राज्यपाल: परिकल्पित 'मुखिया’
By Bishan Papola May 20, 2018
कर्नाटक के राजनीतिक घमासान के बीच अगर, राजनीतिक पार्टियों के इतर किसी पर सवाल उठा, तो वो हैं राज्यपाल वजुभाई वाला। कांग्रेस पार्टी ने उन पर केंद्र सरकार के 'एजेंट’ के तौर पर काम करने का आरोप लगाया। यह कहा गया कि राज्यपाल द्बारा बीजेपी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करना और शपथ के बाद बहुमत साबित करने के लिए 15 दिन का समय देना, यह साबित करता है कि राज्यपाल ने बीजेपी की नमक अदायगी की। चूंकि, गेंद सुप्रीम कोर्ट के पाले में जाने के बाद स्थिति बदल गई और कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन सरकार बनने का रास्ता साफ हो गया, लेकिन ऐसा नहीं होता तो निश्चित ही राज्यपाल के कार्यक्ष्ोत्र और अधिकारों को लेकर बहस और भी लंबी चलती।
यह पहली ऐसी घटना नहीं
रही, जब राज्यपाल पर 'केंद्र सरकार का एजेंट’ होने का आरोप लगा। जब भी किसी राज्य
में केन्द्र की सत्तारुढ़ पार्टी के इतर दूसरी पार्टी की सरकार फंसती है, या फिर
केंद्र में नई सरकार बनाने पर राज्यपालों की तैनाती करनी होती है तो निश्चित ही
राज्यपालों की भूमिका पर सवाल उठते हैं। बीजेपी के शासनकाल में ही नहीं बल्कि
कांग्रेस के शासनकाल में भी इस तरह की स्थितियां सामने आती रही हैं। इन स्थितियों
में संविधान निर्माता डॉ. बीआर अंबेडकर के कथन को समझना जरूरी है। उन्होंने 3
अगस्त, 1949 को संविधान सभा में कहा था कि हमारे संघीय ढांचे में राज्यों को जो
क्ष्ोत्र सौंपा गया है, उसमें उनकी प्रभुसत्ता वैसी ही होगी, जैसी केंद्र की अपने क्ष्ोत्र में। वहीं, विधिशास्त्री सीरवाई ने निष्कर्ष
निकाला कि संविधान में राज्यों को जो क्ष्ोत्र सौंपा गया है, वह किसी प्रकार से कम
महत्वपूर्ण नहीं है। इसकी पुष्टि उच्चतम न्यायालय ने शमेशर सिंह मामले में 1975
में की थी।
संविधान के जानकार बताते
हैं कि केंद्र द्बारा राज्य प्रशासन की देख-रेख या निरीक्षण का प्रावधान संविधान
में नहीं है। संविधान सभा में अनुच्छेद 356-357 पर चर्चा के दौरान डॉ. कुंजरू ने
प्रश्न किया था कि क्या केंद्र सरकार को अधिकार दिया जा रहा है कि वह राज्य के
मामले में अच्छा प्रशासन सुनिश्चित करने के लिए हस्तक्ष्ोप कर सके। इस पर डा.
अंबेडकर का उत्तर था कि केंद्र को यह अधिकार नहीं होगा। कुछ सदस्यों ने सुझाव दिया
कि राज्य में शांति और व्यवस्था के लिए गंभीर संकट उत्पन्न हो जाए तो केंद्र को
अधिकार होना चाहिए कि वह राज्य प्रशासन अपने हाथ में ले ले। इस प्रस्ताव को भी
अस्वीकार कर दिया गया था। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि राज्यपाल ऐसे राज्य का
मुखिया है, जिसके प्रशासन में केंद्र केवल संविधान में दिए गए विशिष्ट प्रावधानों
के अंतर्गत या राज्य के संवैधानिक तंत्र के विफल हो जाने की दिशा में हस्तक्ष्ोप
कर सकता है।
विश्ोषज्ञों के अनुसार
राज्यपाल पद के संबंध में सबसे पहले विचार हुआ, संविधान सभा की प्रांतीय संविधान
समिति की संयुक्त बैठक में। इसके अनुसार हर प्रांत के राज्यपाल का सीध्ो जनता
द्बारा चुनाव होना था। कार्यकाल चार वर्ष था। उसे महाभियोग की प्रक्रिया द्बारा
हटाया जा सकता था और आकस्मिक रिक्ति के लिए प्रांतीय विधानसभा चुनाव द्बारा भरा
जाना था। राज्यपाल की चार महीने तक की अनुपस्थिति में राष्ट्रपति किसी को भी
नियुक्त कर सकता था। जब संविधान सभा में इस रिपोर्ट पर बहस हुई तो राष्ट्रपति
द्बारा नियुक्त प्रावधान को निरस्त कर दिया गया और गोविंद बल्लभ पंत संशोधन को कि
हर प्रांत में एक डिप्टी गर्वनर होना चाहिए, जो राज्यपाल की अनुपस्थिति में उसका
कार्य करे, स्वीकार किया गया। संशोधन का कारण यह था कि पूरे प्रकरण में राष्ट्रपति
की भूमिका नहीं होनी चाहिए और उसके द्बारा नियुक्ति प्रांतीय स्वायत्तता के सर्वथा
प्रतिकूल होगी।
दूसरे चरण में यह विषय
प्रारूप समिति के समक्ष प्रस्तुत हुआ। समिति की रिपोर्ट संविधान सभा को 21 फरवरी,
1948 को प्रेषित की गई। समिति के अध्यक्ष डॉ. अंबेडकर थ्ो। समिति ने राज्यपाल के
