...जब तीन मूर्ति भवन पर किसानों ने डाल दिया था डेरा

   ...Jab Teen Murti Bhawan Par Kisano Ne Daal Diya Tha Dera
 After Independence, जब देश की राजधानी Delhi अपनी सीमाएं तोड़कर बढ़ने लगी, तो इसका सबसे पहले असर दिल्ली के समीपस्थ Ghaziabad और Faridabad में हुआ। गाजियाबाद उस समय मेरठ जिले की एक तहसील मात्र था। इस नगर के विकास की कहानी पचास के दशक से शुरू हुई जो साठ के दशक में काफी तीव्र हो गई। नगरीय विकास के लिए सबसे पहली आवश्यकता भूमि की होती है, जो आसपास फैले हुए ग्रामीण क्ष्ोत्रों से ही पूरी हो सकती है। उद्योगपतियों व उद्यमियों ने आपसी सौदे कर किसानों से जमीन की खरीद-फरोख्त शुरू कर दी। यह कार्य काफी अव्यवस्थित ढंग से हुआ, इसीलिए शीघ्र ही उत्तर-प्रदेश सरकार को हस्तक्ष्ोप करना पड़ा। इसके लिए सरकार ने  Ghaziabad Development Authority स्थापित कर भूमि के अधिग्रहण का एक बड़ा कार्यक्रम बनाया। 
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   1962 में जब यह कार्य शुरू ही हुआ था कि मेरी नियुक्ति मेरठ Meerut में जिलाधिकारी (District Magistrate)  के रूप में हुई। भूमि अधिग्रहण की औपचारिकताएं शुरू हो चुकीं थीं, पर मेरे मेरठ पहुंचने के तीन-चार माह बाद ही सबसे पहला भूखंड हरसांव Harsav के पास लिया गया। इस बीच यह स्पष्ट हो गया था कि भूमि अधिग्रहण को लेकर उन किसानों में, जिनकी जमीनें ली जा रहीं थीं- काफी असंतोष है। जमीन जाने के दु:ख के साथ उनकी चिंता मुआवजे के संबंध में थी। यह चिंता आधारहीन नहीं थी, क्योंकि यदि उन्हें मुआवजा निर्धारण की सामान्य प्रक्रिया के अनुसार मूल्य मिलता तो वह बहुत अपर्या’ होगा। 
इस पृष्ठभूमि में मैंने विस्तृत जांच-पड़ताल की कि अधिग्रहित जमीन का न्यायसंगत मुआवजा क्या होना चाहिए। इसकी एक पूरी योजना बनाकर राज्य सरकार की सहमति के लिए भ्ोज दी। मेरा यह अनुमान था कि इस काफी बढ़े हुए मुआवजे से भी किसानों को पूरी तसल्ली तो नहीं होगी, लेकिन इतना विश्वास भी था कि जब इसकी जानकारी सार्वजनिक हो जाएगी तो स्थिति अनियंत्रित नहीं होगी। राज्य सरकार ने बढ़े हुए मुआवजों की योजना स्वीकार कर ली। 
 किसानों में असंतोष बना रहा पर कोई हिंसात्मक घटना नहीं हुई। किसानों के असंतोष को राजनीतिक दलों ने काफी हवा दी थी। अत: जमीन के मालिक ने बढ़ा हुआ मुआवजा लेने से मना कर दिया था, फिर भी उन्हें आगे कुछ बात बनती नहीं दिखाई दी तो उन्होंने प्रधानमंत्री के निवास पर प्रदर्शन की योजना बनाई। उस समय Pandit Jawahar Lal Nahru देश के प्रधानमंत्री ( PM) थ्ो और वह "तीन मूर्ति भवन" (Teen Murti Bhawan) में रहते थ्ो। गांववालों की दो-ढाई सौ बैलगाड़ियों ने तीन मूर्ति के बाहर आकर डेरा डाल दिया। उन्हीं दिनों उत्तर-प्रदेश के मुख्यमंत्री Chandra Bhan Gupt किसी कार्य से दिल्ली आए।
प्रधानमंत्री से बातचीत
 एक भ्ोंट में प्रधानमंत्री ने उनसे किसानों के इस प्रदर्शन के बारे में जानकारी चाही तो संक्ष्ोप में समस्या बताते हुए उन्होंने कहा कि यह अच्छा होगा कि यदि प्रधानमंत्री उस अधिकारी से स्वयं बात कर लें, जो इस पूरे मामले को देख रहा है। प्रधानमंत्री को यह सुझाव पंसद आया। उसी रात मुख्यमंत्री(CM) ने मुझे फोन कर यह आदेश दिया कि मैं प्रधानमंत्री सचिवालय से संपर्क करके प्रधानमंत्री से मिलने का समय ले लूं।
