आम आदमी के लिए आजादी के 'मायने’


 "Aam Aadmi Ke Liye Aajadi Ke Mayne"  Article In Hindi
72th Independence Day Of India
  'आजादी की वर्षगांठ’ हो तो मन में इस बात की उत्सुकता सहज ही कौंधने लगती है कि आखिर हम 'आजादी’ के मायने समझ पाए हैं या फिर आजादी के मूल को तलाशते-तलाशते ऐसी उलझनों में फंसते जा रहे हैं, जिनसे निकलने की गुंजाइश तो दूर, बल्कि उलझनें और भी विराट रूप धारण कर रही हैं। 
 जब देश ''आजादी की 72वीं वर्षगांठ’’ मना रहा हो तो इसके मूल को समझना ज्यादा जरूरी लगता है। आखिर कौन-सी ऐसी बिडंवनाएं रही हैं, जिन्होंने आजादी के मायने ही बदल दिए और समाज में जिस तरह का विघटन का दौर चल पड़ा है, उसमें आजादी का अहसास भी डरावना-सा लगने लगता है। ''राष्ट्रपिता महात्मा गांधी’’ "National Father Mahatma Gandhi" की वह बात आज भी कराहती नजर आती है, जिसमें उन्होंने कहा था कि आजादी के मायने तब सिद्ध होंगे, जब तक समाज के सबसे निचले पायदान पर बैठे व्यक्ति का भला होगा। क्या सबसे निचले पायदान पर बैठा व्यक्ति आज भी शोषित नहीं है ? क्या उसकी पीड़ा बस वोट बैंक का खजाना भर नहीं रह गई हैं? तमाम ऐसे सवाल हैं, जो नेतृत्व की तरफ अंगुली उठाते हैं और आजादी को ''आम आदमी’’ की दृष्टि से निरर्थक साबित करते हैं।


 ''स्वतंत्रता के लिए संघर्ष’’ "Struggle For The Freedom"  का दौर शायद इस दौर से कहीं अधिक उम्मीदों सा भरा रहा होगा, क्योंकि तब संघर्ष की महज एक ही कसौटी थी, देश की आजादी। जिसमें समाज के हर तबके के लोग एक साथ शरीक हुए थ्ो। तब समाज के बीच इतनी गहरी खाई नहीं थी। जातिवाद, सम्प्रदायवाद, क्ष्ोत्रवाद का कोई ऐसा अवरोध नहीं था, जो समाज को कई वर्गों में विखंडित करता हो। खुशी-खुशी कई महान सपूतों ने अपना बलिदान दे दिया था। कईयों ने अपने पूरे जीवन का त्याग कर दिया था। भले ही, स्वतंत्रता के संघर्ष का मार्ग अलग-अलग रहा हो, लेकिन उनका मकसद एक था। ''देश की आजादी’’ "Freedom Of Country"। 
 लेकिन आजादी के बाद हम किस तरह का परिवेश बना बैठे हैं, जो स्वतंत्रता संघर्ष के दौर से कहीं भी मेल नहीं खाता है। नतीजा, आजादी के 71 साल के बाद भी सत्ताधीश समाज के सबसे निचले पायदान पर बैठे व्यक्ति की पीड़ा का कोई समाधान नहीं तलाश पाए हैं। आम आदमी के पास आज भी टकटकी लगाए रखने के सिवा कोई भी दूसरा विकल्प नहीं है। आम आदमी की पीड़ा इस बात की है कि क्या उनकी उम्मीद और सपने भी कभी खुशी के रंगों से भर पाएंगे ? या फिर उसकी उम्मीदों और सपनों की डोर ऐसे ही नेताओं के हाथ में रहेगी, जो भ्रष्टाचार में डूबे हुए हैं, जो भाई-भतीजावाद की राजनीति को बढ़ावा दे रहे हैं। ऐसे नेता, जो समाज को बांटने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। बस सत्ता हासिल करने के लिए। 
''भारत’’ को दुनिया का ''सबसे बड़ा लोकतंत्र’’ होने का गौरव हासिल है। दुनिया के कई मंचों पर भारत के नेता इस बात को लेकर इतराते भी हैं, लेकिन इन सवालों को तलाशने की जहमत कोई नहीं उठाता कि ''लोकतांत्रित विकास की यात्रा’’ में हम अपने आम आदमी को सक्षम क्यों नहीं बना पाए ? आजादी की इतनी लंबी यात्रा में आज भी आम आदमी रोटी, कपड़ा और मकान से महफूज क्यों है ? जबकि इसी आजादी के परिवेश में पले-बड़े नेता इतने अमीर कैसे हो गए ? इन नेताओं का विदेशों में करोड़ों रुपए का कालाधन कैसे जमा हो गया ? क्या वह आम आदमी के खून-पसीने की कमाई नहीं है?


