राइट-टू-एजुकेशन से क्यों दूर हैं बालश्रमिक ?
शिक्षा सत्र शुरू हो गया है। बच्चे नये पाठ्यक्रमों के साथ स्कूलों में दाखिला ले चुके हैं, लेकिन इस स्कूली मौसम में होटलों, कल-कारखानों, ढ़ाबों, दुकानों, गैराजों और घरों की चारदीवारी के भीतर काम करने वाले बच्चों की तरफ किसी को ध्यान देने की फुर्सत नहीं है। यहां तक कि बाल श्रमिकों को संरक्षण प्रदान करने के लिए बनाए गए तमाम संवैधानिक अधिनियम और कानूनी उपबंध भी इन बच्चों के काम नहीं आ रहे हैं। केंद्र व राज्य सरकारें कई तरह के ऐसे मुद्दों में उलझी पड़ी हैं कि उनके पास ऐसे मौलिक विषयों पर ध्यान देने की फुर्सत ही नहीं है।
बच्चे देश का भविष्य होते हैं, उन्हें जैसी दिशा मिलेगी, वे उसी तरफ उन्मुख होंगे। इस संबंध में उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश पीएन भगवती के कथन का उल्लेख जरूरी है, जिसमें उन्होंने कहा है कि, बालक एक ऐसा व्यक्ति होता है, जिसका अपना अस्तित्व, स्वभाव और क्षमताएं होती हैं, उसके अस्तित्व, स्वभाव और क्षमताओं को पहचानने में, उसके परिपक्व हो सकने और उसकी शारीरिक और आत्मिक ऊर्जा को पूर्ण रूप से विकसित करने में, बौद्धिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक प्रवृत्तियों को पूर्ण विस्तार और उत्कृष्ठता प्रदान करने में उसकी सहायता की जानी चाहिए, अन्यथा राष्ट्र का विकास नहीं हो सकेगा। लेकिन शिक्षा के नजरिए से बालश्रम से जुड़े बच्चों की जो स्थिति है, वह तेज विकास के एजेंडे में कहीं भी नजर नहीं आ रही है। इस दौर में भी उन बच्चों की संख्या कम नहीं हो पा रही है, जो स्कूलों की दहलीज तक नहीं पहुंच पा रहे हैं। उन्हें अपना घर चलाने के लिए कल-कारखानों, होटलों, ढाबों, गैराजों आदि में काम करने के लिए अभिश’ होना पड़ रहा है। वैसे तो बालश्रमिकों के लिए केन्द्र के साथ-साथ राज्यस्तर पर भी कई योजनाओं का संचालन किया जा रहा है।
खासकर, स्कूलों में नया सेशन शुरू होने के साथ ही स्कूल चलो अभियान की शुरूआत की जाती है। यह अभियान लगभग देश के हर जिले में चलाया जाता है। अभियान के तहत लोगों को इसीलिए जागरूक किया जाता है कि जिन लोगों के बच्चे स्कूलों में नहीं जा रहे हैं, वे अपने बच्चों को स्कूल भ्ोजें, उन्हें शिक्षित करें। इसके अतिरिक्त जो एक और महत्वपूर्ण बात है, वह है बालश्रम में जुड़े बच्चों के चिह्नीकरण की। यह अभियान साल भर चलाया जाता है। इस अभियान के तहत बच्चों को नजदीकी स्कूलों में दाखिला दिलाने के अलावा उनके परिजनों के पुर्नवासन पर जोर दिया जाता है। ऐसा नहीं है कि यह अभियान फौरी तौर पर चलाया जाता है। ऐसे अभियानों में करोड़ों रुपए खर्च किए जाते हैं, लेकिन अब तक बेहतर परिणाम सामने नहीं आए हैं। इन अभियानों के सफल नहीं होने के पीछे अभियान में लगी टीमें यह तर्क दे देती हैं कि अधिकांश परिवार प्रवासी तौर पर आते हैं, वे कब काम छोड़कर चले जाते हैं पता ही नहीं चलता है, लेकिन सच्चाई यह है कि ऐसे अभियान जमीनी तौर पर चलाए ही नहीं जाते हैं। क्योंकि, इसमें जितनी मेहनत करने की जरूरत है, उतनी मेहनत सरकार व संबंधित विभागों के नुमाइंदे करना ही नहीं चाहते हैं।
