सीबीआई और सरकार
"CBI Aur Sarkaar"
देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी "CBI" पिछले कुछ समय से सवालों के घ्ोरे में है। टॉप मोस्ट दो अधिकारियों के बीच आरोप-प्रत्यारोप से शुरू हुई कहानी अब काफी आगे बढ़ चुकी है। आंध्र प्रदेश और पश्चिम बंगाल की सरकारों ने अपने राज्यों में सीबीआई की कार्रवाई को लेकर दी गई सामान्य स्वीकृति को वापस लेने की घोषणा भी की है, जिसका समर्थन दिल्ली के मुख्यमंत्री अरिवंद केजरीवाल ने भी किया है। ये तीनों वो नेता हैं, जो आगामी 2०19 में होने वाले लोकसभा चुनाव में महागठबंधन की नींव रखने की कोशिशों में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। यहां दो परिस्थितियों का निचोड़ एक ही निकलता है, वह है सीबीआई का राजनीतिक इस्तेमाल।
अगर, आज सीबीआई की दुगर्ति देखने को मिल रही है तो उसके पीछे भी राजनीतिक कारण हैं और अगर, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश की सरकारें सीबीआई के राज्य में घुसने पर रोक लगाने का निर्देश देते हैं और उसका दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल समर्थन करते हैं तो इसके पीछे भी राजनीतिक कारण ही हैं। अभी एक तीसरी बात जो सामने आई है, वह यह है कि सीबीआई से संबंधित हलिया मामले में "राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहाकार" (NSA) अजित डोभाल का भी कुछ कनेक्शन है। सरकार व सीबीआई लाख यह कहें कि यहां एक-दूसरे पर किसी का दखल नहीं है तो यह सरासर गलत होगा। सरकार के लिए प्यादे की तरह काम करने की वजह से आज सीबीआई की यह दुगर्ति हुई है।
"सीबीआई" देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी है, जो भी पेचींदा मामले होते हैं, उन्हें सीबीआई के हवाले कर दिया जाता है, लेकिन इसमें अधिकांशत: मामले वह होते हैं, जो राजनीतिक नफे-नुकसान से जुड़े हुए होते हैं। सरकार सीबीआई के माध्यम से अपने धुर-विरोधी नेताओं की गड़ी-मिट्टी खोदने का काम करती है। हैरानी की बात यह है कि सरकार में बैठे हुए लोग भ्रष्टाचार को अंजाम देने में लगे हुए होते हैं, जिस पर सीबीआई की नजर नहीं होती है। इससे भ्रष्टाचार और भी बढ़ने लगती है।
सीबीआई प्रकरण में वर्तमान केंद्र सरकार बचने का प्रयास भले ही करे, लेकिन तमाम ऐसी परिस्थितियां हैं, जिनमें उसकी भूमिका साफ नजर आ रही है। चाहे वह कई मामलों में घिरे होने के बाद भी राकेश अस्थाना को सीबीआई जैसी महत्वपूर्ण एजेंसी में नियुक्त करने की बात हो या फिर सीबीआई डायरेक्टर आलोक वर्मा को आनन-फानन में हटाने की बात हो। इसके बाद जिस प्रकार राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहाकार अजित डोभाल की दखलअंदाजी की बात सामने आ रही है, उससे सरकार की कलई का एक और चेहरा सामने आता है। यह भारत जैसे वृहद लोकतंत्र वाले देश के लिए बेहद शर्मनाक है। इससे लोगों का भरोसा तो उठाता है, बल्कि एक ऐसी संस्था की दुगर्ति भी होती है, जिसकी अपनी अलग साख होनी चाहिए। जिस तरह सीबीआई की दुगर्ति हुई है, अब उसे अपनी साख बनाने में काफी वक्त लग जाएगा। यह चुनौती न केवल स्वयं सीबीआई के लिए है, बल्कि सरकार के लिए भी चुनौती है कि कैसे वर्तमान सरकार पूर्ववतीã सरकारों से स्वयं को अलग और लोकतांत्रिक मानती है। लोकतांत्रिक मूल्यों की साख को मजबूत करने के लिए सरकार को अपनी एक अलग छवि बनानी होगी।
इस पूरे प्रकरण में सीबीआई के अधिकारियों पर ज्यादा दोषारोपण करने से बेहतर है कि सरकार को कठघरे में खड़ा किया जाए। आखिर, सीबीआई की लड़ाई इस हद तक पहुंचने की परिस्थितियां क्यों पैदा हुईं? क्या इन हालातों को लड़ाई सड़क पर आ जाने से पहले नहीं हल किया जा सकता था? अपने खास अधिकारी को प्रमोट करने के लिए अगर सरकार इस तरह की कोशिश करती है तो यह सरकार के लिए भी प्रतिकूल परिस्थितियों को जन्म देने वाला ही है। दूसरा, महत्वपूर्ण मुद्दा है आंध्र प्रदेश और पश्चिम बंगाल की सरकारों द्बारा अपने राज्य में सीबीआई के घुसने पर रोक लगाने संबंधी। अगर, सीबीआई का राजनीतिक इस्तेमाल नहीं होता तो शायद किसी भी राज्य सरकार की इतनी हिम्मत नहीं होती कि वह सीबीआई जांच में दखलअंदाजी करे। क्या यह फैसला राजनीति से प्रेरित नहीं लगता है। इस फैसले से नुकसान किसका होगा, इन राजनीतिक पार्टियों और सरकारों का नहीं बल्कि देश और देश की आम जनता का होगा। अगर, जांच संबंधी दबाव नहीं होगा तो सफेदपोश और लालफीताशाही और मौज करने लगेगी। खुलकर, भ्रष्टाचार को अंजाम दिया जाने लगेगा।
हलिया, हालातों के चलते ही सीबीआई के खिलाफ एक माहौल सा बन गया है। इसीलिए गैर-बीजेपी सरकारों वाले राज्यों की सरकारें चुनावी समर में बीजेपी के खिलाफ एकजुट होने के साथ-साथ सीबीआई के खिलाफ भी एकजुटता दिखाने लगे हैं, जिससे देश की एक महत्वपूर्ण संस्था की गरिमा तो गिरती ही है, बल्कि लोकतांत्रिक मूल्यों को मजबूती प्रदान करने के लिए जो एक खुला परिवेश बना रहना चाहिए, उसको भी ठेंगा दिखाना है। इससे राजनीतिक प्रतिद्बंदिता तो बढ़ेगी ही, बल्कि सीबीआई जैसी संस्था की साख को और भी बट्टा लगेगा। अब यहां जरूरी यह हो जाना चाहिए कि सरकार और स्वयं सीबीआई इस गर्त से बाहर निकले। सीबीआई जहां कोशिश करे कि वह एक मजबूत और विवेकशील संस्था के तौर पर काम करे, वहीं सरकार राजनीतिक परिद्बंदिता के लिए देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी का इस्तेमाल अपने नफे-नुकसान के तहत न करे। तभी सीबीआई की भी साख बचेगी और सरकार ऐसे मुद्दों को लेकर विपक्षियों के निशाने पर नहीं आएगी।
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