 आम आदमी के नाम पर जिस तरह की योजनाएं चिल्ला-चिल्लाकर बनाई जाती रही हैं। कभी इस बात की तलाश क्यों नहीं की जाती है कि जिन योजनाओं की शुरूआत आम आदमी के नाम पर की जा रही है, उसका कितना अंश आम आदमी तक पहुंच पाता है। भ्रष्ट सरकारी मशीनरी की तह इतनी गहरी कैसे हो गई है कि उसमें बस सरकारी तंत्र में बैठे लोग ही विकास के पैमाने छूते नजर आते हैं और आम आदमी विकास के पायदान में नीचे ही चला जा रहा है। 
 क्या इसके लिए ''राजनीतिक पार्टियों’’ की अपनी स्वार्थप्रियता जिम्मेदार नहीं रही है? क्योंकि सरकारों ने आम आदमी को वोट हासिल करने के लिए बस एक मुद्दा बनाया, उसके हित के लिए कोई काम नहीं किया गया। इसीलिए आम आदमी लोकतांत्रिक विकास की यात्रा से आज भी कोषों दूर है। राजनीतिक पार्टियों की जमात जैसे-जैसे बड़ी होती गई, उन्होंने अपने मुद्दे भी बदल दिए। राजनीतिक प्रतिद्बंदिता के लिए उन्होंने क्ष्ोत्रवाद, जातिवाद, धर्मवाद, सम्प्रदायवाद और परिवारवाद को इस कदर बढ़ावा दिया कि अब सत्ता की धुरी इन्हीं विकल्पों से निकल पाती है। इस दौर में स्थिति और भी विकट हो गई है, क्योंकि राजनीति में जिस प्रकार आपराधिक छवि के लोगों को जगह मिल रही है, उससे लोकतंत्र की दिशा और दशा और भी बिगड़ती जा रही है।
ऐसे परिवेश पर रोक नहीं लगाई तो राजनेताओं की एक ऐसी जमात खड़ी हो जाएगी, जो समाज को और बुरी तरह से तितर-बितर कर देगी। उस परिदृश्य में आम आदमी की क्या स्थिति होगी, इस बात का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। इस बात से भी हम इनकार नहीं कर सकते हैं कि इस दौर में भारत ने दुनिया में अपना लोहा मनवाया हो, बाहरी समस्याओं के कुछ समाधान भले ही खोजे हों और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी छवि को मजबूत किया हो, लेकिन आंतरिक तौर पर जो स्थिति बन रही है, उसका समाधान खोजना बहुत जरूरी है। इसके लिए सबसे अधिक जरूरी है कि हम अपने आम आदमी को सक्षम बनाएं, उसे शिक्षा की दहलीज पर पहुंचाएं, उसका तन ढकने के लिए कपड़ा दे पाएं, सिर छुपाने के लिए छत दे पाएं। सरकारों को इस क्ष्ोत्र में व्यापक काम करने की जरूरत है। देश के अंदर कई ऐसे उदाहरण देखने को मिलते हैं, जो राजनेताओं की मनोदशा को स्पष्ट करते हैं। 


उनकी विचारधारा उस पृष्ठभूमि में कैसे बदल जाती है, जब उन्हें जहां लाभ मिल रहा होता है। तब उन्हें आम आदमी से कुछ भी लेना-देना नहीं रह जाता है। इस दौर में आरक्षण जैसी परिपाटी को तेजी से बढ़ावा मिल रहा है, जिसमें वास्तविक तौर पर आम जीवन जी रहे व्यक्ति को कोई लाभ नहीं मिल पाता है। निचले पायदान पर बैठे व्यक्ति को कोई लाभ नहीं मिल पाता है। अगर, इन चीजों की गंभीरता को सरकारें समझें तो समाज में व्यापक बदलाव की उम्मीद की जा सकती है। आजादी के संघर्ष में शरीक हुए लोगों ने जिस तरह स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान आजादी के मायने समझे थ्ो, उसको पूरा करने की गुजांइश भी बढ़ेगी और ''राष्ट्रपिता महात्मा गांधी’’ की वह परिकल्पना भी सच साबित होती, जिसमें उन्होंने माना था कि आजादी के मायने तभी सफल माने जाएंगे, जब समाज के सबसे निचले पायदान पर बैठे व्यक्ति का हित सुनिश्चित होगा। 


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