'किसान और राजनीति’
By Bishan Papola June 7, 2018
'किसान और राजनीति’ का संबंध कोई नया नहीं है, बल्कि 'राजनीतिक पार्टियों’ के लिए सत्ता की सीढ़ी नापने के लिए 'किसान’ सबसे मजबूत कड़ी शुरू से ही बनते आया है। हैरानी तब होती है, जब किसान महज पार्टियों के लिए 'राजनीतिक रोटियां सेंकने’ का ही माध्यम बन रहे हैं। केंद्र व राज्यों में सरकारें बदलती रही हैं, लेकिन किसानों की बदहाली अब तक दूर नहीं हो पाई है। मोदी सरकार जब सत्ता में नहीं आई थी तो उन्होंने चुनावी दंगल जीतने के लिए 'किसानों की आय दोगुनी’ करने के सब्जवाग दिखाए थ्ो। अब कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने भी किसानों को साधने के लिए नया दांव खेला है।
'किसान और राजनीति’ का संबंध कोई नया नहीं है, बल्कि 'राजनीतिक पार्टियों’ के लिए सत्ता की सीढ़ी नापने के लिए 'किसान’ सबसे मजबूत कड़ी शुरू से ही बनते आया है। हैरानी तब होती है, जब किसान महज पार्टियों के लिए 'राजनीतिक रोटियां सेंकने’ का ही माध्यम बन रहे हैं। केंद्र व राज्यों में सरकारें बदलती रही हैं, लेकिन किसानों की बदहाली अब तक दूर नहीं हो पाई है। मोदी सरकार जब सत्ता में नहीं आई थी तो उन्होंने चुनावी दंगल जीतने के लिए 'किसानों की आय दोगुनी’ करने के सब्जवाग दिखाए थ्ो। अब कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने भी किसानों को साधने के लिए नया दांव खेला है।
उन्होंने मध्यप्रदेश के मंदसौर में एक सभा को संबोधित करते हुए यह गारंटी दी कि अगर राज्य में कांग्रेस की सरकार आई तो 'दस दिन के अंदर’ के किसानों का कर्ज माफ कर दिया जाएगा। हालांकि, यह देखने वाली बात होगी कि इसमें वह कितना खरा उतर पाते हैं, लेकिन जो स्थिति पहले और इस दौर में देखने को मिल रही है, उससे कहीं भी नहीं लगता है कि देश में किसानों को कोई फायदा होने वाला है, उनका जीवन स्तर सुधरने वाला है।
आर्थिक तंगी झेल रहे किसानों की आत्महत्या करने का सिलासिला लगातार जारी है, लेकिन सरकार थोड़ा-बहुत कर्ज माफ कर महज उन्हें संत्वाना देने के अलावा कोई दूसरा काम नहीं कर रही हैं। कर्ज माफ करने से बेहतर अगर किसानों की फसल का उन्हें बाजार भाव के अनुसार समर्थन मूल्य मिलने लगे तो निश्चित ही किसानों की स्थिति सुधरने लगे, लेकिन 'सरकार और बिचौलियों की मिलीभगत’ में किसान हमेशा से ही शोषित होता आया है। सरकारों को राजनीतिक हितों को साधने से ऊपर उठकर किसानों की वास्तविक समस्या को समझनी होगी, तभी देश के किसानों की बदहाली दूर हो पाएगी।
'कृषि पर निर्भर 7० फीसदी आबादी’
भारत एक 'कृषि प्रधान’ देश है। देश की 7० फीसदी आबादी कृषि पर निर्भर रहती है। हर किसी को यह कहते हुए भी गर्व होता है कि हां, हम एक कृषि प्रधान देश हैं, लेकिन इस दौर में जिस प्रकार किसान आंदोलन करने को बाध्य हैं, उससे सरकारों का कुरूप चेहरा समझ में आता है। किसान कर्ज तले दबा है, आत्महत्या कर रहा है, गोलियां खा रहा है, लेकिन न तो सरकारें जाग रही हैं और न ही राजनीतिक पार्टियों के बीच किसानों की स्थिति को लेकर कोई सामंजस्य बनता नजर आ रहा है। सरकारें कहने को तो कहती हैं कि वह किसानों का ध्यान रख्ोंगे, पर महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, राजस्थान, यूपी, छत्तीसगढ़, तेलंगना, कर्नाटका आदि राज्यों में किसानों आक्रोश देखने को मिला है, उससे सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि देश का किसान महज 'राजनीति की ही चक्की’ में 'पिसता’ रहा है। वह 'चुनावी मुद्दा’ तो बन जाता है, लेकिन उसकी मांगें व जरूरतें सिर्फ 'चुनावी घोषणा-पत्रों’ में ही ठहर कर रह जाती हैं। इसके बाद किसान के पास या तो 'आंदोलन’ करने का रास्ता बच जाता है या फिर 'आत्महत्या’ का। इतना सब होने के बाद भी केन्द्र व राज्य सरकारों को किसानों की मांगों का कोई हल नहीं सूझ पाता है।
सबसे उत्तम कार्य है ख्ोती
सुप्रसिद्ध कवि घाघ की दो पक्तियां बहुत मशहूर हैं। उन्होंने लिखा है...