  मुझे थोड़ी घबराहट हुई। कॉलेज और विश्वविद्यालय के दिनों इलाहाबाद में समय-समय पर पं. नेहरू को काफी देखा था। एक बार विद्यार्थियों के एक समूह के साथ आनंद भवन में छोटी-मोटी बात भी हुई थी, पर एक अधिकारी के नाते देश के प्रधानमंत्री से बातचीत करने का इससे पहले कोई अवसर नहीं मिला था, लेकिन जब मुख्यमंत्री से मुझे आदेश मिल ही गए थ्ो तो मेरे पर कोई विकल्प भी नहीं था। प्रधानमंत्री सचिवालय से पांच-छह दिन बाद का समय मिल गया। मैंने मुख्यमंत्री से अपने साथ एक और अधिकारी को ले जाने की अनुमति मांगी। पूरे भू-अधिग्रहण को जिले के स्तर पर मैं स्वयं देख रहा था, पर राज्य सचिवालय में स्वायत्त शासन विभाग के सचिव ज्ञान प्रकाश इस पूरी समस्या से राज्य स्तर पर भिज्ञ थ्ो, लेकिन आठ-दस दिन पहले ही वह केंद्रीय सचिवालय में एक प्रतिनियुक्ति पर आ गए थ्ो। उन्हें साथ ले जाने में मुख्यमंत्री को कोई आपत्ति नहीं थी। मेरा दूसरा सुझाव था कि शिष्टाचार के नाते जिस दिन प्रधानमंत्री ने मुझे मिलने के लिए बुलाया था, उस दिन उस विभाग से संबंधित मंत्री श्री विचित्र नारायण शर्मा भी वहां उपस्थित रहें। मुख्यमंत्री ने यह बात भी स्वीकार कर ली।

Bishan Tandon, Former DM, Meerut
 प्रधानमंत्री ने पहले श्री शर्मा को बुलवाया और दो चार मिनट बाद हम दोनों को। पंडित जी जिस तरह बिल्कुल घरवालों की तरह बातचीत शुरू की, उससे मैं बिल्कुल सहज हो गया। 
"तुम मेरठ के कलेक्टर हो" ?
 जी हां ! और ये हैं ज्ञान प्रकाश जी। केंद्रीय सरकार के स्वास्थ मंत्रालय में ज्वांइट सेक्रेटरी होकर आए हैं। इससे पहले लखनऊ सेक्रिटेरिएट में लोकल सेल्फ गवर्मेंट के सेके्रटरी होने के नाते गाजियाबाद लैंड एक्विजिशन का काम देखते थ्ो।
 देखो, डेवलपमेंट के लिए जमीन तो लेनी होगी। इससे बचा नहीं जा सकता। यह जमीन किसानों की ही होगी, जिनको जमीन से बहुत अटेचमेंट होता है। देखना सिर्फ यह है कि इनको जितनी कम-से-कम तकलीफ हो, उतना अच्छा। मुआवजा इनको ठीक मिलना चाहिए, लेकिन यह भी ख्याल रखना होगा कि सरकारी पर्स जरूरत से ज्यादा न खोल दिया जाए।
 इसके बाद मैंने उन्हें संक्ष्ोप में मुआवजा निर्धारण करने की प्रक्रिया बताई। उसे सुनने के बाद उन्होंने जो एक और सज्जन हमारे मंत्री के बराबर बैठे हुए थ्ो, उनकी ओर इशारा करके मुझसे पूछा, ये अमीर रजा हैं, इनको जानते हो ?
 मेरा उत्तरा था, इनको इलाहाबाद वाला कौन नहीं जानता।
 इस पर "पंडित जी" ने कहा, तुम इलाहाबाद के हो ?
जी हां।
पंडित जी ने कहा, यह एग्रीकल्चर मिनिस्ट्री में लैंड एक्विजिशन का काम देखते हैं। तुम उनके साथ बैठकर अपने सब कागज-पत्तर इन्हें दिखा दो। उन्हें देखने भालने के बाद तुम दोनों जिस निष्कर्ष पर पहुंचो वह ये मुझे बता देगा। इसके बाद उन्होंने कितनी जमीन है, कितने लोग प्रभावित हैं, जैसे दो-चार प्रश्न पूछे और बैठक Finish हो गई। 
डिसमिस कर दिया 
 अमीर रजा का किस्सा अत्यंत रोचक और प्रेरणादायक है। उनका नाम मैंने विद्यार्थी जीवन में "भारत छोड़ो आंदोलन" के समय सुना था। कृषि मंत्रालय में आने से पहले वे उत्तर प्रदेश में भूमि सुधार के संयुक्त आयुक्त थ्ो। 1942 में वे इलाहाबाद में एक "वरिष्ठ डिप्टी कलेक्टर" के रूप में कार्यरत थ्ो। बड़े साहबी ठाट-बाट में रहते थ्ो। इलाहाबाद में जब भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हुआ तो विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के एक जुलूस पर गोली चलाई गई, जिसमें लाल पद्मधर सिंह शहीद हो गए। इस घटना के बाद पूरे शहर में डर का वातावरण पैदा हो गया। दो-चार दिन बाद शहर में फिर खबर गर्म हुई कि एक डिप्टी कलेक्टर अमीर रजा ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया है। जैसा कि ऐसे वातावरण में प्राय: होता है, खबर काफी बढ़ा-चढ़ाकर फैलाई गई। कहा यह गया कि स्थिति का जायजा लेने के लिए जब "डिस्टि्रक्ट मजिस्ट्रेट" "एडी डिक्सन" अपने अधिकारियों की एक मीटिंग कर रहे थ्ो तो उन्होंने बहुत गुस्से में कहा, "आई एम थस्र्टी, इंडियन ब्लड" (मैं भारतीयों के खून का प्यासा हूं) इस पर अमीर रजा शांत न रह सके और उन्होंने अपना त्यागपत्र दे दिया। 