दुनिया जानती है कि भारत एक नई आर्थिक शक्ति के रूप में उभर रहा है। लिहाजा, दुनिया को भारत से उम्मीदें भी हैं, लेकिन क्या यह देश की विडंबना नहीं है कि 21वीं सदी के बाद भी भारत दुनिया के उन देशों में शुमार है, जहां सबसे अधिक बच्चे श्रम में लगे हुए हैं। देश में 5 से 14 आयुवर्ग के लगभग 269 मिलियन बच्चों में से पांच मिलियन से अधिक बच्चे बालश्रम से जुड़े हुए हैं। देश में 64 ऐसे उद्योग या काम के क्ष्ोत्र हैं, जिन्हें खतरनाक श्रेणी में रखा गया है, ऐसे उद्योगों या क्ष्ोत्रों में लगभग डेढ़ लाख बच्चे काम कर रहे हैं। आंध्र प्रदेश सबसे अधिक बालश्रम वाला राज्य है, जहां 14.7 फीसदी बच्चे बालश्रम से जुड़े हुए हैं। इसके बाद उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, राजस्थान, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, गुजरात और उड़ीसा में हजारों बच्चों का भविष्य कल-कारखानों, गली-कूचों और धूल-धक्कड़ के बीच बीत रहा है। मेघालय की खानों और देश की माचिस फैक्ट्रियों में काम करने वाले लगभग 3० हजार बच्च्ो तो ऐसे हैं, जो उम्र के दहाई आकड़े तक नहीं पहुंच पाए हैं। बालश्रम और बालश्रमिकों की स्थिति देखी जाए तो निश्चित तौर संवैधानिक पृष्ठिभूमिक दिमाग में कौंधने लगती है, क्योंकि सच्चाई भी यही है, बालश्रमिकों के लिए कई तरह के कानून बनाए भी गए हैं। संविधान के अनुच्छेद-45 में नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा का प्रबंध करते हुए स्पष्ट कहा गया है कि राज्य इस संविधान के प्रारंभ में दस वर्ष की अवधि के भीतर सभी बालकों को 14 वर्ष की आयु पूरी करने तक नि:शुल्क शिक्षा देने के लिए उपबंध करने का प्रयास करेंगे।
इसके अलावा जोखिमपूर्ण कार्यों में कार्यरत बच्चों के संबंध में न्यायालय ने सुझाव दिया है कि इस तरह की प्रक्रियाओं में लगे बालश्रमिकों से प्रतिदिन छह घंटे ही काम लिया जाए, इसके बाद उन्हें दो घंटे की शिक्षा नियोजकों के खर्च पर सुनिश्चित की जाए। शिक्षा के अधिकार कानून के तहत भी बहुत सी व्यवस्थाएं ऐसे बच्चों के लिए की गईं हैं। यहां बता दें कि आरटीई अधिनियम एक अप्रैल, 2०1० को लागू हुआ। आरटीई अधिनियम के शीर्षक में नि:शुल्क और अनिवार्य शब्द सम्मिलित है। इसमें सरकार और स्थानीय प्राधिकारियों के लिए 6-14 आयु समूह के सभी बच्चों को प्रवेश, उपस्थिति और प्रारंभिक शिक्षा को पूरा करने का प्रावधान करने और सुनिश्चित करने की बाध्यता रखी गई है, लेकिन वास्तविक स्थिति को देखकर यही लगता कि ये संवैधानिक और कानूनी उपबंध सिर्फ संविधान और कागजों की शोभा मात्र बढ़ा रहे हैं।
