अंतिम समाधान की "उम्मीद"


  
     इलाहाबाद हाईकोर्ट के अयोध्या की राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद भूमि को तीन भांगों में बांटने वाले 2०1० के फैसले के खिलाफ दायर याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट में 29 अक्टूबर यानि आज-सोमवार से सुनवाई शुरू हो सकती है। चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया-सीजेआई रंजन गोगोई, न्यायमूर्ति संजय किशन कौल एवं न्यायमूर्ति केएम जोसेफ की पीठ इस मामले में दायर अपीलों की सुनवाई करेगी। यहां स्पष्ट कर दें कि अयोध्या विवाद पर इलाहाबाद हाईकोर्ट की तीन जजों की बेंच ने 3० सितंबर, 2०1० को दिए 2:1 के बहुमत वाले फैसले में कहा था कि 2.77 एकड़ जमीन को तीनों पक्षों-सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और राम लला में बराबर-बराबर बांट दिया जाए, लेकिन इस पर कोई सहमति नहीं बनी, लिहाजा पक्षकारों ने सुप्रीम कोर्ट का रूख किया था। 


 अयोध्या विवाद एक ऐसा मुद्दा है, जो राजनीतिक तौर पर बड़ा मुद्दा तो है ही बल्कि धार्मिक तौर पर यह अधिक संवेदनशील मुद्दा है। इस मद्दे को सुलझाने के लिए बीच-बीच में प्रयास किए जाते रहे हैं, लेकिन दोनों पक्षकारों की तरफ से इस बात की तस्दीक की जाती रही कि नहीं संबंधित जगह पर मंदिर था या फिर मजिस्द थी, विवाद को यहां तक लाने का कारण बनी है। बशर्ते, इस बात के अधिक सबूत मिले हैं कि संबंधित जगह पर मस्जिद से पहले मंदिर रहा होगा। मंदिर को तोड़कर ही संबंधित स्थल पर मस्जिद का निर्माण किया गया था। 
 6 दिसंबर, 1992 को विवादित ढांचा गिराए जाने के बाद भले ही मुद्दा अधिक गर्माया हो, लेकिन इसका विवाद 1857 की क्रांति के दो साल बाद यानि 1859 में ही शुरू हो गया था। इस पर ब्रिटिश प्रशासन ने भूमि की बाड़बंदी कर दो अलग-अलग हिस्से कर दिए थ्ो। एक पर हिंदू पूजा कर सकते थ्ो, जबकि दूसरा मुस्लिमों की इबादत के लिए छोड़ दिया गया था, हालांकि यह व्यवस्था अधिक दिनों तक नहीं चल सकी और 1885 में महंत रघुबर दास ने राम चबूतरे पर छत डालने की मंजूरी के लिए याचिका दाखिल कर दी थी। 
 इस पहली कोशिश के लगभग 13० साल बाद 199० में तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रश्ोखर ने मसले का हल खोजने की कोशिश की थी। बकायदा, उन्होंने विश्व हिंदू परिषद् के लोगों से इस मसले के समाधान के लिए बातचीत की शुरूआत की थी, लेकिन इसके कोई भी परिणाम सामने नहीं आ सके। 
 आखिरकार, 6 दिसंबर, 1992 को बाबरी ढांचे का विध्वंस कर दिया गया। इस घटना के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव की कांग्रेस सरकार ने जस्टिस लिब्राहन के नेतृत्व में एक जांच आयोग का गठन किया। इस जांच रिपोर्ट का क्या हुआ, इसका कुछ भी पता नहीं चल सका, क्योंकि 17 साल बाद आयोग ने 2००9 में अपनी रिपोर्ट तो सौंपी, लेकिन इसे कभी सार्वजनिक ही नहीं किया गया। इसके बाद जून, 2००2 में तत्कालीन पीएम अटल बिहारी बाजपेयी ने भी प्रयास किया। बकायदा, उन्होंने अपने कार्यालय में अयोध्या सेल का गठन किया था, लेकिन इस पर काम आगे नहीं बढ़ सका। 
सरकार स्तर से हुए प्रयासों के बाद जब कुछ सामने नहीं आया तो कोर्ट ने भी प्रयास किया कि यह मामला आपसी राजामंदी से हल हो जाए। इसका उदाहरण इलाहाबाद हाईकोर्ट की बेंच का 26 जुलाई 2०1० का वह सुझाव है, जिसमें उसने अपने फैसले को सुरक्षित रखते हुए सभी पक्षों को सौहार्दपूणã ढंग से मामले को सुलझाने का समय दिया, लेकिन इसमें किसी ने भी बहुत ज्यादा रुचि नहीं दिखाई। 
 लिहाजा, हाईकोर्ट ने 3० सितंबर, 2०1० के 2:1 के बहुमत वाले फैसले में कहा था कि 2.77 एकड़ जमीन को तीनों पक्षों-सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और राम लला में बराबर-बराबर बांट दिया जाए। हालांकि, अब गेंद सुप्रीम कोर्ट के पाले में हैं और उम्मीद है कि इस बार मामले का निश्चित ही हल निकल आएगा। जैसा कि पक्षकारों का मानना है कि उन्हें सुप्रीम कोर्ट का फैसला मान्य होगा, तो इसमें आगे किसी भी विवाद की गुजांइश नहीं बचनी चाहिए। एक-दूसरे की धार्मिक अस्थाओं का सम्मान करते हुए विवाद को आगे बढ़ाना उचित भी नहीं होगा। 




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