अपराधी की मौत पर राजनीति क्यों ? Why politics on encounter of criminal vikas dubey ?

दुर्दांत अपराधी विकास दुबे का तो अंत हो गया है, लेकिन इस मुद्दे पर अब राजनीति का सिलसिला शुरू हो चुका है। यह सिलसिला कब तक चलेगा, इसका किसी को कोई अंदाजा नहीं है। हमारे देश में इसी तरह की प्रकृति रही है। विकास दुबे का मामला कोई नया नहीं है। भारत-चीन के मामले में भी यही स्थिति थी और पाकिस्तान के साथ होने वाली घटनाओं को लेकर भी खुली राजनीति होती है। लोकतंत्र में सवाल उठाना कोई गलत नहीं है, लेकिन जब देश और समाज के हित में कोई कदम उठाया जा रहा हो तो उसको लेकर राजनीति हो यह किसी भी रूप में उचित नहीं है।  


विकास दुबे के मामले को भी इसी रूप में देखा जाना चाहिए, जिस पर राजनीति के लिए कोई गुंजाइश नहीं बचनी चाहिए, क्योंकि वह समाज का दुश्मन था। जिस अपराधी ने आठ पुलिस के जवानों की घात लगाकर निर्मम हत्या कर दी हो, उसके प्रति कैसी सहानुभूति ? इसमें पुलिस और परिस्थितियों का कोई दोष नहीं है, बल्कि विकास दुबे ने अपनी इस कहानी की स्क्रिप्ट खुद ही लिखी थी। आज नहीं तो कल उसका यही अंजाम होना था। अगर, एनकाउंटर के हालात नहीं बनते और वह बचकर कोर्ट की शरण में चला जाता तो क्या फिर वह समाज के लिए खतरा नहीं बनता, इसकी क्या गारंटी थी। वह और मजबूत होकर बाहर निकलता। देश की कानूनी और न्यायायिक व्यवस्था से कोई भी अंजान नहीं है। किसी भी मामले में दोषी को सजा दिलाने में वर्षों बीत जाते हैं। जब बात विकास दुबे जैसे दुर्दांत अपराधी की हो तो उसका दोष साबित करना ही मुश्किल से मुश्किल काम हो जाता है, क्योंकि ऐसे लोगों को बड़ा राजनीतिक संरक्षण प्राप्त होता है। जिसके पीछे, नेताओं, अधिकारियों, पुलिस, नामी वकीलों की ताकत का गठजोड़ हो, क्या उसको सजा दिलाना कोई आसान काम होता। पुलिसकर्मी ही सालों साल अदालत के चक्कर लगाते रहते और वह शान से छूटकर जेल से बाहर आ जाता। जो राजनीतिक पार्टियां आज सरकार और पुलिस पर दोषारोपण कर रही हैं, वही राजनीतिक पार्टियां उसे विधानसभा और लोकसभा चुनाव का टिकट दे देती और वह विधानसभा और संसद में जनता का प्रतिनिधित्व कर रहा होता। जनता तो खौफ में जीती ही, बल्कि पुलिस को भी उसकी जी हुजूरी करनी पड़ती।
हमारे देश में यह चलन बहुत ही आम है। ठीक इसी चलन की राह पर विकास दुबे भी चल रहा था। देश की राजनीति में भले ही अपराधीकरण पर लगाम लगाने की बात होती है, लेकिन देश में कोई भी ऐसी पार्टी नहीं है, जिसमें अपराधी छवि के लोग न हों और वे विधायक, सांसद और मंत्री न बने हों। स्थानीय निकायों में अधिकांश रूप से आपराधिक छवि के लोग ही होते हैं, जिसके हाथ में वहां की पंचायत का प्रतिनिधित्व होता है। यह संभव तभी ही होता है, जब उसे बड़ा राजनीति संरक्षण प्राप्त होता है। अब सवाल चाहे एनकाउंटर को लेकर हों या फिर विकास दुबे के पीछे राजनीतिक और पुलिस संरक्षण की। यह गंभीर जांच का विषय है, जो हमारे सिस्टम का हिस्सा भी है। ऐसा नहीं है कि विकास दुबे एनकाउंटर में मारा गया है और अब सारे राज दफन हो गए हैं। जांच के माध्यम से उन सफेदपोशों तक आसानी से पहुंचा जा सकता है। बशर्तें, जांच की दिशा सही हो। इन परिस्थितियों में एक सवाल और यह खड़ा होता है कि देश में विकास दुबे से भी बड़े अपराधी पड़े हुए हैं, जो या तो सलाखों के पीछे हैं या फिर बेल पर मौज कर रहे हैं। एकमात्र विकास दुबे ही अपवाद नहीं है कि केवल उसे ही राजनीतिक संरक्षण मिला हुआ था, बल्कि अन्य अपराधियों को भी राजनीतिक संरक्षण ही मिला हुआ है। हर अपराधी के पीछे कोई न कोई नेता, विधायक, मंत्री और बड़े-बड़े अधिकारियों का हाथ है, तो किस अपराधी के कोर्ट में पेश होने और जेल में जाने से ऐसे लोगों के चेहरों से नकाब हटे हैं। विकास दुबे के मामले में भी ठीक यही होता। कुछ दिन मामला चलता, और विकास दुबे जिस प्रकार इस बार बेल पर जेल से छूटकर आया था, उसी प्रकार फिर से बाहर आ जाता और किसी न किसी निर्दोष और पुलिसकर्मी की हत्या करता। अगर, उसे बेल नहीं मिली होती, न तो इतना बड़ा घटनाक्रम होता और न हमारे आठ पुलिसकर्मी शहीद होते। कहीं न कहीं उस न्यायायिक व्यवस्था और न्यायायिक पदों पर बैठे लोगों की भी एक बहुत बड़ी  खामी है, जिसमें ऐसे दुर्दांत अपराधियों को खैरात के भाव में बेल दे दी जाती है।
इसी घटनाक्रम को लेकर महज एनकाउंटर पर ही राजनीति नहीं होनी चाहिए, बल्कि उन लोगों के घरों की तरफ भी देखने की जरूरत है, जो विकास दुबे के आंतक से उजड़ चुके हैं। उन पुलिसकर्मियों के घरवालों की पीड़ा को भी समझना चाहिए, जिन्हें विकास ने घात लगाकर कुछ ही पलों में मौत के घाट उतार दिया। क्या इस मौके पर ऐसे वीर जवानों के परिवारों की पीड़ा को अधिक तब्बजो देने की जरूरत नहीं है ? पुलिस की शहादत को भूलकर अगर, विकास जैसे दुर्दांत अपराधी की गिरफ्तारी और मौत की कहानी पर अधिक सवाल उठाए जा रहे हैं तो यह हमारे देश में उसी कल्चर को और अधिक बढ़ावा देने का प्रयास है, जिसमें ऐसे अपराधी पैदा होते हैं। ये अपराधी ऐसे राजनेताओं, अफसरों की गोद में ही पलते हैं और निर्दोष लोगों के लिए नासूर बन जाते हैं। इसीलिए एक अपराधी के गिरफ्तारी और एनकाउंटर पर सवाल उठाने से बेहतर है कि उसके अंजाम पर खुशी जाहिर की जानी चाहिए और घटनाक्रम को लेकर जो जांच होगी, उसका इंतजार किया जाना चाहिए।

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