उत्तम खेती, मध्यम बाम।
निषिद चाकरी, भीख निदान।।
इसका अर्थ यह हुआ कि खेती सबसे अच्छा कार्य है। व्यापार मध्यम है, नौकरी निषिद्ध और भीख मांगना सबसे बुरा काम, लेकिन वास्तविकता में ख्ोती-किसानी की स्थिति सभी के सामने है। अगर, स्थिति अच्छी होती, न तो किसान आत्महत्या करता और न ही शासन-प्रशासन की गोलियों का शिकार बनता। इस दौर में किसानों की बदहाली का आलम यह है कि उसे फसल का उचित 'समर्थन मूल्य’ तक नहीं मिलता है, जबकि दलाल मलाई काट जाते हैं। यहां सवाल उठना लाजिमी है कि क्या सरकारों को यह पता नहीं रहता? पता रहता है, लेकिन दलालों की मलाई में सरकार के नुमाइंदों का भी तो हिस्सा रहता है। ऐसे में, वे किसानों के दर्द और बेहाली को कैसे महूसस कर पाएंगे। चाहे मध्यप्रदेश हो या फिर महाराष्ट्र, पंजाब, हरियाणा, आंध्र प्रदेश, झारखंड, कर्नाटका व उत्तर प्रदेश। इन राज्यों में किसानों द्बारा आत्महत्या किए जाने का सिलसिला नहीं थम रहा है।
'कृषि विकास दर’ आगे, पर 'किसान बदहाल’
कृषि विकास दर के नजरिए से देख्ों तो मध्यप्रदेश देश के टॉप राज्यों में शुमार है। सरकार ने बिना ब्याज के लोन भी किसानों को दे रखा है। फिर भी वहां किसान क्यों उग्र होता है ? इसके पीछे महज एक ही कारण है, वह है किसान को उसकी फसल का उचित समर्थन मूल्य नहीं मिलना। इसका परिणाम यह रहता है कि किसान फसल से स्वयं के खर्चे वसूल नहीं कर पाता, कर्ज कहां से चुकाएगा। लिहाजा, उन्हें 'कर्जमाफी की मांग’ को लेकर सड़कों पर उतरना पड़ता है। हालिया आंदोलन में करीब आधा दर्जन किसानों को अपनी जान गंवानी पड़ी। मध्यप्रदेश सबसे अधिक 'कृषि विकास दर’ वाला राज्य है और पिछले पांच सालों से 'कृषि क्षेत्र’ का सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार कृषि कर्मण अवार्ड जीतता आ रहा है।
आकड़े बताते हैं कि मध्यप्रदेश की कृषि विकास दर लगभग 25 फीसदी के साथ देश में सबसे अधिक है। सीएम शिवराज सिह चौहान भी हमेशा अपने भाषणों में कृषि को लाभ का धंधा बनाने की बात करते रहे हैं और उसके लिए वह भरसक प्रयास भी करते हैं, लेकिन इन प्रयासों के बावजूद भी प्रदेश में किसान क्यों आत्महत्या करने को मजबूर है? सरकार को गहराई से इस विषय पर मंथन करने की जरूरत है।
अवॉर्ड जीते, पर नहीं घटी आत्महत्याएं
- भले ही एमपी में पांच वर्षों में अवॉर्ड जीतने का सिलसिला चलता रहा हो, लेकिन आकड़ों की गहराई में जाएं तो किसानों और कृषि मजदूरों की आत्महत्या का सिलसिला भी नहीं थमा। प्रदेश विधानसभा में कांग्रेस के वरिष्ठ विधायक रामनिवास रावत के प्रश्न के उत्तर में प्रदेश सरकार ने लिखित तौर पर आंकड़े उपलब्ध कराए। आंकड़ों के मुताबिक 16 नवंबर 2०16 से इस वर्ष फरवरी 2०17 तक साढ़े तीन महीने में 1०6 किसानों और 181 कृषि मजदूरों ने खुदकुशी की। वहीं, पिछले दिसंबर 2०16 में मध्य प्रदेश विधानसभा के शीतकालीन सत्र के दौरान रावत के प्रश्न पर सरकार ने जानकारी दी थी कि एक जुलाई 2०16 से 15 नवंबर 2०16 तक 531 किसानों और कृषि मजदूरों ने प्रदेश में खुदकुशी की। इस परिपेक्ष्य में इस बार मध्यप्रदेश का चुनाव दिलचस्प हो सकता है।
