सीएम का 'मुगालता’
उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने जिस तरह अपने दरबार में एक शिक्षिका के साथ व्यवहार किया, वह सत्ता की ताकत के घमंड को दर्शाता है। राज्य का मुखिया होने के नाते सीएम को जहां अपने व्यवहार में विनम्रता लानी चाहिए थी, वहां एक लाचार महिला शिक्षका के साथ घमंड के साथ के पेश आना इस बात को भी दर्शाता है कि सत्ता में पहुंचने वाला व्यक्ति हर चीज को अपनी बपौती समझने लगता है। यही वजह है कि सरकारी गलियारों में भी सिर्फ चाटुकारों का ही उद्बार होता है, जो मेहनत, ईमानदारी और सच्चाई के साथ सामने आता है, उसको भरी सभा में ऐसी ही जलालत झेलनी पड़ती है।
इस घटना के बाद प्रदेश में बड़ा सियासी ड्रामा देखने को मिला। परत-दर-परत चीजें सामने आने लगीं तो सीएम और सरकार ही कटघरे में खड़े दिखाई दिए। सोशल मीडिया ने जिस तरह शिक्षिका के समर्थन में मुहिम चलाई, वह काफी महत्वपूर्ण थी, क्योंकि सरकार और उसके चाटूकारों ने इस घटना को दबाने की बहुत कोशिश की। देहरादून से निकलने वाले बहुत से राष्ट्रीय और स्थानीय अखबारों ने तो सरकार के पक्ष में खबरें छापी। कुछ अखबारों ने छापा कि शिक्षिका एक साल से स्कूल जा ही नहीं रही है।
अगर, इस बात को लेकर शिक्षका को घ्ोरने का प्रयास किया भी जा रहा है तो त्रिवेंद रावत की सरकार कितनी पारदर्शी है इसके चिट्ठे तो सामने आ ही रहे हैं। अगर, शिक्षिका स्कूल नहीं जा रही है तो यह गलती किसकी है, शिक्षा विभाग और सरकार की। वैसे भी स्वयं शिक्षिका ने सीएम दरबार में ही बोल दिया था कि वह स्कूल नहीं जा रही हैं, अगर सिस्टम ने उनकी बात सुन ली होती तो निश्चित ही ऐसी परिस्थिति नहीं आती। वह किस तरह पारिवारिक दिक्कतों का सामना कर रही है, वह स्पष्ट है। क्या सीएम और उनके अधिकारियों की संवेदनाएं मर गईं हैं कि एक परेशान शिक्षिका की समस्या का हल नहीं निकाला जा सका।
सवाल तो बहुत सारे हैं। सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि अगर, आपकी पत्नी 26 सालों की सर्विस में 22 साल तक सुगम स्कूल में तैनात रह सकती है तो उत्तरा पंत बहुगुणा 25 साल दुर्गम क्ष्ोत्रों में नौकरी करने के बाद सुगम स्कूल में तैनाती क्यों नहीं पा सकती हैं ? अगर, उत्तरा पंत बहुगुणा ने यह बॉड भरा है कि वह दुर्गम क्ष्ोत्रों में ही नौकरी करें तो आपकी पत्नी ने भी यह बॉड नहीं भरा है कि वह पूरी सर्विस सुगम क्ष्ोत्र में ही तैनात रहेंगी। यह कहां का न्याय है।
आपने दरबार लोगों की समस्याओं को सुनने और उनको न्याय दिलाने के लिए लगाया था, न कि एक पीड़ित बेहसहारा महिला को अपमानित करने के लिए। नैतिकता तो यह कहती थी कि महिला शिक्षिका की समस्या सुनने के बाद आप फौरन शिक्षा विभाग के संबंधित अधिकारियों को तलब करते और उनसे पूछते कि 25 सालों में उत्तरा पंत बहुगुणा को क्यों कोई सुगम स्कूल नहीं दिया गया। जब विभाग के दर पर महिला अपनी यह समस्या बता रही है कि उसके पति के मौत के बाद बच्चे अकेले हैं और उसे देहरादून के किसी ऐसे स्कूल में तैनाती दे दी जाए, जहां वह अपने बच्चों के पास भी रह सके। इन सब परिस्थितियों के बाद भी अगर महिला शिक्षिका को न्याय नहीं मिला तो यह अधिकारियों और सीएम की मानवीय संवेदना पर सवाल खड़ा करने के लिए काफी है। जनता द्बारा चुने हुए सीएम को अगर इतना घमंड है तो अधिकारियों और सरकार के चाटूकारों को क्यों घमंड नहीं होगा।
इस सारे प्रकरण में जहां त्रिवेंद्र सिंह रावत व उनका पूरा सिस्टम सवालों के घ्ोरे में है, वहीं विपक्ष भी इसके लिए कम जिम्मेदार नहीं है। कांग्रेसी नेता व उत्तराखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत, जो आज सरकार पर सवाल उठा रहे हैं, वह भी इस प्रकरण के जिम्मेदार हैं। महिला शिक्षिका तो उनके दर पर भी गई थी, लेकिन उन्हें तब भी इंसाफ नहीं मिल पाया। जब सत्ता में ऐसे लोग बैठ जाएं तो लोकतंत्र मजबूत नहीं होता है, बल्कि उसका उपहास होता है। इनके राज में महज चाटूकारों का ही भला हो सकता है, जो ईमानदार प्रवृत्ति के लोग हैं, उन्हें महज परेशानियां ही झेलनी पड़ती हैं। कुल मिलाकर यह जनता के लिए भी सबक है और नेताओं के लिए भी। ऐसे नेताओं की प्राथमिकता को दरकिनार कर देना चाहिए, तभी इन नेताओं का यह मुगालता खत्म होगा कि भले ही वह सत्ता के शिखर पर हैं, लेकिन सबकुछ उनकी बपौती नहीं है।
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