संकट में "सेब"


    हिमाचल में होने वाली सेब की पैदावार पर संकट खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है। इस बार भी उम्मीद के मुताबिक फसल नहीं हो पाई। हर साल पैदावार में हो रही गिरावट के चलते सेब बागवानों के चेहरों पर चिंता की लकीरें साफ दिखाई दे रही हैं। इस बार सेब का सीजन पिछले साल से भी कमजोर रहा है। इस सीजन में सेब की दो करोड़ पेटियों (कॉर्टन) की पैदावार भी नहीं पाई, जबकि 2०17 के आखिर तक करीब दो करोड़ पेटियों को बेच दिया गया था। इस बार इस समयावधि तक दो करोड़ पेटियां भी मार्केट में नहीं पहुंच पाईं, इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि मौसम की मार किस कदर सेब बागवानोंं को झेलनी पड़ रही है। सरकार के बागवानी विभाग के अनुसार गत छह नवंबर तक करीब एक करोड़ 48 लाख पेटियां ही मंडियों में पहुंची थीं। कुछ सेब अदानी और अन्य कंपनियों ने भी खरीदकर अपने स्टोरों में रखे थ्ो, इसे जोड़कर भी देखा जाए तो दो करोड़ पेटियों की पैदावार तक का भी आंकड़ा पूरा नहीं हो पाया। 


