है।
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PMO |
दूसरा चौंकाने वाला मुद्दा यह है कि इस पूरे घटनाक्रम में स्वयं पीएम मोदी द्बारा अभी तक किसी भी प्रकार का कोई भी बयान नहीं दिया गया है और न ही जिस मंत्री व अधिकारियों पर कथित आरोप लगाए गए हैं, उन्होंने इन आरोपों के परिपेक्ष्य में अपनी कोई नैतिक जिम्मेदारी नहीं समझी है। नैतिक जिम्मेदारी का सवाल इसीलिए भी है, क्योंकि यह आरोप न तो किसी राह चलते व्यक्ति ने लगाए हैं और न ही फौरी तौर पर लगाए गए हैं, बल्कि ये आरोप सीबीआई के डीआईजी जैसे महत्वपूर्ण रैंक के अधिकारी ने लगाए हैं, और देश की सर्वोच्च अदालत यानि सुप्रीम कोर्ट में लिखित रूप में अपने आरोपों को प्रस्तुत किया है। डीआईजी द्बारा पूरे प्रकरण पर अपनी तरफ से तत्थात्मक आकड़ों को पेश किया गया है। जाहिर सी बात है कि एक इतने बड़े ऑफिसर ने अपने नफे-नुकसान को ध्यान में रखते हुए यह आरोप लगाए होंगे, क्योंकि यह आरोप देश के सबसे बड़े ताकतवर लोगों के खिलाफ हैं। कहीं-न-कहीं इन आरोपों में सच्चाई तो होगी ही।
इस मामले में सरकार का रुख इसीलिए चौंकाता है, क्योंकि पीएम हमेशा यही कहते रहते हैं कि न खाऊंगा और न खाने दूंगा। क्या इस प्रकरण से पीएम मोदी के इस स्लोगन की फजीहत नहीं हुई है? क्या उन लोगों को अपनी नैतिक जिम्मेदारी नहीं समझनी चाहिए, जिनके खिलाफ ये आरोप लगाए गए हैं। हैरानी होती है कि जब केंद्र सरकारें सीबीआई को कटपुतली के तौर पर इस्तेमाल करती रहीं हैं। अपने विरोधियों को चित करने के लिए इस तरह की हरकत की जाती है और अपने मन-पंसद के अधिकारियों को महत्वपूर्ण संस्थाओं में लाकर बिठा दिया जाता है। ऐसा इसीलिए किया जाता है, क्योंकि इससे सरकार के मंत्रियों और अधिकारियों को लूट-खसोट करने का मौका मिल जाता है। यहां सिर्फ वर्तमान सरकार का सवाल नहीं है, बल्कि कांग्रेस गठबंधन सरकार भी इसी तरह से काम करती रही है, जिसकी वजह से देश में लाखों करोड़ के घोटाले होते रहे हैं। इन सब परिस्थितियों से आम जनता का विश्वास जरूर भंग होता है, क्योंकि यहां चोर-चोर मसौरे भाई वाली कहावत चरितार्थ होती है।
गठबंधन सरकारों में भ्रष्टाचार की अधिक संभावना रहती है, क्योंकि उसमें अलग-अलग विचारधारा की पार्टियों को एक साथ आगे ले जाने की कठिन चुनौती होती है, लेकिन बहुमत सरकार में ऐसी कौन-सी ऑफत आन पड़ी थी, जिसके तहत मंत्रियों से लेकर टॉप मोस्ट अधिकारियों को अपने स्वार्थ सिद्ध के लिए इस तरह के कारनामों में जुड़ने को मजबूर होना पड़ा। देखा जाए तो सीबीआई आदि प्रकरण से राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहाकार का कुछ लेना देना नहीं है। यह प्रकरण उनके अधिकार क्ष्ोत्र से अलग है, ऐसे में अगर, एनएसए से लेकर अन्य अधिकारियों व मंत्री ने इस प्रकरण में दिलचस्पी ली है तो निश्चित ही यह बेहद संवेदनशील प्रकरण है।
अब, जब पीएमओ यह कहता है कि मंत्रियों के खिलाफ कथित भ्रष्टाचार की शिकायतों को साझा नहीं करेंगे तो यह बेहद गंभीर विषय है। एक तरफ, सरकार पारदर्शिता की बात करती है और दूसरी तरह पारदर्शिता के खिलाफ बात करती है। ऐसे में, फिर सरकार कैसे पारदर्शी हो गई? जब सरकार चौतरफा घिर रही है तो उसे सामने आना चाहिए। अगर, सरकार व उसके नुमाइंदे इसी तरह चुप्पी साधे रख्ोंगे तो वह दिन दूर नहीं है, जब देश की सर्वोच्च अदालत इस प्रकरण पर अपना फैसला सुनाएगी। आरोप सही पाए जाएंगे तो निश्चित ही उन लोगों को नैतिक जिम्मेदारी लेनी ही पड़ेगी। सरकार कुछ नहीं करेगी तो जनता के दबाव में दोषी मंत्री व अधिकारियों को नैतिक जिम्मेदारी लेने के लिए मजबूर होना पड़ेगा।
बहुत अच्छा सर, आप जिस तरह से ब्लॉग्स के द्वारा सरकार या विपक्ष की आंखें खोलने का प्रयास करते हैं, वह सचमुच सराहनीय कार्य है। नमन है आपको।
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