किसान आत्महत्या में आगे है महाराष्ट्र
- राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के मुताबिक, किसान आत्महत्याओं में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। आत्महत्या के सबसे ज्यादा मामले महाराष्ट्र में सामने आए। 3० दिसंबर 2०16 को जारी एनसीआरबी की रिपोर्ट 'एक्सिडेंटल डेथ्स एंड सुसाइड इन इंडिया 2०15’ के मुताबिक साल 2०15 में 12 हजार 6०2 किसानों और खेती से जुड़े मजदूरों ने आत्महत्या की। इस रिपोर्ट को देखें तो साल 2०14 में 12 हजार 36० किसानों और खेती से जुड़े मजदूरों ने खुदकुशी कर ली। यह संख्या 2०15 में बढ़ कर 12 हजार 6०2 हो गई। साल 2०14 के मुकाबले 2०15 में किसानों और खेती से जुड़े मजदूरों की आत्महत्या में दो फीसदी की बढ़ोतरी हुई। वहीं, इन मौतों में करीब 87.5 फीसदी मौतें केवल सात राज्यों में ही हुई हैं, जिसमें मध्यप्रदेश चौथे नंबर पर है। साल 2०15 में महाराष्ट्र में 4 हजार 291, कर्नाटक में 1 हजार 569, तेलंगाना 1 हजार 4००, मध्य प्रदेश 1 हजार 29०, छत्तीसगढ़ 954, आंध्र प्रदेश 916 और तमिलनाडु में 6०6 किसानों ने आत्महत्या कर की।
किसान मौतों के आकड़ों पर नजर
राज्य आत्महत्याएं
महाराष्ट्र 4,221
कर्नाटक 1,569
तेलंगाना 1,4००
मध्यप्रदेश 1,29०
छत्तीसगढ़ 954
आंध्र प्रदेश 916
तमिलनाडु 6०6
नोट: ये आकड़े 2०15 के हैं।
पांच राज्यों में होती हैं अधिक आत्महत्याएं
-किसाना आत्महत्याओं में पांच राज्य आगे हैं, जिनमें क्रमश: महाराष्ट्र, कर्नाटका, तेलंगना, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, आंध्र-प्रदेश और तमिलनाडु शामिल हैं। प्रतिवर्ष देश में जितने भी किसान आत्महत्या करते हैं, उनमें इन पांच राज्यों का औसत लगभग 87.5 फीसदी होता है। वर्ष 2०13 के मुकाबले 2०14, 2०15 में अधिक किसान आत्महत्याएं हुईं। 2०13 में जहां देश में कुल 1 लाख 34 हजार 799 किसानों ने आत्महत्या की, उनमें किसान और ख्ोती मजदूरों की आत्महत्या का औसत 8.7 फीसदी (11,772) था। वहीं, 2०14 में देश में कुल 1 लाख 31 हजार 666 लोगों ने आत्महत्या की, जिसमें किसान और ख्ोती मजदूरों का औसत 9.4 फीसदी (12,36०) था। वर्ष 2०15 में देश में कुल 1 लाख 33 हजार 623 आत्महत्याएं हुईं, जिनमें किसान और ख्ोती मजदूरों की आत्महत्याओं का औसत 9.4 फीसदी (12,6०2) था।
स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट पर चुप्पी क्यों ?
