सरस्वती नदी का अस्तित्व


 "saraswati" nadi ka astitva in hindi
"Saraswati nadi" par kiye gye adhayano ki jane detain
"Saraswati river" in hindi
    सरस्वती नदी "Saraswati River" को लेकर पूरे देश में बहस चल रही है। यह अच्छा है कि मोदी सरकार द्बारा इसकी खोज के संबंध में प्रयास चल रहे हैं। हो सकता है कि सरकार व जल संसाधन मंत्रालय के प्रयास से कुछ सकारात्मक परिणाम सामने आ जाएं और दशक भर पूर्व केन्द्र सरकार के संस्कृति विभाग के उस अध्ययन संबंधी योजना (रिपोर्ट) को झुठला सकें, जिसमें कहा गया था कि इसका कोई मूर्त प्रमाण नहीं है कि सरस्वती नदी का कभी अस्तित्व था। 
   प्राचीन ग्रंथों में तो पवित्र सरस्वती नदी का उल्लेख है ही, इस नदी को लेकर देश में कई अध्ययन भी किए गए हैं। इन अध्ययनों में भारत सहित विदेशों के कई विद्बानों ने अहम भूमिका निभाई है। ऋगवेद, महाभारत सहित कई प्राचीन ग्रंथों में भी सरस्वती नदी का वर्णन है। जानकार बताते हैं कि ऋगवेद में सरस्वती नदी की प्रशंसा बड़ी और राजसी नदी के रूप में की गई है। इसे एक स्रोत में नदियों की मां तक कहा गया है। इसके प्रवाह की शक्ति से पर्वतों के कमल के समान बिखरते चले जाने की भी चर्चा है। ऋगवेद के 6० से अधिक स्रोतों में इस नदी का उल्लेख है। विश्ोषज्ञों के मुताबिक यह भी स्पष्ट है कि सरस्वती नदी पहाड़ से निकलकर समुद्र में जाकर गिरती थी, पर ऋगवेद की यह विशाल नदी सरस्वती, महाभारत काल में समुद्र तक न जाकर बीच में ही मरूस्थल में ही लु’ हो गई थी। आधुनिक वैज्ञानिकों के शोध निष्कर्ष भी प्राचीन ग्रंथों में दिए गए तथ्यों से मिलते हैं। कुल मिलाकर प्राचीन ग्रंथों में सरस्वती नदी के बारे में जो विवरण दिए गए हैं, उनसे जुड़े तथ्य अध्ययनों में भी सामने आए हैं। 
  बंगाल की एशियाटिक सोसाइटी जर्नल (1886) में भू-विज्ञान सर्वेक्षण के उप-निरीक्षक आरडी ओल्ढ़म ने सरस्वती के प्राचीन तल (रिवर बैंड) और सतलुज और यमुना को उसकी सहायक नदियां होने के बारे में पहली बार भू-व्ौज्ञानिकों का ध्यान आकृष्ठ किया था। इसके ठीक सात वर्ष बाद सन् 1893 में एक अन्य प्रसिद्ध भू-व्ौज्ञानिक सीएफ ओल्ढ़म ने उसी जर्नल में इस विषय पर विस्तृत व्याख्या करते हुए सरस्वती के पुराने नदी तल की पुष्टि की। उनके अध्ययन के अनुसार सरस्वती पंजाब की एक अन्य नदी हाकड़ा के सूख्ो नदी तल पर बहती थी। स्थानीय जन मान्यता के अनुसार प्राचीन काल में हाकड़ा रेगिस्तान क्ष्ोत्र से होती हुई समुद्र तक जाती थी। ओल्ढ़म-1893 की भी यही धारणा थी कि सूखा नदी तल कभी यमुना नदी से पानी पाता था। 
   
