पश्चिम बंगाल में
पंचायत चुनाव के दौरान जिस तरह से हिंसा हुई है, उसने कई तरह के सवाल खड़े कर दिए हैं, क्योंकि लोकतंत्र
में इस तरह की हिंसक घटनाएं बहुत अधिक शर्मनाक हैं। राजनीतिक प्रतिस्पर्धा की
दौड़ को हिसंक प्रतिस्पर्धा में बिल्कुल भी नहीं बदला जाना चाहिए, इससे न केवल आमलोगों की जिंदगी तबाह होती है, बल्कि
लोकतंत्र की जीवटता भी कमजोर होती है।

चुनावों के दौरान हिंसा पश्चिम बंगाल
में तो एक परंपरा-सी बन गई है और यही परंपरा अन्य राज्यों में शुरू नहीं होगी, इससे बिल्कुल भी
इनकार नहीं किया जा सकता है। आगामी महीनों में देश के कई राज्यों में विधानसभा
चुनाव होने हैं और अगले साल 2024 में लोकसभा के चुनाव होने हैं, ऐसे में इन चुनावों में हिंसा नहीं देखने को मिलेगी, इसकी कोई गारंटी नहीं है, क्योंकि पश्चिम बंगाल की
हिंसा राजनीतिक प्रतिस्पर्धा से इजाद हुई है, इसीलिए अन्य
राज्यों में भी इस तरह की प्रतिस्पर्धा देखने को मिलेगी, क्योंकि
आज के दौर में जिस तरह से राजनीतिक पार्टियां सत्ता के लिए किसी भी हद तक जाने पर
उतारू हैं, उससे लोकतंत्र की जड़ें लगातार खतरे में ही दिखाई
दे रही हैं। पश्चिम बंगाल में जिस तरह पंचायत चुनावों के दौरान हिंसा हो रही है,
वह बेहद ही चिंताजनक है, क्योंकि यह पहला ऐसा
पंचायत चुनाव नहीं हैं, जब हिंसा हुई है, बल्कि 2013 और 2018 में भी पंचायत चुनावों के दौरान यहां हिंसा हो चुकी
है। इतना ही नहीं, 2019 के लोकसभा चुनावों के साथ ही 2021
में हुए विधानसभा चुनावों के दौरान भी यहां व्यापक हिंसा देखने को मिली थी। आश्चर्य
की बात यह है कि इतने बड़े स्तर पर होने वाली हिंसा को देखते हुए भी राज्य चुनाव
आयोग तो खामोश ही है बल्कि प्रशासन भी बेबस ही नजर आ रहा है।
चुनावों को लोकतंत्र का पर्व कहा जाता
है, लेकिन इस पर्व के
दौरान जिस तरह का खून-खराबा हो रहा है, उसने इस पर्व की
गरिमा और लोकतंत्र में इसके महत्व को ही तार-तार कर दिया है, क्या अब यह मानकर चलें कि जब भी देश में चुनाव आएंगे, इसी तरह से हिंसा रहेगी और आम लोगों के खून से ये चुनाव लाल होते रहेंगे
और राजनीतिक पार्टियां उसमें अपनी रोटी सेंककर सत्ता का भोग करते रहेंगे। यह विषय
अत्यंत ही चिंतनीय है। क्या राजनीतिक पार्टियों को इस पर गंभीरता से विचार नहीं
करना चाहिए। हैरानी तब होती है, जब ऐसी हिंसा के बाद भी
राजनीतिक पार्टियां अपनी गलती मानने के बजाय एक-दूसरे पर दोषारोपण करने पर तुले
रहते हैं। एक-दूसरे पर हिंसा फैलाने का आरोप मढ़ते हुए खुद को निर्दोष साबित करने
का प्रयास करते हैं, जो लोकतंत्र की आत्मा को सबसे अधिक
तार-तार करता है।
पश्चिम बंगाल का सच यही है कि यहां ऐसी हिंसा लगातार
ही बढ़ती जा रही हैं। पक्ष-विपक्ष केवल एक-दूसरे पर आरोप मढ़ते हुए कब कितनी हत्याएं
हुईं, इसका हिसाब भर रखते हैं, जिससे एक-दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश की जा सके। पश्चिम बंगाल में हिंसा
का यह स्वरूप हो चला है कि एक पक्ष दूसरे के कार्यकर्ताओं को मार रहा है और दूसरा
पक्ष उसके कार्यकर्ताओं का मार रहा है। यह एक प्रवृत्ति-सी हो चली है, जिसका पूरा लाभ राजनीतिक पार्टियां उठा रही हैं, ऐसी
