'सीजफायर’ से शांति !
रमजान का पवित्र महीना शुरू
हो गया है। जिसके चलते केंद्र सरकार ने कश्मीर में 'सीजफायर’ का ऐलान कर दिया है। इस
ऐलान के बाद कश्मीर में चल रहा 'ऑपरेशन ऑल आउट’ रोक दिया गया है। सेना अब किसी भी आंतकवादी
पर फायरिंग नहीं कर सकती है। केंद्र सरकार को उम्मीद है कि इससे कश्मीर में शांति बहाल
होगी, लेकिन केंद्र सरकार की उम्मीद के विपरीत कश्मीर में मुठभ्ोड़, घुसपैठ की घटनाएं
सामने आ रही हैं। सीमा पार से 'सीजफायर’ के उल्लंघन की घटना गुरुवार रात को आरएसपुरा
सेक्टर में भी सामने आई है, जिसमें एक बीएसएफ का जवान भी शहीद हो गया।
इस तरह से 'सीजफायर’
का उल्लंघन होता रहेगा, जवान शहीद होते रहेंगे, आम आदमी मारा जाता रहेगा। और सरकार
उम्मीद करेगी कि 'सीजफायर’ के ऐलान से शांति बहाल होगी। कौन नहीं चाहता शांति। देश
का हर आम नागरिक भी शांति चाहता है। क्या आंतकवादी शांति चाहते हैं? क्या आपका पड़ोसी
देश शांति चाहता है ? यह सबसे बड़ा सवाल है। यह पहला मौका नहीं है, जब सरकार ने इस तरह
का ऐलान किया है। कम-से-कम ऐसे फैसले लेने से पहले पिछली घटनाओं को ध्यान में रखा जाना
चाहिए था। दो दशक पहले भी ऐसी ही एक पहल की गई थी। उसका यह परिणाम हुआ कि 43 सुरक्षाकर्मियों
सहित 129 लोग आंतकवादियों के हमले में मारे गए थ्ो।
देश के दिग्गज प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी की
पाकिस्तान तक बस से यात्रा का प्रकरण किसे मालूम नहीं है। उसके बाद भारत को कारगिल
युद्ध से गुजरना पड़ा। हजारों सैनिक इस युद्ध में शहीद हुए। क्या सरकार फिर से ऐसा ही
कोई उदाहरण देश को देना चाहती है? कश्मीर की संवदेनशीलता से कोई भी अनभिज्ञ नहीं है।
सेना के जवानों को कितनी विपरीत परिस्थितियों में वहां ड्यूटी करनी पड़ती है, इसे सब
जानते हैं। आंतकवादियों से लेकर पत्थरबाजों से एक साथ लड़ना पड़ता है उन्हें। यह कितनी
बड़ी बिडंवना है कि जिन लोगों की सुरक्षा के लिए सेना राज्य में तैनात है, वही लोग सेना
पर पत्थर फेंकते हैं। क्या सरकार को यह सब नहीं दिखता ? क्यों हर बार यही कोशिश की
जाती है कि बस जवानों की छाती पर मूंग दली जाए। ऐसा नहीं लगता कि इन सब कोशिशों के
पीछे राजनीतिक पार्टियों के अपने हित हैं। इस बार भी अगर केंद्र सरकार ने 'सीजफायर’
का ऐलान किया है तो यह महबूबा सरकार को खुश करने की कोशिश से ज्यादा कुछ नहीं है।
राज्य
में आंतकवादी कब किस घर में घुस जाए और कौन कब आंतकवादी को सह दे दे, इसका अंदाजा किसी
को नहीं होता है। राज्य के हालत बद-से-बदतर हैं। अगर, सेना अलर्ट नहीं रहती तो स्थितियों
का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। रमजान के पवित्र महीने में शांति की उम्मीद बनती
है, पर आंतकवादियों का कोई धर्म नहीं होता है, उन्हें मौका चाहिए, उन्हें बलि चाहिए,
उन्हें संहार चाहिए। इन सब हालातों में उन्हें हाथ खोलने का मौका दे दिया जाएगा तो
इसका नतीजा यही होगा। आंतकवादी ऐसा ही मौका चाहते हैं। फिर सरकार इन सब स्थितियों को
क्यों समझ नहीं पा रही है? केंद्र में सरकार बदलने के बाद भी अगर कश्मीर के हालात खराब
होते जा रहे हैं तो निश्चित ही इसे सरकार की विफलता ही कहा जाएगा। कश्मीर के हालातों
से सेना को निपटना पड़ता है, तो सेना को ही काम करने की छूट होनी चाहिए, क्यों इसमें
राजनीतिक हस्तक्ष्ोप होता है। क्या सेना का जवान सिर्फ मरने के लिए है।
सरकार और राजनीतिक
पार्टियों की ऐसी मानवीय धारणाएं क्यों क्षीण हो रही हैं। सीमा पार से आंतकवादी भी
खुलेआम गोलीबारी करें और हमारा सैनिक सिर्फ उनकी गोलियां खाते रहे। क्यों सेना के हाथ
इस तरह बांध दिए जाते हैं? इन हालातों में यही लगता है कि सेना के संकल्प में राजनीतिक
हस्तेक्षप कम होना चाहिए। सरकार कानून बनाए, उनका पालन कराएं, लेकिन आंतकवादियों के
साथ सेना की लड़ाई में टांग न अड़ाएं। देश में तीज-त्यौहार चलते रहते हैं, लेकिन आंतकवादियों
के साथ लड़ाई तो हमेशा ही चलती रहती है। इसको न तो किसी तीज-त्यौहार से जोड़ा जाए और
न ही यह उम्मीद की जाए कि आंतकवादी किसी शांति की पहल का स्वागत करेगा।
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