जम्मू-कश्मीर का सियासी "तूफान"
Kashmir Assembly
"जम्मू-कश्मीर" में मचा सियासी तूफान अभी बड़ा राजनीतिक मुद्दा बना हुआ है। पिछले पांच महीने से राज्यपाल शासन के तहत चल रहे राज्य में जैसे ही कांग्रेस और नेशनल कॉन्फें्रस के सहयोग से पूर्व मुख्यमंत्री और पीडीपी नेता महबूबा मुफ्ती ने राज्य में समर्थन सरकार बनाए जाने संबंधी फैक्स राजभवन भ्ोजा तो राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने कुछ ही घंटों के बाद अपने "संवैधानिक अधिकारों" का हवाला देते हुए विधानसभा को भंग कर दिया, जबकि अभी विधानसभा का कार्यकाल दो साल से भी अधिक समय का बचा हुआ है। ऐसे में, राज्यपाल की कार्रवाई पर सवाल उठ रहे हैं और राज्यपाल प्रेस क्रॉफेंस कर यह सफाई दे रहे हैं कि उन्होंने तो राज्य के हित में यह फैसला लिया है। अगर, वह किसी भी पार्टी को सरकार बनाने का न्यौता देते तो राज्य में पहले जैसे हालात हो जाते। राज्य में राज्यपाल शासन लागू होने के बाद पत्थरबाजी कम हुई है और इस दरम्मान करीब 6० आंतकवादी भी मारे गए हैं। ऐसे में, किसी भी पार्टी को न्यौता देने का मतलब था कि राज्य में अस्थिर सरकार बनती और बड़े स्तर पर खरीद-फरोख्त होती।
"जम्मू-कश्मीर" में मचा सियासी तूफान अभी बड़ा राजनीतिक मुद्दा बना हुआ है। पिछले पांच महीने से राज्यपाल शासन के तहत चल रहे राज्य में जैसे ही कांग्रेस और नेशनल कॉन्फें्रस के सहयोग से पूर्व मुख्यमंत्री और पीडीपी नेता महबूबा मुफ्ती ने राज्य में समर्थन सरकार बनाए जाने संबंधी फैक्स राजभवन भ्ोजा तो राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने कुछ ही घंटों के बाद अपने "संवैधानिक अधिकारों" का हवाला देते हुए विधानसभा को भंग कर दिया, जबकि अभी विधानसभा का कार्यकाल दो साल से भी अधिक समय का बचा हुआ है। ऐसे में, राज्यपाल की कार्रवाई पर सवाल उठ रहे हैं और राज्यपाल प्रेस क्रॉफेंस कर यह सफाई दे रहे हैं कि उन्होंने तो राज्य के हित में यह फैसला लिया है। अगर, वह किसी भी पार्टी को सरकार बनाने का न्यौता देते तो राज्य में पहले जैसे हालात हो जाते। राज्य में राज्यपाल शासन लागू होने के बाद पत्थरबाजी कम हुई है और इस दरम्मान करीब 6० आंतकवादी भी मारे गए हैं। ऐसे में, किसी भी पार्टी को न्यौता देने का मतलब था कि राज्य में अस्थिर सरकार बनती और बड़े स्तर पर खरीद-फरोख्त होती।
राज्यपाल सत्यपाल मलिक का तर्क बिल्कुल ठीक है कि जब से राज्य में राज्यपाल शासन लागू हुआ है, वहां पत्थरबाजी भी कम हुई है और आंतकवादी भी मारे जाते रहे हैं। यहां सवाल सिर्फ यही नहीं है, बल्कि सवाल है लोकतांत्रिक मूल्यों को जिंदा रखने का। क्योंकि, पार्टियों के पास यह अधिकार है कि वह नियम के तहत वहां सरकार बना सकती हैं। पार्टियों के जो भी प्रतिनिधि विधानसभा पहुंचे हैं, वह जनता द्बारा चुनकर पहुंचे हैं, ऐसे में, क्या राज्यपाल का फैसला अर्नगल नहीं लगता है ? आपको इस बात का मतलब नहीं होना चाहिए कि कौन-सी पार्टी किस पार्टी के समर्थन से राज्य में सरकार बनाने में सक्षम है। आपके पास समर्थन के आकड़े देखने का अधिकार है। जो बड़ी पार्टी के रूप में सामने आ रही है और बहुमत के हिसाब से राज्य में सरकार बना सकती है तो आपको लोकतांत्रिक मूल्यों की आवश्यकता को समझते हुए उसे सरकार बनाने का न्यौता देना चाहिए था, लेकिन राज्यपाल द्बारा ऐसा नहीं किया गया। आनन-फानन में विधानसभा भंग कर दी गई।
