करुणानिधि का 'जाना’
94 साल की उम्र में तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री और 'द्रविड़ मुनेत्र कड़गम’ यानि डीएमके प्रमुख 'मुथुवेल करुणानिधि’ का मंगलवार शाम चेन्नै के 'कावेरी अस्पताल’ में 'निधन’ हो गया। करुणानिधि का जाना एक 'युग’ के जाने की तरह है, क्योंकि वह महज 'राजनीति’ में ही लाजबाव नहीं थ्ो, बल्कि उन्होंने लेखन में भी झंडे गाड़े हैं, क्योंकि कोई लेखन के साथ राजनीति के मैदान में कदम रखता है तो उसकी सोच में अन्य राजनेताओं के मुकाबले कहीं अधिक संवेदनश्ीलता होती है, जीवंतता होती है। आज नेताओं में यह कला बहुत कम देखने को मिलती है। उनमें पारदर्शी सोच का नियांत अभाव होता है, लेकिन करुणानिधि ने उस दौर को जिया है, जिसमें उन्होंने शुन्य से शुरूआत की और शिखर को छुआ। उम्र के अंतिम पड़ाव तक उनके अंदर नेतृत्व, पार्टी कार्यकर्ताओं को प्रोत्साहित करने का जो जोश था, वह लाजवाब था। वह तभी ही संभव हो सकता है, जब मन में जुनून की पराकाष्ठा हिचकोले मार रही हो।
उम्र के अंतिम पड़ाव में भी वह राजनीति में जिस प्रकार सक्रिय रहे, वह पार्टी और पार्टी कार्यकर्ताओं को युगों तक ताकत देता रहेगा और नीचे गिरने के बाद भी ऊपर उठने के प्रति प्रोत्साहित करता रहेगा। निश्चित ही शिखर तक पहुंचने के लिए ऐसा ही जुनून और जज्बा जरूरी होता है। यह करुणानिधि की इसी क्षमता का परिचायक था कि वह राज्य के पांच बार मुख्यमंत्री बने। जब 82 साल की उम्र में वह मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में चुनावी मैदान में उतरे थे तो विरोधियों ने उन्हें चुका हुआ तक कह दिया था, लेकिन 'करुणानिधि’ ने 'राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी’ के रूप में 82 साल की उम्र में राज्य का मुख्यमंत्री बनकर दिखाया। जाहिर था कि यह न केवल उन्हें चुका हुआ कहने वालों के लिए करारा जवाब था, बल्कि भारतीय राजनीति के क्षतिज में एक संघर्षशील राजनेता का जोश भी था, जिसमें वह बड़े ही आत्मविश्वास के साथ उठने की क्षमता रखता था।
14 साल की उम्र में राजनीति में कदम रखने वाले करुणानिधि ने राजनीति के फलक में स्वयं को कभी हार नहीं मानने वाले राजनेता के तौर पर स्थापित किया। सच में, उनका जीवन एक फिल्मी पटकथा की तरह रहा, क्योंकि उन्होंने जिस तरह से अपने करियर की शुरूआत तमिल फिल्मों में 'पटकथा लेखक’ के रूप में की थी, उसी तरह उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन का स्क्रीन प्ले भी लिख डाला। भारतीय राजनेताओं में ऐसे उदाहरण कम ही मिलते हैं, जो बहुआयामी प्रतिभा के धनी होते हैं। करुणानिधि का कद भारतीय राजनीति में बेहद अलग रहा। छह दशक की राजनीति में वह पांच बार मुख्यमंत्री बने। इसीलिए उनके समर्थक उन्हें 'कलाईनार’ कहते थ्ो, जिसका मतलब होता है 'कला का विद्बान’। वकाई यह सच है कि करुणानिधि 'लेखन की कला’ में भी पारंगत रहे और 'राजनीति की कला’ में भी पारंगत रहे।