ख्ौर, कुछ दिन बाद समाचार पत्रों में एक छोटी-सी News छपी कि प्रदेश सरकार ने अमीर रजा को नौकरी से डिसमिस कर दिया है। वातावरण जब शांत हुआ तो असली बात मालूम पड़ी। हुआ केवल इतना था कि भारत छोड़ो आंदोलन के समय अमीर रजा ने स्वयं सोच-विचारकर अपना त्यागपत्र इलाहाबाद के डीएम को प्रदेश सरकार के पास भ्ोजने को दिया था। डीएम डिक्सन ने उन्हें समझाने का प्रत्यन किया। प्रदेश सरकार ने त्यागपत्र स्वीकार न करके उन्हें डिसमिस करने का निर्णय किया।
 अमीर रजा का भरा-पूरा परिवार था, जिसका पालन-पोषण उन्हीं का उत्तरदायित्व था। अब आगे क्या हो ? इस विकट परिस्थिति में इलाहाबाद में एक प्रतिष्ठित कांग्रेसी परिवार ने उनकी सहायता की। एक जाने-माने कांग्रेसी नेता और लाल बहादुर शास्त्री जी के अनन्य सहयोगी राव अमरनाथ (बाद में राज्यसभा के सदस्य भी हुए) के परिवार का दारागंज में एक हाईस्कूल था। उन्होंने अमीर रजा को उस स्कूल में नियुक्त कर दिया। वेतन था केवल साठ रुपए प्रति माह। बड़ी विषम परिस्थितियों में उन्होंने व उनके परिवार ने बड़ी सादगी से जीवन-यापन किया।
 1945 के चुनाव के बाद जब प्रदेश में कांग्रेस सरकार आई तो उसने अमीर रजा के त्यागपत्र संबंधी आदेश को निरस्त करके उन्हें प्रांतीय सेवा में पुनस्र्थापित किया और जमींदारी उन्मूलन समिति का संयुक्त सचिव बनाया। तब से वह केंद्र में प्रति नियुक्ति में आने से पहले भूमि सुधार के कार्य में लगे रहे। 1948 में उनकी आईएएस में नियुक्ति हुई। महत्वपूर्ण बात यह है कि सरकारी सेवा में पुन: आने के बाद भी अमीर रजा ने अपनी सादी जीवन-श्ौली को नहीं छोड़ा। कार्यालय में वह ढीले-ढाले पजामे और कुर्ते में आते थ्ो। सर्दी के मौसम में ऊपर से एक सदरी या कभी-कभी शेरवानी पहन लेते थ्ो। इस बीच वह चित्रकार भी हो गए थ्ो। सरकारी सेवा में उनकी ख्याति भूमि सुधार और भूमि संबंधित अन्य मामलों में बहुत ऊंची थी। केंद्रीय कृषि मंत्रालय में भी वह इस कार्य को देखते थ्ो। 
 अमीर रजा के साथ मेरी छह-सात बैठकें हुईं, जिसमें उन्होंने मेरे द्बारा मुआवजे की योजना की पूरी जांच-पड़ताल की और ठीक-ठाक पाया। उनके केवल दो सुझाव थ्ो-एक तो यह कि सड़क से सबसे पीछे पड़ने वाले क्ष्ोत्रों में मुआवजे की दर 1०-15 प्रतिशत बढ़ा दी जाए- केवल इसीलिए कि प्रधानमंत्री के हस्तक्ष्ोप के बाद यह उचित होगा। और अधिग्रहित भूमि पर बने हुए कच्चे-पक्के भवन और पेड़ों के मुआवजे में सार्वजनिक निर्माण विभाग को बहुत कड़ाई से काम न करने के आदेश दे दिए जाएं। अमीर रजा ने अपनी रिपोर्ट प्रधानमंत्री को भिजवा दी। उनके अनुमोदन करने पर मुआवजा वितरण का काम शुरू हुआ। कुछ समय बाद श्रीमती सुचेता कृपलानी ने, जो "Chandra Bhan Gupt"’ के बाद उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनी थीं, प्रधानमंत्री के अनुमोदन से अपनी ओर से मुआवजा कुछ और बढ़ा दिया। इस प्रकार यह प्रसंग समाप्त हुआ। 

                                                                             साभार: जनतंत्र और प्रशासन, लेखक: बिशन टंडन।



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