'लोकतंत्र’ की जीत
कर्नाटक
में लंबे राजनीतिक घमासान के बाद जो हुआ, उससे लोकतंत्र की जीत हुई है, क्योंकि जिस
अति उत्साह के साथ बीएस येदियुरप्पा ने सरकार बनाने की जल्दबाजी की, उसका परिणाम तो
यही होना था। इस दौर में राजनीतिक पार्टियों की नैतिकता भले ही गायब हो गई है, लेकिन
न्यायपालिका, जिस प्रकार अपने भरोसे को कायम रखने का काम कर रही है, उससे लोगों में
लोकतंत्र के प्रति आस्था और भी प्रगाढ़ हो रही है।
जिस प्रकार राज्यपाल ने येदियुरप्पा को बहुमत जुटाने के लिए 15 दिन का समय दिया
था, उससे निश्चित ही वह ख्ोल होता, जिससे लोकतंत्र के चेहरे पर कालिख ही पुतती। लोकतंत्र
में सरकार महज अधिक सीटों से नहीं बनती बल्कि उसके लिए संख्याबल भी होना चाहिए, चाहे वह गठबंधन के रूप में
ही क्यों न हो। ऐसे बहुत से उदाहरण देश के समक्ष हैं। केंद्र के अलावा राज्यों में
भी ऐसी सरकार बनती और बिगड़ती रही हैं, क्योंकि इसके पीछे समर्थन देने और वापस लेने
का गेम चलता है और इसी अनुरूप सरकारें बनती और बिगड़ती हैं। अगर, सरकार बनाने के लिए
जोड़-तोड़ की मंशा से काम किया जाएगा तो उससे लोकतंत्र की जड़ें मजबूत नहीं होंगी, बल्कि
उसे घुटन महसूस होने लगेगी।
सत्ता के लालच में इस गंदे ख्ोल को
बंद कर दिया जाना चाहिए। समर्थन दो विपरीत विचारधारा वाली पार्टियों बीच होने वाले
आपसी तालमेल का परिणाम होता है, जिसके बल पर सरकार बनती है। अगर, इस तरह का तालमेल
नहीं है तो फिर सरकार कैसे बनाई जा सकती है। ऐसा ही कुछ येदियुरप्पा ने किया, जो शर्मनाक
तो है ही, बल्कि अधिक सीटें लाने का अतिउत्साह भी था। ऐसा अति उत्साह कई बार आत्मघाती
भी सिद्ध होता है, जिसका परिणाम सबके सामने है।
अगर, कांग्रेस ने सक्रियता नहीं दिखाती
होती और सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा नहीं खटखटाया होता तो निश्चित ही राज्य के पॉलिटिकल
गेम का दूसरा स्वरूप होता। जिन जेडीएस के 12 विधायकों के भरोसे येदियुरप्पा ने सरकार
बनाने का सपना देखा, वह साकार तो नहीं हुआ, लेकिन येदियुरप्पा ने अगर, पिछली घटनाओं
से सबक नहीं लिया तो यह भी उनकी असफलता ही मानी जाएगी। इससे पहले भी एक बार येदियुरप्पा
अपने कार्यकाल का दहाई का आकड़ा पार नहीं कर पाए थ्ो। वह दौर था 2००7 का।
जब उन्होंने जेडीएस के साथ समर्थन सरकार बनाई थी और वह सरकार महज सात दिन चली
थी। तब वह पहली बार राज्य के सीएम बने थे और उनका कार्यकाल 12-19 नवंबर 2००7 तक ही
चल सका, तब जेडीएस ने समर्थन वापस ले लिया था, जब येदियुरप्पा की अल्पमत सरकार बहुमत
नहीं जुटा सकी तो विधानसभा को भंग कर दिया गया था। राज्य में 189 दिनों तक यानि 2०
नवंबर 2००7 से 27 मई 2००8 तक राष्ट्रपति शासन लागू किया गया, उस दौरान प्रतिभा पाटिल
देश की राष्ट्रपति थीं। बीएस येदियुरप्पा 2००8 में तेरहवीं विधानसभा के लिए हुए चुनावों
के बाद 3 साल 62 दिनों तक सरकार चलाने में सफल रहे थ्ो, लेकिन जब वह तीसरी बार राज्य
का सीएम बनने का ख्बाब देख रहे थ्ो तो जनता ने अधूरे में ब्रेक देकर उनका सपना चकनाचूर
कर दिया, यह उनका अति उत्साह ही था कि उन्होंने बिना संख्याबल के सरकार बनाने की कोशिश
की, पर यह आत्मविश्वास महज दो दिन में ही अौंध्ो मुंह गिर गया। इतिहास के पन्नों में
ऐसे और भी उदाहरण दर्ज हैं, जब राज्य सरकारें अल्पमत में आने की वजह से कुछ ही दिन
चल सकीं।
इसमें येदियुरप्पा के अलावा देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर-प्रदेश में जगदंबिका
पाल भी महज दो दिन ही मुख्यमंत्री रहे हैं। वह 21-23 फरवरी 1998 तक सूबे के मुख्यमंत्री
रहे। इसके अलावा बिहार के अंतरिम सीएम सतीश प्रसाद सिंह महज चार दिन सीएम रहे। उनका
कार्यकाल 28 जनवरी से एक फरवरी-1968 तक रहा। हरियाणा में ओम प्रकाश चौटाला भी यह रिकॉर्ड
बना चुके हैं। जब वह राज्य के सीएम के तौर दूसरे कार्यकाल में महज सात दिनों तक ही
सीएम बन सके। तब उनका कार्यकाल 12-17 जुलाई 199० तक रहा था। सुशासन बाबू यानि नीतीश
कुमार भी सात दिन के सीएम बन चुके हैं। जब वर्ष-2००० में वह राज्य के पहली बार सीएम
बने थ्ो तो वह 3-1० मार्च तक ही सीएम बन सके। इसके अलावा एससी मारक भी शामिल हैं, जो
11 दिनों तक मेघालय के सीएम रह चुके हैं।
ओमप्रकाश चौटाला अपने तीसरे कार्यकाल में महज 16 दिन के लिए हरियाणा के सीएम
रह चुके हैं। जानकी राम चन्द्रन 23 दिन तक तमिलनाडु की सीएम रह चुकी हैं। विंदेश्वरी
प्रसाद मंडल 3० दिन तक बिहार के सीएम रहे हैं। वहीं, चौधरी महोम्मद कोया, जो 5० दिन
तक केरल के सीएम रह चुके हैं, हालांकि इस कार्यकाल में मुख्यमंत्रियों का शपथ ग्रहण
का दिन शामिल नहीं है। कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि सरकारें आती और जाती रहेंगी,
लेकिन लोकतंत्र की जीत हमेशा इसी तरह होती रहनी चाहिए।
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