राजनीति के मैदान में लंबी पारी खेलने के लिए ऐसी ही प्रतिभा का होना बहुत जरूरी है। यह तभी ही संभव हो पाता है, जब जनता के बीच विश्वास की डोर को कायम रखा जा सके। सफलता व असफलता जीवन का आधार होता है। यही स्थिति राजनीति के मैदान में भी होती है, अगर असफलता के बाद भी सफलता पाने का चाव बरकरार रखा जाए तो निश्चित ही इसे किसी कला व जज्बे से कम नहीं माना जा सकता है। करुणानिधि में ये दोनों चीजें थीं। वह पारदर्शी दिमाग रखते थ्ो, लिहाजा, प्रदेश को आर्थिक मोर्चे पर सशक्त बनाने के लिए उन्होंने बड़े-बड़े कदम उठाए। यहां तक कि उन्होंने अपने धुर विरोधी जयललिता को भी इस मोर्चे पर साथ जोड़ा। यह करुणानिधि का ही कमाल था कि राज्य में बड़ी-बड़ी कार कंपनियों ने हजारों करोड़ का निवेश किया, इससे राज्य को आर्थिक मजबूती तो मिली ही, बल्कि स्थानीय लोगों को बड़े पैमाने पर रोजगार भी मिला। इसके अतिरिक्त आईटी सेक्टर को भी बढ़ावा देने में करुणानिधि ने कमाल का दिमाग लगाया। यही वजह है कि आज 'दक्षिण भारत’ 'आईटी सेक्टर’ के मामले में काफी आगे है। देश के दूसरे हिस्सों के युवाओं को भी वहां रोजगार के लिए जाना पड़ता है, इसके अलावा करुणानिधि शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं में बढ़ोतरी करने के भी बड़े हिमायती रहे।
करुणानिधि सामाजिक सुधारवादी 'पेरियार’ की तरह ही जातिवाद और सामाजिक बदलाव के खिलाफ संघर्ष करने वाले नेता रहे। उनके लेखन में भी इसका खुला पुट मिलता है। वह सामाजिक बदलाव को बढ़ावा देने वाली ऐतिहासिक और सामाजिक कथाएं लिखने पर विश्ोष जोर देते थ्ो। राजनीति में कदम रखने के बाद लेखन की कला उनके लिए इसीलिए कारगर साबित हुई, क्योंकि उन्होंने इसके जरिए डीएमके की फिलॉसफी को लोगों तक पहुंचाने का काम किया, जिससे पार्टी की लोकप्रियता काफी बढ़ी। कहानीकार और पटकथा लेखक के रूप में करुणानिधि ने 'तमिल सिनेमा’ को नया रूप दिया और तमिल राजनीति में क्रांतिकारी भावनाओं को चरम तक पहुंचाया। 'शिवजी गण्ोशन' की सुपरहिट फिल्म 'पराशक्ति’ की कहानी और पटकथा करुणानिधि ने ही लिखी थी, जिससे उन्हें काफी शोहरत मिली। राजनीति के मैदान में वह अजेय रहे। 12 बार विधानसभा चुनाव लड़ा, सभी में उन्होंने जीत हासिल की। राज्य की राजनीति में क्ष्ोत्रीय दलों के बीच भले ही उठा-पटक चलती रहती थी, लेकिन कोई करुणानिधि की रातनीतिक चतुराई पर संदेह नहीं कर सकता था। वह करुणानिधि ही थ्ो, जिन्होंने डीएमके जैसी क्ष्ोत्रीय पार्टी को केंद्र की सरकारों में कांग्रेस और बीजेपी दोनों के साथ गठबंधन का हिस्सा बनाया। इसीलिए 'राष्ट्रीय राजनीति’ में उनकी अहमियत हमेशा बनी रही।
'वीपी सिंह’ की गठबंधन सरकार के वक्त से देश की राजनीति में क्ष्ोत्रीय पार्टियों का कद बढ़ा और तब से ही राष्ट्रीय राजनीति में करुणानिधि महत्वपूर्ण रोल निभाते रहे। राजनीति के ऐसे 'अजेय शख्स’ का जाना बेहद दु:खद है, इससे निश्चित ही भारतीय राजनीति का बड़ा नुकसान हुआ है। इस खालीपन की भरपाई तभी ही हो सकती है, जब इस दौर के नेता करुणानिधि की पारदर्शी सोच से कुछ सीखने का प्रयास करेंगे और उस सामाजिक और राजनीतिक परिवेश को विकसित करेंगे, जिसमें सामाजिक और राजनीतिक दोनों का ही ताना-बाना सुरक्षित बना रह सके।
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