भूलने का 'डर’
By Bishan Papola June 11, 2018
'भूलने का डर’ आज हर किसी की समस्या बन रहा है। यह हमें इस बात के लिए चिंता में डाल रहा है कि आखिर यह डर क्रिएट हो कैसे रहा है। कहां से डर आ रहा है। हम इसकी सच्चाई को समझने के बजाय उसके भंवर में और भी घुसे जा रहे हैं, जिससे यह समस्या और भी बढ़ रही है। हमारे अंदर क्रिएट होने वाला 'भूलने का डर’ किसी और की देन नहीं बल्कि स्वयं हमारी देन है। इसके पीछे हमारे द्बारा स्वयं को तमाम चीजों में उलझाए रखना है। एक वक्त में कई काम निपटाने का दबाव। ये भी करना है, वो भी करना है, यहां भी जाना है, वहां भी जाना है आदि...। क्या एक वक्त में इतने सारे काम संभव हो सकते हैं। हम जानते हैं, ऐसा बिल्कुल भी नहीं हो सकता है। फिर भी हम स्वयं को इतने चीजों में क्यों उलझाकर रखते हैं। इसे समझना बहुत जरूरी है।
'भूलने का डर’ आज हर किसी की समस्या बन रहा है। यह हमें इस बात के लिए चिंता में डाल रहा है कि आखिर यह डर क्रिएट हो कैसे रहा है। कहां से डर आ रहा है। हम इसकी सच्चाई को समझने के बजाय उसके भंवर में और भी घुसे जा रहे हैं, जिससे यह समस्या और भी बढ़ रही है। हमारे अंदर क्रिएट होने वाला 'भूलने का डर’ किसी और की देन नहीं बल्कि स्वयं हमारी देन है। इसके पीछे हमारे द्बारा स्वयं को तमाम चीजों में उलझाए रखना है। एक वक्त में कई काम निपटाने का दबाव। ये भी करना है, वो भी करना है, यहां भी जाना है, वहां भी जाना है आदि...। क्या एक वक्त में इतने सारे काम संभव हो सकते हैं। हम जानते हैं, ऐसा बिल्कुल भी नहीं हो सकता है। फिर भी हम स्वयं को इतने चीजों में क्यों उलझाकर रखते हैं। इसे समझना बहुत जरूरी है।
लोगों में जो भूलने की समस्या बढ़ रही है, उसमें डिजिटली दुनिया का बड़ा रोल है। हर कोई आज इस दुनिया में खोया रहता है और खोया रहना चाहता है। शारीरिक मेहनत या एक्टीविटी के बजाय आज हम हर चीज डिजिटल संसाधनों के माध्यम से पूरा करना चाहते हैं। हमारे पास अपनों के लिए भले ही वक्त न हो, लेकिन 'डिजिटली दुनिया’ से एक पल को भी हटने को तैयार नहीं रहते हैं। एक होड़ मची पड़ी है, एक-दूसरे से आगे निकलने की, एक-दूसरे से स्वयं को आगे दिखाने की। एक ऐसा जुनून-सा पैदा हो गया है, जो लोगों को इसका आदी बनाता जा रहा है। इस जुनून के बीच हम कितने खतरे मोल ले रहे हैं, इस पर हम गंभीरता से ध्यान नहीं दे पाते हैं। इसमें 'भूलने का डर’ कहें या 'भूलने का खतरा’ कहें, जो सबसे अधिक गहरा रहा है। कई बार तो यह डर सताने लगता है कि हम दूसरों से बहुत पीछे छूट रहे हैं, जीवन की दौड़ में हम पीछे और अकेले रह गए हैं। जो यह 'पीछे छूटने’ व 'अकेले रह जाने’ का डर है वह एक अजीब तरह के 'मानसिक दबाव’ को जन्म देता है। हम जब डिजिटली दुनिया में स्वयं को बांधकर इस डर को कम करने की कोशिश करते हैं तो हम भूल जाते हैं कि हम अपने डर को कम नहीं बल्कि और भी बढ़ा रहे हैं।
अगर, यह याद रख्ों कि जिदंगी 'डिजिटल दुनिया’ में नहीं बल्कि 'अपनों के बीच’ और 'छोटी-छोटी खुशियों’ में होती है तो हमारे अंदर जो भूलने का डर बढ़ रहा है या कहें कि भूलने का जो खतरा बढ़ रहा है, वह कम होगा। डिजीटली दुनिया में स्वयं को बांध्ो रखने का मतलब है कि हम संसाधनों में सुख खोजने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन अपने अंदर व अपनों के बीच झांककर नहीं देख रहे हैं, जो वाकई वह खुशी है, जिसे हम अपनी प्राकृतिक अवस्था कहते हैं। इस अवस्था को अगर हम गहराई से अंगीकार करें और इस माध्यम को डिजीटली दुनिया में खोए रखने के अनुपात के मुकाबले ज्यादा समय दें तो हमारे अंदर जो भूलने का डर बढ़ रहा है वह कम होता चला जाएगा।
एक जमाना वह हुआ करता था, जब लोग गु्रप में जाना पंसद करते थ्ो। चाहे छोटा काम हो या फिर बड़ा काम, उसमें लोगों की राय और सहमति होती थी, एकजुटता होती थी, लेकिन यह अलग दौर है, जब हम हर किसी चीज का समाधान डिजिटली संसाधनों में खोज रहे हैं। और स्वयं को इतने सारे उलझनों में उलझाए पड़े, जिसका कोई औचित्य नहीं है। यह हमारी प्राकृतिक अवस्था से बिल्कुल ही अलग है। अगर, हम कुछ समय के लिए स्वयं को डिजिटली दुनिया से अलग रखते हैं तो वह क्षण हमें अपने दिमाग को प्राकृतिक अवस्था में रखने में मदद करेगा। चिंतन की जो प्राकृतिक अवस्था होती है, वह मानसिक दृढ़ता को बढ़ाती है। इस दौर में अगर डिजिटली दुनिया से कुछ समस्याओं के समाधान खोजे जाने की आवश्यकता है तो दिमाग को प्राकृतिक अवस्था से सोचने का वक्त देने की भी जरूरत है। अगर, इस तरह से हम अपने जीवन में संतुलन बनाकर रख्ोंगे तो जीवन में अनावश्यक रूप से पैदा होने वाले डर कम हो जाएंगे।
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