चुनाव का एक विकल्प प्रस्तावित किया। इसके अनुसार प्रांतीय विधानसभा द्बारा चुने
गए चार व्यक्तियों में से राष्ट्रपति किसी एक को राज्यपाल नियुक्त कर सकता था। इस
पर डा. अंबेडकर का कहना था कि इन दोनों विकल्पों का आधार चुनाव ही था। स्वयं उनका
मत था कि प्रारूप समिति का प्रस्ताव राष्ट्रपति द्बारा नियुक्त किए जाने से बेहतर
है। संविधान सभा में इस रिपोर्ट पर बहस 15 महीने के बाद हुई यानि 3०-31 मई, 1949
को। तब तक परिस्थितियां कुछ बदल गईं थीं और यह सुनिश्चित हो चुका था कि राज्यपाल
का पद राज्य के संवैधानिक मुखिया का होगा, वह अपने मंत्रीमंडल की राय से ही कार्य
करेगा। संविधान सभा में दोनों विकल्पों पर कई संशोधन प्रस्तुत किए गए। एक बिल्कुल
अलग प्रकार का संशोधन प्रस्तुत किया गया कि राज्यपाल की नियुक्ति सीध्ो राष्ट्रपति
द्बारा की जाए, लेकिन इसका घोर विरोध हुआ। राष्ट्रपति द्बारा नियुक्ति के संबंध
में सभा में कई आश्वासन दिए गए।
प्रारूप समिति के
सदस्य, टीटी कृष्णमाचारी ने कहा कि राज्यपाल 'केंद्र का एजेंट’ नहीं होगा।
उन्होंने इस पर भी जोर दिया कि राज्यपाल की नियुक्ति में राज्य सरकार से पूरी तरह
परामर्श किया जाएगा। अल्लादि कृष्णास्वामी अययर ने, जो प्रारूप समिति के सदस्य थ्ो
और पंडित जवाहर लाल नेहरू ने कहा कि नियुक्ति राज्य सरकार की स्वीकृति से होगी।
इसके बाद भी राज्यपाल की नियुक्ति के संबंध में कई तरह के विचार विमर्श हुए, लेकिन
प्रारूप समिति की जो राज्यपाल के संबंध परिकल्पना थी, उसे कभी भी अंगीकार नहीं
किया गया। शुरू से ही राज्यपालों की नियुक्ति के संबंध में स्थिति स्पष्ट रही है।
केंद्र सरकार, उनसे अपने हिसाब से काम करवाती है। इस मसले पर कई आयोग भी बनाए गए,
जिन्होंने राज्यपाल की नियुक्ति और काम के सिलसिले में अपनी चिंताएं व्यक्त कीं और
केंद्र सरकारों की आलोचना भी होती रही है, लेकिन मजे की बात यह है कि इन आलोचनाओं
का केंद्र सरकार पर कोई फर्क नहीं पड़ा।
बशर्ते, अभी कांग्रेस
पार्टी कर्नाटक के सिलसिले में राज्यपाल पर 'एजेंट’ के तौर पर काम करने का आरोप
लगा रही हो, लेकिन यह भी सच है कि जब केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी, तब भी यही
स्थितियां सामने आती रही हैं। इसके कई उदाहरण इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं। जब
राज्यपाल के संबंध में बात हो रही है तो यहां पर एक तथ्यात्मक चीज को जानना जरूरी
है। वह यह है कि संविधान में सभी संवैधानिक पदों को धारण करने वालों-जैसे-राष्ट्रपति,
उच्चतम और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश, भारत का नियंत्रक और महालेखा परीक्षक,
मुख्य निर्वाचन आयुक्त और लोक सेवा आयोगों के अध्यक्ष व उसके सदस्यों को उनके पदों
से हटाने के प्रावधान दिए हैं, लेकिन राज्यपाल को इस प्रतिष्ठा से वंचित रखने का
कारण समझ में नहीं आता। लिहाजा, केंद्र सरकारें हमेशा राज्यपालों का कठपुतली की
तरह इस्तेमाल करती हैं।
अगर, इस संबंध में
विश्ोषज्ञों और संविधान सभा या समिति द्बारा राज्यपाल के संबंध में की गई
परिकल्पना का हवाला दिया भी जाता है तो केंद्र सरकार यही दलील देती है कि राज्यपाल
को नियुक्ति करने या हटाने के संबंध में संविधान में किसी तरह का प्रावधान नहीं है
लिहाजा, यह राजनीतिक पद है और केंद्र सरकार राज्यपाल को अपने हिसाब से तैनात भी कर
सकती है और हटा भी सकती है। ऐसे में, कर्नाटक के राज्यपाल वजुभाई वाला से यह कैसी
उम्मीद की जा सकती थी कि वह बीजेपी की वफादारी करने से इतर कांग्रेस और जेडीएस के
संयुक्त प्रस्ताव को स्वीकार कर उन्हें सरकार बनाने न्यौता देते। इन परिस्थतियों
में एक-दो चीजें आवश्यक लगती हैं, जो संविधान में संशोधन करके ही संभव हो सकती
हैं, जिसमें पहला तो यह कि राज्यपाल की नियुक्ति के संबंध में राज्य विधानसभा की
भूमिका हो और दूसरा यह कि अन्य संवैधानिक पदों की तरह राज्यपाल को हटाए जाने की
प्रक्रिया का स्पष्ट उल्लेख संविधान में लिखा जाना चाहिए, तभी यह उम्मीद की जा
सकती है कि राज्यपाल अपने दायित्वों का पालन किसी दबाव के बगैर कर सकेंगे।
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