श्रीलंका: चीन समर्थक हैं महिंदा राजपक्षे


Shri Lanka: China Samarthak Hain Mahinda Rajapaksa 
Bharat के पड़ोसी देश Shri Lanka में शुक्रवार को बड़ा राजनीतिक घटनाक्रम देखने को मिला। राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरिसेना ने प्रधानमंत्री रानिल विक्रम सिंघ्ो को बर्खास्त कर पूर्व राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे को प्रधानमंत्री की शपथ दिलाई। असल में, यह घटनाक्रम तक सामने आया, जब सिरिसेना की पार्टी ने शुक्रवार को रानिल विक्रमसिंघ्ो के नेतृत्व वाली सत्तारूढ़ गठनबंधन सरकार से समर्थन वापस ले लिया। इस तरह के घटनाक्रम के कयास बहुत पहले से लगाए जा रहे थ्ो, लेकिन उसके लिए कोई ऐसी वजह नहीं बन पा रही थी, पर शुक्रवार को जिस तरह से यह घटनाक्रम सामने आया, उसने श्रीलंका में राजनीतिक बवाल तो पैदा किया ही, बल्कि भारत के परिपेक्ष्य में भी यह काफी चिंतापूर्ण साबित हो सकता है, हालांकि अभी इस मुद्दे पर भारत को नजर बनाए रखने की जरूरत है, जो वह कर भी रहा है, क्योंकि राजनीतिक विशेषलक मानते हैं कि राष्ट्रपति सिरिसेना का यह फैसला संवैधानिक संकट पैदा कर सकता है, क्योंकि संविधान के 19वें संशोधन के मुताबिक बहुमत मिले बिना ही वह विक्रमासिंघ्ो को पद से नहीं हटा सकते हैं, क्योंकि राजपक्षे और सिरिसेना की पार्टी को मिलाकर 95 सीट हैं, जो बहुमत से दूर हैं वहीं, विक्रमसिंघ्ो की पार्टी यूनाइटेड नेशनल पार्टी-यूएनपी के पास 1०6 सीटें हैं, जो बहुमत से महज सात सीट दूर है। आकड़ों में विक्रमसिंघ्ो की पार्टी बहुमत के लिहाज से आगे है। लिहाजा, आगे के घटनाक्रम को देखना बेहद दिलचस्प होगा। 

Mahinda Rajapaksa
    उधर, भारत के पक्ष में इस घटनाक्रम को देख्ों तो यह इसीलिए चिंताजनक है, क्योंकि राजपक्षे का झुकाव भारत की अपेक्षा चीन की तरफ अधिक है। लिहाजा, यह घटनाक्रम दक्षिण एशिया में सामरिक समरसता के लिहाज से निश्चित ही चिंता पैदा करता है। राजपक्षे का चीन समर्थक होने के कई उदाहरण सामने हैं। अपने शासनकाल में राजपक्ष्ो ने सामरिक दृष्टि से महत्वपूण माने जाने वाले हंगनटोटा बंदरगाह को चीन को कई वर्षों की लीज पर दे दिया था। इससे भी बड़ी चिंताजनक बात यह रही है कि तत्कालीन राष्ट्रपति रहे राजपक्ष्ो ने चीन को श्रीलंका की राजधानी कोलंबो के बंदरगाह को बनाने और चीनी पनडुब्बियों को श्रीलंका के बंदरगाह तक आने की अनुमति भी दी थी। इसका परिणाम यह हुआ कि चीन ने श्रीलंका को बहुत सारा कर्ज दिया। कुल मिलाकर देख्ों तो पाकिस्तान की तरह ही श्रीलंका भी चीन के कर्ज तले दबा हुआ है। अगर, राजपक्ष्ो की सत्ता आगे चलती है तो निश्चित तौर पर यह भारत के लिए सिरदर्द साबित हो सकता है। 
 जिस प्रकार राजपक्ष्ो चीन के इशारे पर काम करते रहे, उसके असर को देखते हुए भारत को वर्ष-2०15 में राजपक्ष्ो को सत्ता से बेदखल करने में अपने प्रभाव का इस्तेमाल करना पड़ा। इसके लिए भारत ने सिरिसेना और विक्रमसिंघ्ो के बीच समझौता करा दिया था, लेकिन फरवरी में हुए स्थानीय चुनावों में पूर्व राष्ट्रपति महिंदा राजपक्ष्ो की नई पार्टी ने जबरदस्त जीत हासिल की, उससे श्रीलंका फ्रीडम पार्टी-एसएलएफपी और यूएनपी की गठबंधन सरकार पर संकट मंडराने लगा था। तब से ही कयास लगाए जा रहे थ्ो कि श्रीलंका के राजनीतिक पटल पर बड़ा उलटफेर हो सकता है, क्योंकि राजपक्ष्ो की पार्टी की स्थानीय चुनावों में जीत को सत्तारूढ़ गठबंधन के लिए जनमत संग्रह मनाया गया था। पिछले तीन महीनों के दौरान जिस प्रकार सत्ताधारी गठबंधन में दरार गहरी हुई, उससे इसका अंदेशा और भी स्पष्ट हो गया था कि देश की सत्ता में परिवर्तन निश्चित ही होगा।
 हालांकि, दो पड़ोसी देशों की सामरिक समरसता की चिंता को देखते हुए भारत ने श्रीलंका की राजनीति के तीनों धुरंधरों-सिरसेना, विक्रमसिंघ्ो और राजपक्ष्ो को साधने की कोशिश थी। जिसके फलस्वरूप ही कुछ ही दिनों पहले विक्रमसिंघ्ो नई दिल्ली आए थ्ो और उन्होंने भारतीय पीएम नरेन्द्र मोदी से मुलाकात की थी। विक्रमसिंघ्ो का भारत दौरा ऐसे समय पर हुआ था, जब कुछ ही समय पहले सिरीसेना ने नाटकीय अंदाज में आरोप लगाया था कि भारत की गुत्तचर एजेंसी रॉ उनकी हत्या करना चाहती है, जबकि सिरीसेना स्वयं भी बिमस्टेक की बैठक के दौरान नेपाल में भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ बैठक कर चुके हैं। दूसरा, महत्वपूर्ण पहलू यह है कि भारतीय पीएम नरेंद्र मोदी भी हाल के समय में चीन समर्थक राजपक्ष्ो से दो बार मुलाकात कर चुके हैं। राजपक्ष्ो सितंबर में बीजेपी नेता सुब्रमण्यम स्वामी के बुलावे पर भारत आए थ्ो। 
  वहीं, पीएम नरेन्द्र मोदी ने श्रीलंका यात्रा के दौरान राजपक्षे से भी मुलाकात की थी। अब इस मुलाकात के दौरान क्या बीतचीत हुई, यह तो स्पष्ट नहीं है, लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि शायद, राजपक्ष्ो के सत्ता में रहने के दौरान यह मुलाकात दोनों देशों के बीच संबंध मधुर बनाने में अनुकूल साबित हो, पर यह अभी दूर की कौड़ी है, क्योंकि चीन भी अपनी शातिर निगाहों से घटनाक्रम पर नजर बनाए हुए है। जब श्रीलंका चीन के कर्ज तले दबा हुआ है तो निश्चित ही चीन उससे चालबाजी न कराए, ऐसा हो ही नहीं सकता है, लेकिन कुछ मिलाकर श्रीलंका के साथ-साथ दक्षिण एशिया में आने वाले दिनों तस्वीर कुछ अलग न हो, इससे भी बिल्कुल इनकार नहीं किया जा सकता है। 


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