ठीक नहीं है भारतीय त्योहारों पर विदेशी की छाया


 दिवाली के त्योहार को लेकर लोगों के बीच का उत्साह देखते ही बनता है। हर तरफ उत्साह की ऐसी बयार नजर आती है, जो हर तरह के अंधेरे का चीरती है और अंध्ोरे से उजाले की तरफ ले जाने के लिए प्रेरित करती है। सदियों से इस त्योहार की परंपरा आज भी वैसी ही बनी हुई है। भगवान राम के अयोध्या लौटने के जश्न पर मनाये जाने वाला दिवाली का त्योहार भारतीय परंपरा का ऐसा मौका होता है, जब हर किसी के चेहरे पर खुशी होती है। धन-धान्य से परिपूर्ण होने के लिए जो उत्साह लोगों में दिखता है, वह भी अपने-आप में एक अलग अनुभव देता है। बाजारों से लेकर घरों, दफ्तरों तक में एक सी रौनक देखने को मिलती है। दिवाली के आगमन पर बाजार उपहारों से भर जाते हैं।
एक-दूसरे को उपहार भ्ोंट करने की परंपरा जिस गति से बढ़ रही है, वह कई तरह से अहम मानी जा सकती है। एक तरफ, अपने लोगों को याद करने का माध्यम तो दूसरी तरफ आधुनिकता का ऐसा दौर, जिसमें कोई भी किसी से पीछे नहीं रहना चाहता है। असल में, देखा जाए तो इस परिपेक्ष्य में लोगों के बीच अधिक प्रतियोगिता देखने को मिल रही है। यानि कि बाजारबाद की दौड़ की ऐसी झलक, जो भविष्य के लिए और कई तरह के द्बार खोलती है। असल में, यह बाजारवाद का ऐसा समय होता है, जिस पर आम आदमी से लेकर व्यापारी, सभी की नजर होती है। धनतरेस पर हर तरफ सजी बर्तनों व ज्वैलरी की दुकानें इस बात को प्रदर्शित करती हैं कि लोग अपने ऊपर लक्ष्मी मां की कृपा बनाये रखने के लिए बर्तन व सोना-चांदी खरीदेंगे, क्योंकि इस परंपरा में बर्तनों व अन्य धातुओं की खरीदारी को शुभ माना जाता है, लेकिन दूसरी तरफ, जिस प्रकार दिवाली के पर्व पर बाजारवाद की छाया दिख रही है, वह इसको सदियों की परंपरा से इतर आधुनिकता की तरफ धकेल रही है। यानि कि सदियों से चली आ रही इस परंपरा वाले पर्व के असली अर्थ को बहुत कम समझा जा रहा है। जिस प्रकार पुरुषोत्तम भगवान राम ने रावण को मारकर बुराई का अंत किया था, उसी प्रकार सभी को इस तरह का संकल्प लेना होगा। आज के दौर में बुराई जिस प्रकार हर तरफ पांव पसार रही है, वह सामाजिक समावेश को बनाये रखने के लिए बेहद खतरनाक है। हर तरफ लूट-खसोट मची हुई है, इससे उन मूल्यों का हस होता है, जिन मूल्यों से हमारे समाज का ताना-बाना बुना हुआ होता है। दिवाली के पर्व पर बाजारवाद की छाया भी ऐसी ही परंपरा का सूचक बनती जा रही है। खासकर, जिस प्रकार सरकारी दफ्तरों की तस्वीर दिखती है, वह तो और भी खतरनाक है। तरह-तरह के उपहारों से भरे अधिकारियों के केबिन। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि भारतीय तीज-त्योहार तो हमेशा से सादगी के परिचायक रहे हैं। बकायदा, भारतीय परंपरा व संस्कृति को विदेशों में भी अपनाया जाने लगा है। अगर, हमारे तीज-त्योहारों में भी विदेशी लुक दिखने लगेगा तो उससे अपनी परंपरा का महिमामंडन नहीं बल्कि उसका हस ही होगा। चाहे व दिवाली का त्योहार हो या फिर कोई और। उन त्योहारों के पीछे कई तरह की मान्यताएं जुड़ी हुई हैं। ऐसी मान्यताओं को अपने परंपरा के माध्यम से ही बरकरार रखा जा सकता है, जिससे आने वाली पीढ़ी उस परंपरा व मान्यता की चकाचौंध भरी देह से नहीं बल्कि उसकी आत्मा से रूबरू हो सके।


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