सुस्त क्यों है डबल इंजन की सरकार ?


 उत्तराखंड की सत्ता में आने के लिए हर पार्टी पहाड़ से पलायन रोकने का बड़ा दम भरती है। इस बार जब चुनाव अभियान चल रहा था तो पीएम मोदी ने उत्तराखंड की एक सभा में कहा था कि केवल डबल इंजन की सरकार ही पहाड़ में चल सकती है, जो पलायन भी रोकेगी, शिक्षा, स्वास्थ्य और जरूरी मूलभूत सुविधाओं पर भी ध्यान देगी, जिससे आने वाले दिनों में पहाड़ खुशहाल नजर आएगा, लेकिन प्रदेश में बीजेपी की सरकार बने जितना समय हो गया है और अभी हाल ही में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्बारा उत्तराखंड के पहाड़ों से होने वाले पलायन पर जिस तरह चिंता व्यक्त की थी, वह इस बात को साबित करता है कि मोदी का उत्तराखंड में डबल इंजन की सरकार का फार्मुला भी उसी तरह जुमला साबित होने वाला है, जिस तरह से कालाधन वापस लाने के एवज में हर किसी के खाते में 15-15 लाख डालने की बात जुमला साबित हुई।  
उत्तर प्रदेश से अलग होने के बाद उत्तराखंड राज्य को बने 16 साल बीत गए हैं। इस दौरान दोनों बड़ी पार्टियों बीजेपी और कांग्रेस की सरकारें बनीं। अभी त्रिवेंद्र सिंह रावत के नेतृत्व में बीजेपी सरकार है, जबकि इससे पहले हरीश रावत के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार थी। दोनों ही सरकारों के एजेंडे को उठाकर देख्ों तो पलायन रोकने पर विश्ोष जोर दिया गया है। इसके लिए शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार आदि पर विश्ोष बल देने की बात की गई है, लेकिन पिछले 16 वर्षों में पलायन के जो आंकड़े हैं, वे निश्चित तौर पर पहाड़ों के दर्द को बयां करते हैं। भले ही राजनीतिक पार्टियां पलायन रोकने की बात कह कर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंक लेती हों, लेकिन राष्ट्रीय मनवाधिकार आयोग की चिंता न केवल पहाड़ों के दर्द को बताती है, बल्कि सरकारों की विफलता को भी स्पष्ट करती है। पिछले 16 सालों के दौरान प्रदेश के कुल 16,793 गांवों में से तीन हजार गांव पूरी तरह खाली हो चुके हैं। पहाड़ की भयावह स्थिति यह है कि ढ़ाई लाख से ज्यादा घरों में ताले लटके हुए हैं। कुमाऊं की राजधानी कहे जाने वाले खुबसूरत और सांस्कृतिक धरोहर से संपन्न अल्मोड़ा जिले में खाली पड़े घरों की संख्या प्रदेश में सबसे अधिक है, जो 36,4०1 है और पौड़ी जिले में खाली पड़े घरों की संख्या 35,654 है, वहीं टिहरी और पिथौरागढ़ जैसे जिलों की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं है। 
 टिहरी में 33,689 और पिथौरागढ़ में 22,936 घरों में ताले लटके हुए हैं। उत्तराखंड की इस समस्या के लिए मानवाधिकार आयोग ने जिस तरह राज्य सरकार और उनकी नीतियों को जिम्मेदार ठहराया है वह बड़ी बात होने के साथ-साथ कोरी सच्चाई भी है। क्यों नैसर्गिक सुन्दरता वाले राज्य के कई ऐसे गांव, जहां घरों में ताले लटकते जा रहे हैं? लोग अपना घर, गांव छोड़ने के लिए क्यों मजबूर हो रहे हैं? क्या वे जिस रोजगार की तलाश में भीड़ और प्रदूषण भरे महानगरों की ओर जा रहे हैं, क्या कभी उनकी रोजगार की तलाश अपने राज्य में ही पूरी हो सकेगी? निश्चित तौर पर ये ऐसे सवाल हैं, जिसकी तलाश शायद ही वर्तमान सरकार भी कर रही होगी। अगर, सत्ता में आते ही सरकार ने प्रयास शुरू कर दिए होते तो निश्चित तौर पर पलायन के बढ़ते ग्रॉफ पर आश्चर्य नहीं होता। कुल मिलाकर पिछले डेढ़ दशक में उत्तराखंड के पहाड़ों से 1० लाख से अधिक लोग पलायन कर चुके हैं, जिन घरों व गांवों में कुछ साल पहले तक रौनक नजर आती थी, वह रौनक आज काफूर हो गई है। आज अधिकांश गांवों व घरों में एक डरावना-सा मंजर आंखों के सामने तैरने लगता है। जहां एक ओर ख्ोती से लहलहाते रहने वाले सीढ़ीनुमा खेत बंजर व जगंलों में तब्दील हो गए हैं, वहीं घरों को भी बड़ी-बड़ी कंटीली झाड़ियों ने अपने आगोश में ले लिया है। ऐसे में नहीं लगता कि अगर, सरकारों ने कोशिश की होती है तो आज पहाड़ अपनी बदहाली पर आंसू बहाता?
