'काल के कपाल’ पर 'लिखता मिटाता हूं’... 'गीत नया गाता हूं’...
"Kal ke Kapal Par Likhta-Mitata Huan"...."Geet Nya Gata Huan"...
''भारतीय राजनीति’’ में जब भी ''भारत रत्न’’ पूर्व प्रधानमंत्री ''अटल बिहारी वाजपेयी’’ "Former PM" "Atal Bihari Vajpayee" की बात होती है, तो निश्चित तौर पर उनकी उदारवादी छवि और पारदर्शी सोच की जरूर बात होती है। यही वजह भी रही कि वह जितना स्वीकार्य पार्टी के अंदर रहे, विपक्षी भी उनका उतना ही सम्मान करते थ्ो। यह कितनी अलग और विलक्षण बात है कि एक कट्टर विचारधारा वाली पार्टी का चेहरा और ''आरएसएस की लॉबी’’ से आने के बाद भी वाजपेयी ने ''भारतीय राजनीति’’ में ''उदारवादी छवि’’ का जो उदाहरण पेश किया, वह बेमिसाल है। ठीक भारत देश के व्यक्तित्व के अनुरूप ही, जिसमें सभी को अंगीकार करने की क्षमता भी रही और सबको साथ ले कर चलने की सोच भी। उनकी इसी विलक्षण प्रतिभा ने उन्हें भारतीय राजनीति में एक अलग पहचान दी। तभी तो 23 पार्टियों को एक साथ लेकर पांच साल तक उन्होंने सरकार चलाई।
''भारतीय राजनीति’’ में जब भी ''भारत रत्न’’ पूर्व प्रधानमंत्री ''अटल बिहारी वाजपेयी’’ "Former PM" "Atal Bihari Vajpayee" की बात होती है, तो निश्चित तौर पर उनकी उदारवादी छवि और पारदर्शी सोच की जरूर बात होती है। यही वजह भी रही कि वह जितना स्वीकार्य पार्टी के अंदर रहे, विपक्षी भी उनका उतना ही सम्मान करते थ्ो। यह कितनी अलग और विलक्षण बात है कि एक कट्टर विचारधारा वाली पार्टी का चेहरा और ''आरएसएस की लॉबी’’ से आने के बाद भी वाजपेयी ने ''भारतीय राजनीति’’ में ''उदारवादी छवि’’ का जो उदाहरण पेश किया, वह बेमिसाल है। ठीक भारत देश के व्यक्तित्व के अनुरूप ही, जिसमें सभी को अंगीकार करने की क्षमता भी रही और सबको साथ ले कर चलने की सोच भी। उनकी इसी विलक्षण प्रतिभा ने उन्हें भारतीय राजनीति में एक अलग पहचान दी। तभी तो 23 पार्टियों को एक साथ लेकर पांच साल तक उन्होंने सरकार चलाई।
इस दौर में राजनीति का जो स्वरूप विकसित हो रहा है, ऐसे में, देश को वाजपेयी जैसी प्रतिभाएं मुश्किल से ही मिलती हैं। अमुमन, भारतीय राजनीति में ऐसे कम ही उदाहरण मिलेंगे, जिस काट पर वाजपेयी ने राजनीति की। चाहे वह राजनीति को अलग दिशा देने की बात हो या फिर विकास की ऐसी धारा प्रवाहित करने की बात, जो हमेशा ''महात्मा गांधी’’ की सोच को जीवंत करती दिखाई देती रही। वाजेपयी की इसी सोच का नतीजा रहा कि भारत के गांव आज चाहे सड़क मार्ग से हों या संचार माध्यमों से, शहरों से कनेक्ट हैं।
दिन ढ़लते ही अंध्ोरे की काल कोठरी बन जाने वाले गांव आज शाम होते ही बिजली की जगमगाहट में तैरने लगते हैं। दूर से निगाह पड़ते ही लगता है, वो सुदूर शायद वहां भी कोई छोटा शहर बसा हुआ है। गांवों को जोड़ने वाली जिन पंगडंडियों को नापने में कई घंटे बीत जाते थ्ो, आज कोई कार ठिठक कर वहां पहुंच जाती है। और ग्रामीण, जिन राहों को नापने में घंटों समय खर्च किया करते थ्ो, आज वह समय मिनटों में आकर सिमट पड़ा है। यानि विकास का ऐसा प्रवाह, जो अंतिम सीढ़ी तक पहुंचे न कि ऊपर-ऊपर में ही सिमट कर रह जाए। गांव ही भारत की आत्मा हैं, वाजपेयी ने क्षीण व जर्जर पड़ी आत्माओं को पोषण देने का बड़ा काम किया।