- स्वामीनाथन आयोग की, जिस रिपोर्ट को लागू करने का वादा कर बीजेपी सत्ता में आई थी, वह यूपीए सरकार की तरह उसे पूरा करने में असफल रही। स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के अनुसार किसानों को फसल लागत मूल्य से 5० प्रतिशत अधिक न्यूनतम समर्थन मूल्य दिया जाना था, लेकिन एनडीए की मोदी सरकार अभी तक इसे लागू नहीं कर पाई है। एमएस स्वामीनाथन ने अपनी रिपोर्ट में 32 सुझाव सरकार को दिए थे, जिसकी रिपोर्ट 2००7 में यूपीए की मनमोहन सरकार को सौंपी गई थी।
नहीं मिलता उचित समर्थन मूल्य
- किसानों की लामबंदी के पीछे फसलों के समर्थन मूल्य का मसला जुड़ा हुआ है, जिसको लेकर पूरे देश का किसान लामबंद होता दिख रहा है। अगर, यही स्थिति रही तो आगे बड़े-बड़े किसान आंदोलन होते रहेंगे, जो सरकारों के लिए निश्चित ही सिरदर्द बनेंगे। लिहाजा, केंद्र व राज्य सरकार इस तरफ गंभीरता से विचार करें।
क्या हुआ पीएम के वादे का ?
मध्यप्रदेश, झारखंड, महाराष्ट्र सहित अन्य राज्यों में किसान आए दिन खुदकुशी कर रहे हैं। 2०14 लोकसभा चुनाव में बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने किसानों से वादा किया था कि अगर, उनकी सरकार बनी तो किसानों को फसल लागत मूल्य से 5० प्रतिशत अधिक मुनाफा मिलेगा। नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बन गए और अपनी सभाओं में अक्सर साल 2०22 तक किसानों की आमदनी दुगनी करने की बात करते हैं, लेकिन आमदनी बढ़ाने का जो चुनाव में वादा किया था वो अब तक कहीं भी पूरा हो नहीं दिखाई दे रहा है। ऐसे में, किसान जाए तो जाए कहां।
कर्ज में डूबा है किसान
- सिर तक कर्ज में डूबा किसान सरकार से कर्ज माफी के लिए आंदोलन पर उतारू है। सवाल यह है कि सरकारों को किसानों का कर्ज माफ करने में क्या मुश्किल है? क्या कर्जमाफी से किसानों की मुश्किलें खत्म हो जाएंगी? महाराष्ट्र हो या मध्य प्रदेश किसान कर्ज माफी को लेकर आंदोलन करते रहते हैं और इसकी शुरूआत उत्तर प्रदेश में नई सरकार द्बारा किसानों के कर्ज माफ कर देने के बाद से हुई। किसानों की मांग है कि जब यूपी सरकार अपने किसानों को कर्जमुक्त कर सकती है तो बीजेपी शासित मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र की सरकारें क्यों नहीं?
किसानों पर कर्ज
राजस्थान में 85 लाख किसान परिवार हैं, जिन पर 82 हजार करोड़ का कर्ज है। हरियाणा में 15.5 लाख किसानों पर 56 हजार करोड़ का कर्ज है। महाराष्ट्र में 31 लाख किसानों पर 3० हजार करोड़ का कर्ज है। मध्य प्रदेश में किसानों पर 74 हजार करोड़ की देनदारी है, जबकि यूपी के किसानों पर करीब 86 हजार करोड़ बकाया है यानि सिर्फ इन 5 राज्यों में ही 3 लाख 28 हजार करोड़ रुपए का कर्ज बकाया है। सवाल उठता है कि किसानों की कर्जमाफी में आखिर परेशानी क्या है? और उससे भी बड़ा सवाल आखिर 3 लाख 28 हजार करोड़ रुपए आएंगे कहां से? हाल ही में, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में जो हुआ, शायद वह नहीं होता, अगर यूपी में 36 हजार करोड़ की कर्ज माफी का फैसला नहीं हुआ होता, हालांकि कर्ज माफी अभी तक हुई नहीं है, लेकिन मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के किसान पूछ रहे हैं कि अगर यूपी में हो सकता है तो उनका क्यों नहीं?