इसीलिए राज्यपाल के फैसले से लोकतांत्रिक मूल्यों को निश्चित ही चोट पहुंची है। राज्य में पीडीपी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में चुनकर आई है। पीडीपी के पास 28, बीजेपी के पास 25, नेशनल क्रांफ्रेंस के पास 15, कांग्रेस के पास 12, पीपुल्स कांफ्रेंस के दो और तीन निर्दलीय व मार्क्सवादी पार्टी और पीडीएफ का एक-एक विधायक चुने जाने पर 87 सदस्यीय विधानसभा का गठन हुआ था, जिसमें दो मनोनीत विधायक भी शामिल थ्ो। पीडीपी से भाजपा गठबंधन के साथ सरकार बनाई, जो चली भी, लेकिन पूरा कार्यकाल नहीं पूरा कर सकी। लगभग छह महीने पहले दो पार्टियों के बीच करार समा’ हो गया और बीजेपी ने पीडीपी से समर्थन वापस ले लिया। इसके बाद राज्य में राज्यपाल शासन लागू कर दिया गया। इसके बाद कांग्रेस व नेशनल क्रॉन्फेंस जैसी पार्टियां राज्य में विधानसभा भंग कर चुनाव कराने की मांग करती रहीं, लेकिन राज्यपाल द्बारा ऐसा नहीं किया गया, लेकिन जब वहां दोबारा सरकार बनने की स्थितियां बन रही थीं, तो आनन-फानन में राज्यपाल ने विधानसभा भंग क्यों की? राज्यपाल का यह फैसला लोकतांत्रिक मूल्यों को कमजोर करने वाला है या नहीं ? इसे आसानी से समझा जा सकता है।
जब विधानसभा का अभी काफी वक्त बचा हुआ है तो निश्चित ही राज्यपाल को सरकार बनाए जाने संबंधी फैक्स को गंभीरता से लेना चाहिए था और संबंधित पार्टियों को सरकार बनाने का मौका दिया जाना चाहिए था, जो मिलकर सरकार बनाने का दावा करना चाहते थ्ो। यह लोकतांत्रिक नियमों के पक्ष में भी होता और राज्यपाल की साख भी बची रहती। यह पहला मौका नहीं है, जब किसी राज्य के राज्यपाल की इस तरह से छिछालेदार हो रही है। इससे पहले भी कई उदाहरण सामने हैं। कुछ माह पूर्व इसी तरह का घटनाक्रम कर्नाटक में भी सामने आया था, जब वहां के राज्यपाल वजुभाई वाला ने आनन-फानन में बीजेपी को सरकार बनाने का मौका दे दिया था, जबकि वह बड़ी पार्टी के रूप में नहीं उभरी थी। राज्यपालों द्बारा इस तरह के फैसले देने से एक बात तो सिद्ध होती है कि राज्यपाल हमेशा से केंद्र के एजेंड के तौर में काम करते रहे हैं। हलिया घटनाएं कोई नई नहीं हैं। कांग्रेस के शासनकाल में भी ऐसे घटनाक्रम सामने आते रहे हैं। केंद्र के ईशारे पर भले ही राज्यपाल काम करते रहे हैं, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात है, संवैधानिक और लोकतांत्रिक मूल्यों को जीवित रखना। संवैधानिक और लोकतांत्रिक मूल्य जीवित रहेंगे, तभी संसदीय प्रणाली भी चलेगी और लोकतंत्र भी मजबूत होता रहेगा। लिहाजा, राज्यपालों को अर्नगल फैसले नहीं लेने चाहिए, बल्कि उन्हें ऐसे फैसले लेने से पहले लोकतांत्रिक सिस्टम को ध्यान में रखना चाहिए।
आठ बार लग चुका है राज्यपाल शासन
जम्मू-कश्मीर में राज्यपाल शासन की बात करें तो इस बार पहली बार राज्य में राजनीतिक संकट पैदा नहीं हुुआ है, बल्कि 4० वर्षों के इतिहास में राज्य में आठ बार राज्यपाल शासन लागू हो चुका है। पहली बार इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री रहने के दौरान राज्य में 26 मार्च 1977 से 9 जुलाई 1977 तक यानि कुल 1०5 दिन तक राज्यपाल शासन रह चुका है। जब इंदिरा गांधी ने एलके झा के गर्वनर रहते हुए श्ोख अब्दुल्ला की सरकार को गिरा दिया था। दूसरी बार भी राज्य में तब