सच तो यही है, लेकिन इसी सच के साथ हमें यह समझने में भी देर नहीं करनी चाहिए कि सिर्फ संवैधानिक व विधायी नीति के तहत इस समस्या से नहीं निपटा जा सकता, बल्कि इन कानूनों में उल्लेखित व्यवस्थाओं को जमीनी पटल पर जोड़ा जाए और उस सामाजिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक परिवेश को भी समझा जाए, जिसके अंतर्गत यह समस्या गहराती जा रही है। इसके अलावा निगरानी तंत्र को भी मजबूत किया जाए, जो बालश्रमिकों के लिए चलाए जाने वाले अभियानों की सच्चाई करीब से देख सके। क्या वाकई, अभियानों से कुछ परिणाम सामने आ रहे हैं या फिर खानापूर्ति के लिए अभियान चलाए जा रहे हैं। स्थानीय प्रशासन ये आंकड़े जुटाए कि संबंधित वर्ष में कितने बालश्रमिकों को शिक्षा से जोड़ा गया है और कितने बालश्रमिक परिवारों का पुर्नवासन किया गया है, तभी बालश्रम जैसी गंभीर समस्या से बाहर निकला जा सकता है।
खासकर, स्कूलों में नया सेशन शुरू होने के साथ ही स्कूल चलो अभियान की शुरूआत की जाती है। यह अभियान लगभग देश के हर जिले में चलाया जाता है। अभियान के तहत लोगों को इसीलिए जागरूक किया जाता है कि जिन लोगों के बच्चे स्कूलों में नहीं जा रहे हैं, वे अपने बच्चों को स्कूल भ्ोजें, उन्हें शिक्षित करें। इसके अतिरिक्त जो एक और महत्वपूर्ण बात है, वह है बालश्रम में जुड़े बच्चों के चिह्नीकरण की। यह अभियान साल भर चलाया जाता है। इस अभियान के तहत बच्चों को नजदीकी स्कूलों में दाखिला दिलाने के अलावा उनके परिजनों के पुर्नवासन पर जोर दिया जाता है। ऐसा नहीं है कि यह अभियान फौरी तौर पर चलाया जाता है। ऐसे अभियानों में करोड़ों रुपए खर्च किए जाते हैं, लेकिन अब तक बेहतर परिणाम सामने नहीं आए हैं। इन अभियानों के सफल नहीं होने के पीछे अभियान में लगी टीमें यह तर्क दे देती हैं कि अधिकांश परिवार प्रवासी तौर पर आते हैं, वे कब काम छोड़कर चले जाते हैं पता ही नहीं चलता है, लेकिन सच्चाई यह है कि ऐसे अभियान जमीनी तौर पर चलाए ही नहीं जाते हैं। क्योंकि, इसमें जितनी मेहनत करने की जरूरत है, उतनी मेहनत सरकार व संबंधित विभागों के नुमाइंदे करना ही नहीं चाहते हैं।
दुनिया जानती है कि भारत एक नई आर्थिक शक्ति के रूप में उभर रहा है। लिहाजा, दुनिया को भारत से उम्मीदें भी हैं, लेकिन क्या यह देश की विडंबना नहीं है कि 21वीं सदी के बाद भी भारत दुनिया के उन देशों में शुमार है, जहां सबसे अधिक बच्चे श्रम में लगे हुए हैं। देश में 5 से 14 आयुवर्ग के लगभग 269 मिलियन बच्चों में से पांच मिलियन से अधिक बच्चे बालश्रम से जुड़े हुए हैं। देश में 64 ऐसे उद्योग या काम के क्ष्ोत्र हैं, जिन्हें खतरनाक श्रेणी में रखा गया है, ऐसे उद्योगों या क्ष्ोत्रों में लगभग डेढ़ लाख बच्चे काम कर रहे हैं। आंध्र प्रदेश सबसे अधिक बालश्रम वाला राज्य है, जहां 14.7 फीसदी बच्चे बालश्रम से जुड़े हुए