प्रधानमंत्री के लद्दाख दौरे के मायने | Meaning-of-Prime-Minister's-visit-to-Ladakh
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गत शुक्रवार को अचानक
लदख पहुंचे और सैनिकों की हौंसला अफजाई की। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के इस दौरे
के कई मायने हैं और संदेश भी साफ है। एक देश के भीतर जो राजनीतिक तौर पर उन पर हाल
के दिनों में पीएम द्बारा अपने संबोधन में चीन का नाम नहीं लेने का आरोप लगा रहे
थे और दूसरा चीन, उसका शातिर दोस्त पाकिस्तान व उसकी दोस्ती की सूची में शामिल हुआ
उसका नया दोस्त नेपाल। राजनीतिक तौर पर पीएम का संदेश देना इसीलिए जरूरी था,
क्योंकि विपक्षियों के सुर देश की सेना और सरकार के पक्ष में नहीं सुनाई दे रहे
हैं, बल्कि उनके सुर चीन और पाकिस्तान जैसे शातिर देशों के पक्ष में सुनाई दे रहे
हैं, जो उस परिस्थिति में देश के लिए बहुत नुकसानदायक है, जब पड़ोसी मिलकर उसकी
घेराबंदी करने में लगे हुए हैं।
देश अभी गहरे संकट से जूझ रहा है। कोरोना महामारी की वजह से लाखों लोग संक्रमित हो चुके हैं, हजारों लोग जान गंवा चुके हैं। आर्थिक रूप से देश को बहुत नुकसान उठाना पड़ रहा है। ऐसी परिस्थितियों में जब पडोसी देश भारत की घेराबंदी करने में जुटे हुए हों, तो पक्ष-विपक्ष को एक मुहाने पर खड़ा रहना चाहिए। खासकर, विपक्ष को सरकार की न केवल सराहना करनी चाहिए, बल्कि उसे हिम्मत देनी चाहिए कि हम सब साथ हैं, लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। कम्युनिस्ट पार्टी तो और भी अपने स्तर से नीचे गिर चुकी है। वह चीन को अपना दुश्मन मानने को तैयार ही नहीं है, जबकि कांग्रेस वर्तमान हालातों से निपटने में सेना और सरकार के साथ खड़े होने के बजाय इतिहास के पन्नों से तस्वीरें खोद-खोद कर निकालने में जुटी हुई है। इन राजनीतिक पार्टियों के संबंध में आश्चर्य इसीलिए भी होता है, क्योंकि ये पार्टियां देश के मिजाज को भंपाने में भी सफल नहीं हो पा रही हैं। इसीलिए हर मंच पर ऐसी सोच रखने वाली पार्टियों की छिछालेदार भी हो रही है।
देश अभी गहरे संकट से जूझ रहा है। कोरोना महामारी की वजह से लाखों लोग संक्रमित हो चुके हैं, हजारों लोग जान गंवा चुके हैं। आर्थिक रूप से देश को बहुत नुकसान उठाना पड़ रहा है। ऐसी परिस्थितियों में जब पडोसी देश भारत की घेराबंदी करने में जुटे हुए हों, तो पक्ष-विपक्ष को एक मुहाने पर खड़ा रहना चाहिए। खासकर, विपक्ष को सरकार की न केवल सराहना करनी चाहिए, बल्कि उसे हिम्मत देनी चाहिए कि हम सब साथ हैं, लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। कम्युनिस्ट पार्टी तो और भी अपने स्तर से नीचे गिर चुकी है। वह चीन को अपना दुश्मन मानने को तैयार ही नहीं है, जबकि कांग्रेस वर्तमान हालातों से निपटने में सेना और सरकार के साथ खड़े होने के बजाय इतिहास के पन्नों से तस्वीरें खोद-खोद कर निकालने में जुटी हुई है। इन राजनीतिक पार्टियों के संबंध में आश्चर्य इसीलिए भी होता है, क्योंकि ये पार्टियां देश के मिजाज को भंपाने में भी सफल नहीं हो पा रही हैं। इसीलिए हर मंच पर ऐसी सोच रखने वाली पार्टियों की छिछालेदार भी हो रही है।
चीन, पाकिस्तान और नेपाल
की गोलबंदी की बात करें तो उन्हें भी पीएम मोदी के संदेश को साफतौर पर समझ लेना
चाहिए, क्योंकि भारत किसी भी गोलबंदी के आगे झुकने वाला नहीं है। भारत दुनिया की
मजबूत सैन्य ताकतों में से एक तो है ही, बल्कि वह दुश्मन के खिलाफ सख्ती से निपटने
की राजनीतिक इच्छाशक्ति भी रखता है। चीन अपनी विस्तारवाद की नीति के तहत भारत पर
प्रयोग करने की कुचेष्ठा के जाल में खुद ही फंस गया। उसे यह नहीं पता था कि जब वह