 A published article in national duniya newspaper about saraswati river.
 जानकारों के मुताबिक महाभारत काल में सरस्वती नदी समुद्र तक पहुंचने से पहले विनासन (अनुमानत: वर्तमान सिरसा ) के पास लु’ हो गई थी। ओल्ढ़म ने अपने लेख के अंत में यह भी कहा है कि वेदों में यह विवरण कि सरस्वती समुद्र में जाकर गिरती थी और महाभारत का विवरण कि यह पवित्र नदी मरूस्थल में खो गई, अपने-अपने समय के सही वर्णन हैं, लेकिन इस तरफ जनमानस का ध्यान दिलाने में प्रमुख भूमिका एक अन्य विद्बान औरेल स्टाइन की रही। उन्होंने 194०-41 में बीकानेर (राजस्थान) और बहावलपुर (अब पाकिस्तान में ) में सरस्वती, घग्घर, हाकड़ा के नदी किनारे सर्वेक्षण यात्रा की। स्टाइन की इस यात्रा ने इस परंपरागत विश्वास की पुष्टि की कि हाकड़ा, घग्घर की सूखी नदी पर ही सरस्वती बहती थी। उनके अध्ययन ने ओल्ढ़म के इस निष्कर्ष से भी सहमति प्रकट की कि सरस्वती नदी के हस का मुख्य कारण सतलुज नदी की धारा का बदलना था, जिससे वह सरस्वती में न मिलकर सिंधु नदी में मिलने लगी थी। यमुना की धारा बदलने को (पश्चिम में न बहकर पूर्व में गंगा से मिलना ) उन्होंने इसका एक और कारण बताया है।
    इसके कुछ समय बाद एक जर्मन विद्बान ने भी इस विषय पर गहन अध्ययन किया। इस अध्ययन का निष्कर्ष जेड जियो मोरफोलोजी नामक पत्रिका में 1969 में एक विस्तृत लेख के रूप में छपा। भू-विज्ञान शास्त्रियों के अनुसार हर्बल विल्हेमी ने अपने अध्ययन में सरस्वती नदी और उसके विकास के विभिन्न चरणों का उल्लेख किया है। 1892 से 1942 के अध्ययनों का संदर्भ देते हुए उनका मुख्य निष्कर्ष है कि सिंधु नदी का वह भाग, जो उत्तर दक्षिण में बहता है। उसके 4०-11० किलोमीटर पूर्व में एक पुराना सूखा नदी तल वास्तव में सरस्वती का ही नदी तल है। यह विभिन्न स्थानों पर हाकड़, घग्घर, सागर, संकरा के नाम से जानी जाती रही है। सिंधु में इसका नाम वाहिंद, नारा और हाकड़ा था। 
    हावर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर एडविन ब्रायेंट का आर्यों से संबंधित गहन अध्ययन अत्यंत निष्पक्ष माना गया है। अध्ययन में यह कहा गया है कि यह बिल्कुल स्पष्ट है कि ऋगवेद रचियता उस समय सरस्वती नदी के किनारे ही रह रहे थ्ो, उस समय वह एक विशाल नदी थी और तब उन्हें इस बात का बिल्कुल भी आभास नहीं था कि वह कहीं बाहर से आए हैं। अमेरिका की नेशनल ज्योग्रॉफिक सोसाइटी के ज्योग्रॉफिक इनफोरमेशन सिस्टम और रिमोट-सेसिंग यूनिट ने भी सेटेलाइट इमेजिंग द्बारा ऋगवेद में दिए गए सरस्वती के विवरण की पुष्टि की है। अबांला के दक्षिण में तीन सूख्ो पुराजल मार्ग, जो पश्चिम की ओर मड़ते दृष्टिगत होते हैं, वे निश्चय ही सरस्वती, घग्घर और द्बषाद्बति की सहायक धाराओं के थ्ो। अमेरिका की रिमोट सेसिंग एजेंसी ने भारतीय रिमोट सेसिंग सेटेलाइट के माध्यम से जो चित्र हासिल किए थ्ो, उनमें भी सरस्वती का नदी तल स्पष्ट है।
      देश के जाने-माने शिक्षाविद्ब प्रोफेसर यशपाल ने भी इस विषय पर गहन अध्ययन किया है। उनके अध्ययन की रिपोर्ट 198० में इंडियन एकेडमी ऑफ साइंस के जर्नल में प्रकाशित हुई थी। इस अध्ययन का यह निष्कर्ष कि इस बात का पूरा साक्ष्य है कि वैदिक काल की सरस्वती नदी हिमालय से निकलकर पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और बहावलपुर (पाकिस्तान) में घग्घर, हाकड़ा के नदी तल पर ही बहती हुई सिंधु (पाकिस्तान) में नारा के नदी तल से होती हुई कच्छ के रण में गिरती थी। यह अनुमान भी लगाया गया है कि यमुना भी सरस्वती की सहायक नदी थी, लेकिन कालांतर में सतलुज और यमुना दोनों ने सरस्वती में मिलना छोड़ दिया था। सरस्वती नदी में पानी कम होने का मुख्य कारण भी यही था।
 इस दिशा में पाकिस्तान के बहावलपुर के चोलिस्तान रेगिस्तान में प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता रफील मुगल ने भी बेहतर कार्य किया है। उनके अनुसार पूरी सिंधु नदी में अब तक 35-36 उत्खनन स्थल (साइट्स) रिकॉर्ड हो पाए हैं। रफील मुगल ने 1993 में सरस्वती के किनारे 414 ऐसे स्थलों को चिन्हि्त किये, जिनसे इस नदी के अस्तित्व के बारे में संकेत मिलते हैं। पिछले साल हरियाणा और राजस्थान सरकार के प्रयास से हुई खुदाई में इस नदी के होने के प्रमाण की बात पुष्टि होती है। रिमोर्ट सेसिंग के जरिए इसरो ने भी इस जानकारी को पुख्ता किया है कि उत्तराखंड के आदी बद्री से लेकर हरियाणा, राजस्थान और गुजरात के इलाके में इस नदी का स्रोत है। ऐसे में केन्द्रीय जल संसाधन मंत्रालय का सरस्वती नदी की प्रामणिकता पता लगाने संबंधी प्रयास कितना सार्थक हो पाएगा, यह देखना भी काफी उत्सुकतापूर्ण होगा। 




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