 राज्य में भले ही जिस पार्टी की सरकार बनती रही हो, उन्हें निश्चित तौर मूल समस्या को पकड़ते-पकड़ते डेढ़ दशक बीत चुका है, लेकिन राष्ट्रीय मनावाधिकार आयोग के सदस्यों ने दो टूक बात करते हुए साफ कहा कि शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाएं नहीं होने के कारण यह पलायन की नौबत आई है। शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं मनुष्य की मूलभूत आवश्यकता है, लेकिन विडंबना ही है कि सरकारें इन सेवाओं को उपलब्ध कराने में नाकाम रही हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य की तह तक जाएं तो स्कूलों में शिक्षकों की कमी और अस्पतालों में डाक्टरों से लेकर निचले स्टॉफ की कमी तो है, लेकिन इस बीच जब सरकार के नुमांइदे इस हकीकत को जानने तक की कोशिश नहीं करते हैं तो यह परिस्थिति को और भी खराब कर देती है। क्या सरकार के प्रतिनिधियों को यह देखने की जरूरत नहीं है कि जिस परिवेश में बच्चों को शिक्षा दी जा रही है, उसमें उनके जीवन का आधार क्या है? क्या महज स्कूल, कॉलेज खोल देने से काम चल जाएगा? स्कूलों में योग्य शिक्षकों की भर्ती भी तो की जानी चाहिए। क्या सरकार के नुमाइंदे कभी ऐसे हालतों का सामना कर रहे गांवों की चढ़ाई चढ़ने का प्रयास करते हैं? जिससे वास्तविक हालतों की तह तक जाया जा सके। योग्य शिक्षकों के अभाव में भी पहाड़ के बच्चों में शिक्षा की लौ नहीं जग पा रही है। चौथी, पांचवीं, आठवीं, दसवीं तक पढ़ाई कर वे साक्षर तो हो रहे हैं, लेकिन उसके बाद वे पढ़ाई की डोर को आगे नहीं खींच पाते हैं। 
 हालात ये हो जाते हैं कि उन्हें कमाई के दबाब में घर छोड़ना पड़ता है। लिहाजा, यह बहुत जरूरी है कि सरकार प्राथमिक शिक्षा के पायदान को सुधारे और मजबूत करे, जिससे बच्चे उच्च शिक्षा के लिए जरूरी रूप से स्वयं को तैयार कर सकें। और यह मन से स्वीकार करने लगें कि हां, हमें भविष्य की नींव को मजबूत करने के लिए उच्च शिक्षा हासिल करनी ही चाहिए। सरकार को यह भी याद रखने की जरूरत है कि पहाड़ों के अधिकांश बच्चे क्यों उच्च शिक्षा की दहलीज तक पहुंच ही नहीं पाते हैं। पांचवी, आठवीं, दसवीं व बारहवीं के बाद पढ़ाई छोड़ देने वाले बच्चों का औसत आज भी बरकरार है।     
 लिहाजा, सरकार को इसकी तह तक जाना होगा कि आखिर हर बच्चे को कैसे उच्च शिक्षा की दहलीज तक लाया जाए, इससे पहले रोजगार के ऐसे माध्यम सृजित करने होंगे, जिसके माध्यम से लोग अपने बच्चों को आर्थिक पक्ष से उच्च शिक्षा देने के लिए मजबूत हो सकें। जो युवा उच्च शिक्षा हासिल कर रहे हैं, कैसे उनका पलायन रोका जा सके। सरकारी क्ष्ोत्र के अलावा प्राइवेट सेक्टर में रोजगार के माध्यमों को कैसे बढ़ाया जाए, इस तरफ सरकार गंभीरता से कोशिश करे। शिक्षा, स्वास्थ्य व रोजगार जीवन की बुनियादी जरूरतों में से एक हैं। इन बुनियादी जरूरतों की पूर्ति होनी ही चाहिए। रोजगार की जो योजनाएं हैं, उनका तत्काल क्रियान्वयन किया जाए। शिक्षा के नजरिए से तीन तथ्यों पर ध्यान देने की जरूरत है, उसमें प्राथमिक शिक्षा के स्तर को सुधारा जाए, यानि स्कूलों में योग्य शिक्षक तैनात किए जाएं, दूसरा उच्च शिक्षा हर युवा की पहुंच तक हो और तीसरा रोजगारपरक शिक्षा को बढ़ावा दिया जाए। वहीं, अस्पतालों में योग्य चिकित्सक तैनात किए जाएं। अगर, इन मौलिक जरूरतों पर सरकार गंभीरता से काम करेगी तो निश्चिततौर पर पलायन के साथ-साथ गरीबी जैसी मौलिक दिक्कत से राज्य बाहर निकल आएगा।



No comments