राज्यपाल शासन लागू हुआ, जब इंदिरा गांधी ही देश की प्रधानमंत्री थी। तब राज्यपाल शासन 6 मार्च 1986 से लेकर 7 नवंबर 1986 तक रहा था। इंदिरा गांधी ने तब नेशनल कॉफें्रस में बंटवारे की रूपरेखा तैयार करके श्ोख अब्दुल्ला के दामाद गुलाम मोहम्मद शाह का समर्थन किया और फारूख अब्दुल्ला की सरकार गिरा दी थी। इस दौरान यहां 246 दिन राज्यपाल शासन रहा था। तीसरी बार, राज्य में 199० में राज्यपाल शासन रहा था, जो 19 जनवरी 199० से 9 अक्टूबर 1996 तक रहा था। उस वक्त, जगमोहन फिर जम्मू-कश्मीर के आतंकवाद को नियंत्रण में लाने के लिए राज्यपाल बनाए गए तो जगमोहन से पहले से नाराज चल रहे फारूख अब्दुल्ला ने सीएम पद से इस्तीफा दे दिया था। यह अवधि राज्यपाल शासन की सबसे बड़ी अवधि थी, जो 264 दिन तक रही।
राज्य में चौथी बार राज्यपाल शासन वर्ष 2००० में लगा, जो महज 15 दिन ही रहा, जो 18 अक्टूबर 2००2 से 2 नवंबर 2००2 तक था। इस बार त्रिशंकु विधानसभा बनने की वजह से राज्यपाल शासन लागू हुआ, लेकिन 15 दिन बाद ही पीडीपी-कांग्रेस ने नई सरकार बना ली थी। राज्य में पांचवी बार 2००8 में राज्यपाल शासन लागू हुआ था, जो 11 जुलाई 2००8 से 5 जनवरी 2००9 तक लागू रहा। जब पीडीपी ने गुलाम नबी आजाद सरकार से समर्थन वापस ले लिया था। उस वक्त अमरनाथ जमीन विवाद पर मचे संघर्ष के बाद सरकार मिली थी। इस दौरान राज्य में राज्यपाल शासन की अवधि 178 दिन की थी। राज्य में छठवीं बार 51 दिन के लिए राज्यपाल शासन लागू हुआ था, जो 9 जनवरी 2०15 से 1 मार्च 2०15 तक लागू रहा। असल में, 2०15 में हुए चुनाव में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था। त्रिशंकु विधानसभा बनने पर राज्य में राज्यपाल शासन लागू हुआ था। सातवीं बार, जनवरी 2०16 में राज्यपाल शासन लागू हुआ था, जो 8 जनवरी 2०16 से शुरू होकर 4 अप्रैल 2०16 तक रहा था। इस दौरान राज्य में राज्यपाल शासन की अवधि 87 दिन रही थी। असल में, जनवरी 2०16 में मुफ्ती मोहम्मद सईद की मौत के बाद राज्य में राज्यपाल शासन लागू हुआ था। एक बार फिर सरकार गिरने के चलते इस बार राज्य में आठवीं बार राज्यपाल शासन लागू है, जो 19 जून 2०18 से शुरू हुआ था और वर्तमान समय में चल रहा है।
यहां थोड़ा जम्मू-कश्मीर के बारे में संवैधानिक स्थिति को स्पष्ट कर देते हैं। असल में, जम्मू-कश्मीर के संविधान के अनुच्छेद 92 के तहत राज्य में 6 महीने के लिए राज्यपाल शासन लागू किया जाता है, हालांकि देश के राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद ही ऐसा किया जा सकता है, इस अवधि में कोई हल नहीं निकलने पर वहां राष्ट्रपति शासन लगा दिया जाता है। उधर, भारतीय संविधान के अनुसार जम्मू-कश्मीर को अनुच्छेद 37० के तहत विश्ोष राज्य का दर्जा हासिल है। यह देश का एकमात्र ऐसा राज्य है, जिसका अपना संविधान भी है। देश के अन्य राज्यों में ऐसी स्थितियों में अनुच्छेद 356 लगाया जाता है। जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रपति से मंजूरी मिलने के बाद 6 महीने के लिए राष्ट्रपति शासन लगाया जाता है। इस दौरान विधानसभा या तो निलंबित रहती है या इसे भंग कर दिया जाता है। अगर, छह महीनों के अंदर राज्य में सरकार का गठन नही हो पाता, तो ऐसी स्थिति में राज्यपाल शासन की समय-सीमा को बढ़ा दिया जाता है।
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