हैं। इसके बाद उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, राजस्थान, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, गुजरात और उड़ीसा में हजारों बच्चों का भविष्य कल-कारखानों, गली-कूचों और धूल-धक्कड़ के बीच बीत रहा है। मेघालय की खानों और देश की माचिस फैक्ट्रियों में काम करने वाले लगभग 3० हजार बच्च्ो तो ऐसे हैं, जो उम्र के दहाई आकड़े तक नहीं पहुंच पाए हैं। बालश्रम और बालश्रमिकों की स्थिति देखी जाए तो निश्चित तौर संवैधानिक पृष्ठिभूमिक दिमाग में कौंधने लगती है, क्योंकि सच्चाई भी यही है, बालश्रमिकों के लिए कई तरह के कानून बनाए भी गए हैं। संविधान के अनुच्छेद-45 में नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा का प्रबंध करते हुए स्पष्ट कहा गया है कि राज्य इस संविधान के प्रारंभ में दस वर्ष की अवधि के भीतर सभी बालकों को 14 वर्ष की आयु पूरी करने तक नि:शुल्क शिक्षा देने के लिए उपबंध करने का प्रयास करेंगे।
इसके अलावा जोखिमपूर्ण कार्यों में कार्यरत बच्चों के संबंध में न्यायालय ने सुझाव दिया है कि इस तरह की प्रक्रियाओं में लगे बालश्रमिकों से प्रतिदिन छह घंटे ही काम लिया जाए, इसके बाद उन्हें दो घंटे की शिक्षा नियोजकों के खर्च पर सुनिश्चित की जाए। शिक्षा के अधिकार कानून के तहत भी बहुत सी व्यवस्थाएं ऐसे बच्चों के लिए की गईं हैं। यहां बता दें कि आरटीई अधिनियम एक अप्रैल, 2०1० को लागू हुआ। आरटीई अधिनियम के शीर्षक में नि:शुल्क और अनिवार्य शब्द सम्मिलित है। इसमें सरकार और स्थानीय प्राधिकारियों के लिए 6-14 आयु समूह के सभी बच्चों को प्रवेश, उपस्थिति और प्रारंभिक शिक्षा को पूरा करने का प्रावधान करने और सुनिश्चित करने की बाध्यता रखी गई है, लेकिन वास्तविक स्थिति को देखकर यही लगता कि ये संवैधानिक और कानूनी उपबंध सिर्फ संविधान और कागजों की शोभा मात्र बढ़ा रहे हैं।
सच तो यही है, लेकिन इसी सच के साथ हमें यह समझने में भी देर नहीं करनी चाहिए कि सिर्फ संवैधानिक व विधायी नीति के तहत इस समस्या से नहीं निपटा जा सकता, बल्कि इन कानूनों में उल्लेखित व्यवस्थाओं को जमीनी पटल पर जोड़ा जाए और उस सामाजिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक परिवेश को भी समझा जाए, जिसके अंतर्गत यह समस्या गहराती जा रही है। इसके अलावा निगरानी तंत्र को भी मजबूत किया जाए, जो बालश्रमिकों के लिए चलाए जाने वाले अभियानों की सच्चाई करीब से देख सके। क्या वाकई, अभियानों से कुछ परिणाम सामने आ रहे हैं या फिर खानापूर्ति के लिए अभियान चलाए जा रहे हैं। स्थानीय प्रशासन ये आंकड़े जुटाए कि संबंधित वर्ष में कितने बालश्रमिकों को शिक्षा से जोड़ा गया है और कितने बालश्रमिक परिवारों का पुर्नवासन किया गया है, तभी बालश्रम जैसी गंभीर समस्या से बाहर निकला जा सकता है।
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