दूसरा, आईने में झांका जाए तो इस दौर में राजनीति का चेहरा बड़ा ही बदशक्ल नजर आता है। सत्ता की चाहत के लिए अपने चरित्र की तिलांजलि देने तक में कोई गुरेज नहीं होता है। विभिन्न धर्म व सम्प्राय से परिपूर्ण देश में, उन्हें एक धागे से पिरोए रखने की बात तो दूर, जब धर्म और सम्प्रदाय के नाम पर ही राजनीति होने लगे, उन्हीं के नाम पर सत्ता के शिखर में पहुंचने के सपने देखे जाने लगे तो निश्चित तौर पर वाजपेयी जैसा महान नेता जेहन में उतर में आता है। उन्होंने न केवल अपने विशाल व्यक्तित्व के माध्यम से देश की राजनीतिक जड़ों को मजबूत किया, बल्कि दुनिया में भारतीय संस्कृति, सभ्यता, साहित्य और भाषा को भी स्थापित करने का काम किया। इसीलिए ''संयुक्त राष्ट्र महासभा’’ में उनके द्बारा हिन्दी में दिया गया भाषण आज भी याद किया जाता है। आज के दौर में भले ही वाजपेयी की तरह विरोधियों में स्वीकार्यता वाली छवि को कोई दूसरा दोहरा न पाए, लेकिन उस खांचे में सभी को ढलना पड़ेगा, जिस काट पर वाजपेयी ने राजनीति की। यानि विकास और राजनीतिक सोच का ऐसा प्रवाह, जो हर तरफ समान रूप से बहे। सबके विकास की बात करे, सबको साथ लेकर चलने की सोच रख्ो।
वाजपेयी तीन बार देश के प्रधानमंत्री बने। 23 पार्टियों को साथ लेकर पांच साल तक सरकार चलाने से पहले वह 13 दिन और 13 माह तक भी देश के पीएम रहे, लेकिन उन्होंने सत्ता के लिए उस तरह के समझौते कभी नहीं किए, जो आज के दौर में देखे जाते हैं। इसी का नतीजा भी था कि उन्होंने 13 दिन के अलावा 13 माह के शर्ट टर्म तक सरकार चलाई। शायद, वह अपने शर्तों व सिद्धांतों के अनुरूप काम नहीं करते तो वह छोटे अंतराल तक चली सरकार को आगे भी खींच सकते थ्ो।
उदार छवि रखने वाले वाजपेयी ने ''पोखरण परीक्षण’’ के जरिए दुनिया को अपनी ताकत का अहसास भी कराया। जो ''भारतीय संप्रभुता’’ का शंखनाद तो था ही बल्कि तमाम दबावों में भी अटल रहने की उनकी काबिलियत को भी दर्शाता है। जब ''शिखर वार्ता’’ के जरिए पाक के साथ ''कश्मीर मसले’’ पर कोई नतीजा नहीं निकला तो उन्होंने ''करगिल युद्ध’’ के जरिए पाक को धूल चटाकर, अपनी वीर रस की कविता की पक्तियों, ''हार नहीं मानूंगा...रार नहीं ठानूंगा’’...को चरितार्थ किया।
ऐसा नहीं कि वाजपेयी पर मनगढ़त आरोप नहीं लगे। उन्हें संघ का ''मुखौटा’’ तक कहा गया, लेकिन उनके राजनीतिक सफर से ऐसा कतई नहीं लगा कि उन्होंने पीएम के तौर संघ के मुखौटे के तौर पर काम किया। ''आरएसएस की लॉबी’’ से आने के बाद भी उन्होंने अपनी एक अलग दिशा बनाई, और सभी दलों में उनकी स्वीकार्यता बनी रही। यह उनकी विलक्षण प्रतिभा ही थी कि देश की राजनीति में पहली बार लगभग दो दर्जन दलों को साथ लेकर पांच साल तक उन्होंने सरकार का कुशल नेतृत्व किया। जब सभी राजनीतिक पार्टियों की अपनी अलग विचारधारा है, उनकी अलग राजनीतिक जमीन है। फिर भी ऐसी विचारधारा और राजनीतिक जमीन का गठजोड़ करना उनके अद्भूत राजनीतिक कौशल को दर्शाता है।