हिंसा से न केवल लोकतंत्र कमजोर हो रहा है, बल्कि राष्ट्रीय
मूल्यों को भी भारी चोट पहुंच रही है। जब देश में विकास की बात होनी चाहिए,
आम लोगों के जीवन में परिवर्तन लाने की बात होनी चाहिए, बेरोजगारों को रोजगार देने की बात होनी चाहिए, ऐसी
स्थिति में हिंसा हो रही है, राजनीति द्धेष में लोग एक-दूसरे
के खून के प्यासे हो रहे हैं। निश्चित ही, हिंसक होता
राजनीतिक चेहरा लोकतंत्र पर एक बदनुमा दाग है। हम लोकतंत्र में किस तरह की परिपाटी
को जन्म दे रहे हैं, यह अपने-आप में बहुत अधिक शर्मनाक है।
इस
तरह हिंसा फैलाकर कोई जीत भी जाएगा तो उसका क्या लाभ। आखिर, इस तरह से कब तक जीत हासिल की जा सकेगी, क्योंकि
इससे द्धेष बढ़ता जाएगा और आम जीवन में भी लोग हिंसा को अधिक बढ़ावा देने लगेंगे,
क्योंकि ऐसी घटनाओं से ही लोगों में आवेश, संवेदनहीनता,
नफरत और घृणा पैदा होने लगती है, जिसका सीधा-सा
परिणाम खून-खराबा होता है। लिहाजा, ऐसी परिपाटी को रोकना अत्यंत
ही आवश्यक है। इस पर चुनाव आयोग को सख्त से सख्त कदम उठाने चाहिए। पश्चिम बंगाल
में जिस तरह का मंजर अभी दिख रहा है, इसकी आशंका पहले ही जता
दी गई थी और संबंधित एजेंसियों को ऐसी हिंसा रोकने की योजना बनाने के लिए बहुत
अधिक समय था, जिसकी तैयारी समय से की जानी चाहिए थी। वहीं,
हाईकोर्ट के निर्देश के बाद भी तृणमूल कांग्रेस सरकार और केन्द्रीय
सुरक्षा बलों को हिंसा रोकने के लिए जरूरी उपाय करने चाहिए थे। हिंसा की आशंका के
बाद अगर समय से पुख्ता इंतजाम किए जाते तो इस तरह खून-खराबा नहीं होता।
लिहाजा,
इस मामले की उच्चस्तरीय जांच होनी चाहिए और दोषी लोगों को सख्त
से सख्त सजा दी जानी चाहिए, जिससे भविष्य में कोई भी इस
तरह की हिंसा को अंजाम देने की हिम्मत न कर सके। ऐसा होने पर ही आगामी चुनावों के
लिए एक सबक होगा, क्योंकि देश में 2024 तक चुनावों का दौर
चलने वाला है। इसी साल कई राज्यों में विधानसभा चुनाव तो होने ही हैं और 2024 में
लोकसभा का चुनाव भी होना है, इसीलिए पश्चिम बंगाल के पंचायत
चुनावों में हो रही हिंसा की पुनर्रावृत्ति इन चुनावों में न हो, उसके लिए अभी से व्यापक तैयारी करने की जरूरत है। चुनावों का ध्येय केवल
चुनाव जीतना नहीं होना चाहिए, बल्कि जनता के मुद्दों को कैसे
लागू किया जाए और उनके जीवन में परिवर्तन लाने का रास्ता कैसे सुगम बनाया जाए,
इस पर चर्चा होनी चाहिए और चुनावी जीत का मंत्र भी इसी में छुपा
होना चाहिए, तभी देश तरक्की के रास्ते पर आगे बढ़ेगा और समाज
में परस्पर सहयोग की पंरपरा का निर्वहन हो सकेगा, क्योंकि जब
समाज का ताना-बाना मजबूत रहेगा, तभी लोकतंत्र भी मजबूत होगा,
क्योंकि लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत ही जनता होती है, लेकिन जनता को राजनीतिक पार्टियां जिस तरह भटकाने का काम कर रही हैं,
वह हर हाल में बंद होना चाहिए, इसके जरूरी है कि
सख्त नियम हों, जिसमें राजनीतिक पार्टियों को इस तरह की हिंसा
फैलाने की बिल्कुल भी छूट न मिल सके, तभी लोकतंत्र की गरिमा
भी बनी रहेगी और देश विकास की राह पर भी आगे बढ़ता रहेगा।
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