पाकिस्तान और नेपाल के साथ गोलबंदी कर भारत के खिलाफ मैदान में उतरेगा तो भारत ऐसी
मजबूती के साथ उसके खिलाफ खड़ा होगा। भारत के लिए भी मजबूती दिखाना बहुत जरूरी भी
था। अगर, इस बार भारत थोड़ा भी दबाव में आता तो उसका वैश्विक स्तर पर अच्छा संदेश
नहीं जाता, क्योंकि भारत न केवल एक वैश्विक ताकत के रूप में उभर रहा है, बल्कि
विश्व गुरू बनने की चाह भी मन में है। इसीलिए वैश्विक एकता और अखंडता के खिलाफ काम
करने वाले चीन जैसे देश के खिलाफ दृढ़ इच्छाशक्ति दिखाना बहुत ही जरूरी था। यह
स्थिति बहुत ही भयावह है, क्योंकि चीन अपनी विस्तारवाद की नीति को बढ़ावा तो दे ही
रहा है, बल्कि वह पाकिस्तान और नेपाल को भी इसके लिए उकसा रहा है। उसे पता है कि
पाकिस्तान और नेपाल उसकी खिलाफत नहीं कर सकते हैं, क्योंकि वह इन दोनों देशों को
अपने टुकड़ों पर पलने के लिए मजबूर करता जा रहा है और भारत के खिलाफ उसका यह दांव काम
नहीं आ सकता है और भारत के खिलाफ उसके विस्तारवाद का कुचक्र भी नहीं चल सकता।
इसीलिए उसे उल्टे पांव लौटने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। खैर, आने वाले दिनों में
परिस्थतियां जो भी हों, लेकिन वह यह तो समझ ही गया है कि भारत उसकी गीदड़भभकी के
खेल से डरने वाला नहीं है। दूसरा, अंतराष्ट्रीय स्तर पर भी चीन की यह नीति काम
आने वाली नहीं है। दुनिया के अधिकांश देश चीन को जान और समझ चुके हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
का लदख जाना, सैनिकों से मिलना और उनको यह भरोसा दिलाना कि पूरा देश उनके साथ खड़ा
है, यह अपने-आप में वर्तमान परिवेश में बड़ा प्रभाव छोड़ने वाली बात तो है ही, बल्कि
हवा भरे हुए गुब्बारे में हवा में छोड़ने जैसा कदम भी है। सैनिक जब बॉर्डर पर खड़ा
होता है, तो उसके मन में अपने देश और माटी को बचाने का पूरा जोश और संकल्प होता
है, लेकिन जब देश का मुखिया उनके बीच जाकर उन्हीं की तरह उनसे मिलता है तो इससे उस
जोश और संकल्प में कई गुना और इजाफा हो जाता है और विरोधी भी यह सोचने के लिए
मजबूर हो जाता है कि कहीं उसका दांव उल्टा तो नहीं पड़ रहा है। भारत ने चीन के
खिलाफ ही नहीं, बल्कि चीन की गुटबंदी के खिलाफ भी पूरा जज्बा दिखाया है। चीन की कायराना
आदत हमेशा से रही है। भारत के खिलाफ तो उसे सामने से वार करने की हिम्मत नहीं पड़ती
है। 15 जून की घटना भी इसका उदाहरण है, जिसमें हमारे 20 जवान शहीद हो गए थे, लेकिन
भारत के परिपेक्ष्य में बात करें तो तैयारी में हमें बिल्कुल भी कोताही नहीं बरतनी
होगी, क्योंकि इस तरह के मौके भी बहुत कुछ सीखने वाले होते हैं। एक नया अनुभव देने
वाले होते हैं। हमें अपनी ताकत की समीक्षा करने का मौका मिलता है। जब दुनिया
अंधाधुंध हथियारों की होड़ में जी रही है, उसमें अपनी तैयारी रखना और ताकत का आकलन
करना बहुत जरूरी होता है।
भारत के खिलाफ जिस तरह चीन, पाकिस्तान और नेपाल जैसे देश
गुटबंदी करने में जुटे हैं, उसमें भारत के लिए भी अपनी ताकत और दृढ इच्छाशक्ति को
दिखाना बहुत जरूरी था, जिससे भारत के खिलाफ कहानी गढ़ते इन देशों को साफ-साफ संदेश
जा सके। सेना तो इसमें हमेशा ही आगे रहती है, लेकिन जरूरत है कि हम राजनीतिक तौर
पर भी सेना की तरह ही दुश्मन देश के खिलाफ एकजुट हों। हमें अपने देश की सरकार और
सेना के प्रति आग उगलने की जरूरत नहीं है, बल्कि मिलकर ऐसी आग उगलने की जरूरत है,
जिससे चीन और पाकिस्तान जैसे शातिर पड़ोसियों को यह समझ में आ जाए कि भारत की एकता
और अखंडता को तोड़ना मुश्किल ही नहीं, बल्कि नामुमकिन है।
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