वह ''लोकतांत्रिक प्रणाली’’ के ऐसे नायक रहे, जिन्होंने संसदीय मूल्यों को हमेशा बनाए रखा। उनके दौर के कई ऐसे उदाहरण मिलते हैं, जब उन्होंने जितना आदर सम्मान स्वयं के पार्टी के नेताओं के प्रति दिखाया, उतना ही सम्मान चाहे उस दौरान सत्ता में रहे नेताओं और विपक्षी नेताओं के प्रति भी दिखाया। यह प्रतिद्बंदिता से परे की बात होती है। इसके लिए बड़ा साहस चाहिए होता है। ''पंडित जवाहर लाल नेहरू’’ से उनके जुड़ाव की बात हो, ''इंदिरा गांधी’’ को ''दुर्गा का अवतार’’ बताने वाली बात हो या फिर ''राजीव गांधी’’ के योगदान को समय-समय पर याद करने की बात हो। इसके अलावा ''नरसिम्हाराव’’ के ''आर्थिक सुधारों’’ की वकालत कर उन्हें आगे बढ़ाने की बात हो, यह सब उस पृष्ठभूमि को दर्शाता है, जिसमें अच्छाई को अंगीकार किया जाता है और बुराई का तिरस्कार किया जाता है। इसीलिए वह विपक्ष में रहते हुए, सत्ता पार्टी के बुरे कार्यों का अगर खुलकर विरोध करते थ्ो, तो उनकी अच्छाईयों का खुलकर समर्थन भी करते थ्ो। यह साफ-सुथरी राजनीति की ऐसी परंपरा थी, शायद जो आगे देखने को मिले। अपने राजनीतिक जीवन का लंबा समय वाजपेयी जी ने विपक्षी नेता के तौर पर बिताया। सभी जानते हैं कि भारत ही नहीं बल्कि दुनिया के जिन देशों में भी लोकतांत्रित प्रणाली चल रही है, उसमें विपक्ष की भूमिका सत्ता पक्ष से भी कहीं अधिक रहती है।
ऐसे में, बेहतर राजनीतिक परंपरा को विकसित करने की उम्मीद विपक्ष से ही होती है। ऐसी बेहतर और साफ-सुथरी राजनीतिक परंपरा को ''अटल जी’’ ने विकसित किया। लिहाजा, वह एक राजनीतिक व्यक्तित्व ही नहीं थ्ो, बल्कि भारतीय राजनीति के ''कालजयी शख्यियत’’ भी थ्ो, ''युग पुरुष थ्ो’’, ''शिखर पुरुष’’ थ्ो, ''अजातशत्रु’’ थ्ो। ऐसा दुर्लभ व्यक्कित्व सदियों में एक बार ही पैदा होता है। भारतीय राजनीति में वह ऐसे व्यक्तित्व थ्ो, जिनकी स्वीकार्यता सर्वमान्य रही। यही एक सच्चे ''जननायक’’ की पहचान होती है।
आजादी की वर्षगांठ के जश्न के ठीक एक दिन बाद वाजपेयी जी सदा लिए मौन हो गए। वैसे वह कई वर्षों से मौन थ्ो। यह बड़ा ही अजीब संयोग रहा, जिस अद्भूत वाणी व भाषण कला से वह हर किसी को अपनी तरफ खींचते थ्ो, लेकिन आखिरी समय में वही वाणी उनसे गुम रही, उनसे दूर रही। वह शब्दों के जादूगर थ्ो, उनकी बोलने की अपनी विशिष्ठ श्ौली थी। बोलते-बोलते शब्दों की तलाश में जैसे वह खो जाते थ्ो। उनके भाषणों के बीच कविता का संयोजन उनकी अलग प्रतिभा को बरबस ही दर्शाता था। उनकी वीर रस की कविताएं लोगों में देशभक्ति का जोश भर देती थीं। शायद ही, कोई ऐसा शख्स हो, जो हमेशा उनकी वाणी से उनकी कविताओं को सुनने की लालसा न रखता हो। जिस जमाने में टीवी का उतना प्रचलन नहीं था, लोग उनके भाषणों को रेडियो पर बड़े ही चाव से सुनते थ्ो। उनकी आवाज गलियों व ख्ोतों में रेडियो पर गूंजती थीं। ऐसे में, इतने विराट व्यक्तित्व का हमेशा के लिए मौन हो जाना, एक युग के चले जाने जैसा है, जिसमें कई पीढ़ियों ने जीना सीखा, राजनीति करना सीखा, कला, संस्कृति और साहित्य की बारीकियां सीखीं और ऐसी परंपरा में जीना सीखा, जो वृहद था। ठीक अपने भारत देश की तरह विराट, जो सर्व-समावेशी सोच का प्रतीक है।
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