टूट नहीं पा रहा 2०1० का रिकॉर्ड 
 राज्य बागवानी निदेशालय के अनुसार वर्ष 2०17 में कुल पैदावार 2,23,28,675 पेटियों की थी। हिमाचल में अब तक सबसे अच्छी फसल 2०1० में 4.46 करोड़ पेटियों की हुई। यह रिकॉर्ड कभी नहीं टूटा। वर्ष 2०15 में भी 3.88 करोड़ बक्सों की पैदावार हुई। राज्य में 6 से 1० करोड़ बक्सों की पैदावार हो सकती है। एक बक्से या पेटी में 2० से 25 किलो का माप रखा जाता है। कई बागवान एक पेटी में 28 किलोग्राम तक भरते हैं। 
मौसम की बेरुखी
राज्य बागवानी विभाग के अधिकारियों ने पुष्टि की कि इस बार सेब सीजन कमजोर रहा है। कम-से-कम दो करोड़ पेटियां मार्केट में पहुंच जानी चाहिए थीं, लेकिन डेढ़ करोड़ पेटियां भी मार्केट में नहीं पहुंच पाईं। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि मौसम की बेरुखी का असर सेब की फसल पर कितना पड़ा है। अधिकारियों के अनुसार इस सीजन में दो करोड़ पेटियां भी मार्केट में नहीं पहुंच पाईं। उनका मानना है कि सेब की पैदावार में गिरावट का प्रमुख कारण मौसम की बेरुखी है। सेब के पौधों की फ्लॉवरिग और सेटिग के दौरान इस बार मौसम अनुकूल नहीं रहा। लिहाजा, उसका असर फल की पैदावार पर पड़ा। इसका असर राज्य की विकास दर पर भी पड़ रहा है। हिमाचल में प्राइमरी सेक्टर यानि कृषि क्षेत्र के कमजोर होने के कारण विकास दर में गिरावट आई है। राज्य सरकार की ओर से हाल ही में किए गए आर्थिक सर्वेक्षण में भी यह चिता जाहिर की गई है। 
कहर बनकर टूटती है आपदा
 प्रकृति कब कहां कहर बनकर टूटेगी, इसका वाकई अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है। इस बार ऐसा ही कुछ हिमाचल प्रदेश में देखने को मिला। बारिश और बर्फवारी जिस प्रकार सेब की फसल पर कहर बनकर टूटी, उसने सेब की फसल करने वालों की कमर ही तोड़ दी। निश्चित ही लगता है कि वो एक बार फिर सोचने को मजबूर हो गए कि आखिर उन्हें सेब की फसल करनी चाहिए या नहीं। 
अग्रणी प्रदेश है हिमाचल
 हिमाचल प्रदेश सेब की फसल के लिए देश का अग्रणी प्रदेश है। यहां बहुत से हिस्सों में सेब की फसल की जाती है। खासकर, प्रदेश के ऊपरी हिस्सों में। इन हिस्सों में कल्लू, मनाली, और लाहौल-स्पीति जैसी जगहें प्रमुख रूप से शामिल हैं। आलम यह रहा है कि बारिश और बर्फवारी ने इन्हीं क्ष्ोत्रों में अपना कहर बरपाया। बाढ़, बारिश और बर्फवारी से लोगों को जो नुकसान हुआ, वह बेहद खतरनाक साबित हुआ। इस बर्फबारी ने उक्त सभी हिस्सों के बागवानों की कमर तोड़कर रख दी। 
 लोगों ने बताया कि पिछले कुछ साल से सेब की फसल को लेकर लोगों में काफी उत्साह और उम्मीदें थी। उन्होंने पारम्परिक खेती जैसे आलू-मटर के साथ-साथ सेब के बगीचों पर भी दिन रात-मेहनत करना शुरू कर दिया था। वे जानते थे कि यह फसल उनके आय का मुख्य साधन बन सकती है। वक्त के साथ आगे बढ़ने की उम्मीद लिए किसानों ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि सेब की फसल के मंडी पहुंचने से महज 1० से 15 दिन पहले भारी हिमपात उनकी उम्मीदों और सालों की मेहनत पर कहर बनकर टूट पड़ेगी। इस बर्फबारी ने सेब के पेड़ों को चंद मिनटों में पूरी तरह से तबाह कर दिया। बागवानों की 1०-15 सालों की मेहनत बर्फ के नीचे दब कर कराह उठी।
 लाहौल के लोगों का कहना है कि यह दृश्य उस समय में उनके लिए कितना मार्मिक और गमगीन करने वाला रहा होगा, जिन्होंने इन पेड़ों को अपने बच्चों की तरह पाला। लोग प्रकृति के इस कहर के सामने बेबस और लाचार हो गए। इस बेबसी को सिर्फ वही लोग समझ सकते हैं, जिन्होंने उन छोटे-छोटे पौधों को एक फलदार वृक्ष के तौर पर पनपते हुए देखा था। अगर, बागवानों की मानें तो इस बार बर्फवारी ने फलदार पेड़ों को लगभग 8० से 9० प्रतिशत तक नुकसान पहुंचाया, जो बाकी बचे हैं, उन्हें फिर पूरी तरह फल देने और तैयार होने में कम-से-कम 6 या 7 साल लगेंगे। उनका कहना है कि सरकार चाहे इस नुकसान का आकलन कर लेगी, लेकिन आपदा के कारण, जो नुकसान पहुंचा, उसका सही आकलन कभी नहीं किया जा सकता। इस प्राकृतिक आपदा ने लोगों को सेब की फसल को लेकर एक बार फिर से गम्भीर चितन के लिए मजबूर कर दिया है। 
हर जिले में प्रभावित रही पैदावार
 प्रदेश का शिमला ऐसा जनपद है, जहां सेब की फसल की पैदावार काफी अच्छी होती है। पर इस बार पिछले साल के मुकाबले फसल पर काफी असर पड़ा। शिमला में इस बार सेबएक करोड़ पेटी से भी कम तक ही सिमट गया। बीते पैदावार सीजन में जनपद में कम फसल के बावजूद भी 1 करोड़ 25 लाख सेब की पेटी का उत्पादन हुआ था। इस बार सेब उत्पादन में एक चौथाई की गिरावट का आकलन किया गया है। उधर, बागवानी के लिए मशहूर कुल्लू घाटी के बागवानों को लगातार दूसरी साल ओलावृष्टि, अंधड़ और चिलिग ऑवर्स पूरे न होने का खामियाजा भुगतना पड़ा। इस बार भी 2०17 के मुकाबले सेब की पैदावार में कमी रही। 2०17 में कुल्लू में करीब 45 लाख सेब पेटियों का उत्पादन हुआ था, लेकिन इस बाद उत्पादन 4० लाख पेटियों से भी कम हुआ। वहीं, किन्नौर जिले में भी यही स्थिति रही। पिछले कुछ साल के आंकड़ों पर नजर दौड़ाएं तो किन्नौर में हर वर्ष किसी न किसी कारण से हर साल सेब की पैदावार कम होती जा रही है। जिले में हर साल कम हो रही सेब पैदावार भी बागवानों के लिए भी चिता का विषय है। चंबा में भी 5० से 7० फीसदी तक उत्पादन कम हुआ। पैदावार कम होने का कारण फ्लावरिग के दौरान मौसम का अनुकूल न रहना रहा। जिले में करीब दस हजार हेक्टेयर भूमि में सेब का उद्यान होता है। उपमंडल भरमौर में सेब की पैदावार अच्छी होती है, लेकिन इस बार पैदावार पिछले साल की तुलता में कम हुआ। 


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