नई बहस हुई शुरू
योगी सरकार ने पिछले साल अप्रैल में सरकार बनते ही जब यूपी के किसानों का कर्ज माफ किया तो इस पर एक नई बहस शुरू हो गई। सरकार के फैसले से किसान तो खुश थे, लेकिन अर्थव्यवस्था के जानकारों का कहना था कि कर्जमाफी किसानों की समस्या का समाधान नहीं है। जानकार मानते हैं कि जिन लोगों ने बैंकों से कर्ज लिए हैं, वो उसे चुकाएंगे नहीं, क्योंकि उन्हें उम्मीद जग गई है कि आगे चलकर उनके कर्ज भी माफ हो सकते हैं। इस तरह की कर्ज माफी से बैंकों के कर्ज देने की व्यवस्था पर और बोझ बढ़ेगा, जिसके बाद बैंक उन लोगों को कर्ज देने से कतराएंगे, जो पुराना कर्ज नहीं चुका रहे हैं।
यूपीए सरकार ने भी माफ किया था कर्ज
साल-2००8 में यूपीए सरकार ने किसानों के करीब 55 हजार करोड़ के कर्ज माफ किए थे। इसी तरह 2०14 में आंध्र प्रदेश और तेलंगाना राज्य की सरकारों ने भी किसानों के कर्ज माफ किए थे। इसका बैंकिग पर बहुत बुरा असर देखने को मिला। बैंकों को अपना हिसाब-किताब साफ करने में बरसों लग जाते हैं। कर्ज लेने वाले और बैंक के बीच भरोसा भी इससे कमजोर होता है। इतना कुछ होने के बाद भी किसानों की सेहत में कोई सुधार नहीं हुआ। किसानों की कर्जमाफी के बाद भी महाराष्ट्र में साल-2०1० में 3141 किसान, साल-2०12 में 3786 किसान, साल-2०13 में 3146 और साल 2०14 में 2568 किसानों ने आत्महत्या की।
उद्योगपतियों का कर्ज माफ तो किसानों का क्यों नहीं ?
अक्सर, एक सवाल पूछा जाता है, जब बड़े उद्योगपतियों का कर्ज माफ किया जा सकता है, तो किसानों का क्यों नहीं? केवी थॉमस की अध्यक्षता वाली लोक लेखा समिति की ताजा रिपोर्ट के अनुसार कुल 6.8 लाख करोड़ रुपए की गैर-निष्पादित संपत्तियां यानि एनपीए में से 7० फीसदी बड़े कॉरपोरेट घरानों के पास हैं और मुश्किल से इसका एक फीसदी किसानों के पास है। दिलचस्प बात यह है कि इनमें से अधिकांशत: बुरे कर्ज बड़े कार्पोरेट-इस्पात, ऊर्जा, इन्फ्रास्ट्रक्चर और टैक्सटाइल क्षेत्र के पास हैं। क्रेडिट रेटिग एजेंसी इंडिया रेटिग का अनुमान है कि वर्ष-2०11 से 2०16 के बीच पिछले पांच वर्षों में बड़ी कार्पोरेट कंपनियों द्बारा लिए गए 7.4 लाख करोड़ रुपए के कर्ज में से चार लाख करोड़ रुपए के कर्ज को बट्टे खाते में डाला जा सकता है। दीगार बात है कि ऐसा पहली बार नहीं है कि बैंक बड़ी कंपनियों को दिए कर्ज को बट्टे खाते में डालने जा रहे हैं।
अर्थशास्त्री कहते हैं कि जब कॉरपोरेट घरानों के कर्ज पर सरकार मेहरबान हो सकती है तो किसानों को राहत क्यों नहीं मिल सकती है? लेकिन एक गलती को दूसरी गलती के लिए जायज नहीं ठहराया जा सकता। अगर, कारोबारियों ने बैंकों को ठगने का काम किया है और बैंक के अफसर इस धोखाधड़ी में शामिल रहे हैं, तो इसकी जांच-पड़ताल होनी चाहिए। पैसे वसूले जाने की कोशिश होनी चाहिए, इतना ही नहीं सरकार को कानूनी कार्रवाई करनी चाहिए, पर गलतियों को बार-बार दोहराया जाए ऐसा तो नहीं हो सकता।
बजट आवंटन में किया इजाफा
- मोदी सरकार ने कृषि एवं किसान कल्याण के लिए बजट आवंटन में इस साल भारी इजाफा किया है। 2०15-16 में जो 15,8०9 करोड़ रुपए था, उसे बढ़ाकर 2०16-17 में 35,984 करोड़ रुपए कर दिया था, हालांकि सच्चाई यही है कि किसानों की हालत में सुधार नहीं हुआ है। सरकार इस पर गंभीरता से विचार करे।
उपज की मिले सही कीमत
सरकार अगर किसानों की मदद करना चाहती है तो उसे ऐसे तरीके अपनाने होंगे, जिससे किसानों को नुकसान ना हो। सरकार को यह कोशिश करनी पड़ेगी कि किसानों को उनकी उपज की सही कीमत मिले। किसी किसान को बाजार तक पहुंचने में कोई वक्त ना लगे। किसानों को दलालों से मुक्ति मिले। कर्ज माफ करने के बजाय सरकार को चाहिए कि वो किसानों को मुफ्त में खाद, बीज और खेती में इस्तेमाल होने वाली जरूरी मशीनें मुहैया कराए।
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