इसीलिए अदालत जाने से डरते हैं लोग | That's why people are afraid of going to court
राष्ट्रीय स्तर पर अदालतों के प्रदर्शन पर निगरानी रखने वाली राष्ट्रीय न्यायायिक डेटा ग्रिड National Judicial
Data Grid (NJDG) ने आकड़े जारी कर उच्च न्यायालयों, जिला और तालुका अदालतों में लंबित मामलों का एक डेटा जारी किया है। इसके अनुसार इन अदालतों के समक्ष लगभग 3 करोड़ 74 लाख
(37.7 मिलियन) मामलों में से लगभग 30 लाख 70 हजार (3.7 मिलियन) यानि 10 प्रतिशत मामले एक दशक से भी अधिक समय से लंबित हैं। इनमें जिला व तालुका अदालतों में 2.8
मिलियन और उच्च न्यायालयों के
920,000 मामले शामिल हैं। 66 लाख मामले 20 साल और 1 लाख 31 हजार मामले तीन दशकों यानि 30 सालों से लंबित पड़े हुए हैं।
इन आकड़ों से समझ आ जाता है कि हमारे देश में न्याय पाने के लिए कितना लंबा संघर्ष करना पड़ता है। स्थिति यह होती है कि जब अदालत में जाकर न्याय मांगने की बात आती है तो लोगों को डर लगने लगता है। खासकर, आम आदमी को। क्योंकि जिस देश में न्यायायिक प्रक्रिया का इतना लंबा इंतजार हो, वहां आसानी से अदालत कौन जाना चाहेगा। कानपुर के दुर्दांत अपराधी विकास दुबे के मामले में भी कहीं न कहीं पुलिस की यही पीड़ा रही होगी कि अगर, यह अपराधी अदालत की शरण में चला जाएगा तो वहां इसकी हनक के आगे न्याय की पुकार कमजोर पड़ जाएगी। कोई उसके खिलाफ बयान नहीं देगा तो जाहिर सी बात वह छूटकर बाहर आ जाएगा। पीड़ित परिवारों को न्याय पाने के लिए फिर से न जाने कितने लोगों की और कुर्बानी देनी पड़ती। हमारे देश की यह बेहद दुष्कर स्थिति है। चाहे इसके पीछे जो भी कारण हों, लेकिन यह बात तो साफ है कि हम केवल उन्हीं चीजों में पीछे कैसे रह जाते हैं ? जिसकी हमें सबसे अधिक जरूरत होती है। या यूं कहें कि ये चीजें महज उन्हीं लोगों की बपौती बनकर क्यों रह गई हैं, जो साधन संपन्न लोग होते हैं। कम से कम न्याय के संबंध में तो यह नहीं होना चाहिए।
हम अपना इस बात को लेकर कितना ही गुणगान क्यों न कर लें कि हम विश्व ताकत बनने जा रहे हैं। हम चौतरफा विकास कर रहे हैं और दुनिया के साथ हथियारों की होड़ में खड़े हैं। यह बहुत अच्छी बात है। आज के दौर में ये चीजें बहुत जरूरी भी हैं, लेकिन क्या इस अंधी दौड़ में हमें यह भूल जाना चाहिए कि आजादी के 70 सालों के बाद भी हमारे देश में आम आदमी के लिए रोटी, कपड़ा, मकान और न्याय पाना इतना जटिल क्यों है ? अगर, हम यह सब जानते हैं तो फिर इसके पीछे के कारणों को खोजने की कोशिश क्यों नहीं की जाती है ? कई बार सरकारें आम लोगों को यानि आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को रोटी, कपड़ा और मकान आसानी से देने की बातें करती हैं। क्या इसी तरह की आसानी न्याय प्रक्रिया को आसान करने में नहीं दिखाई जा सकती है। न्याय में देरी को लेकर चिंताएं जरूर व्यक्त की जाती हैंं। अगर, उन पर अमल किया जाता तो शायद न्यायायिक प्रक्रियाएं जटिलता के जाल से बाहर निकलकर आसान हो गईं होतीं।
Supreme Court ने भी पिछले
माह एक आपराधिक मामले की सुनवाई के दौरान उच्च न्यायालयों में आपराधिक मामलों के
लंबन पर चिंता जाहिर की। जिस मामले की सुनवाई की जा रही थी, उसकी सजा के खिलाफ
अपील Allahabad high court में लंबित है। इसे क्रिमिनल की पुरानी पेंडेंसी कहा जाता
है, जो न्यायायिक प्रणाली के लिए एक भारी चुनौती है। सुप्रीम कोर्ट ने इस दौरान speedy trial का उल्लेख भी किया, जिसमें criminal अपीलों के त्वरित निपटान की बात भी शामिल है। ऐसा इसीलिए, क्योंकि अगर इस
तरह के अपीलों की सही समय पर सुनवाई नहीं की जाती है तो अपील का अधिकार स्वयं ही
भ्रामक हो जाता है। अयोग्य ठहराए गए अभियुक्त को यदि सजा नहीं हुई है तो उसे एक
बड़ी अवधि से गुजरना पड़ता है। सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद, मध्यप्रदेश, पटना, राजस्थान,
बॉम्बे और उड़ीसा हाईकोर्ट से लंबित आपराधिक अपीलों को तय करने के लिए एक विस्तृत
कार्ययोजना को प्रस्तुत करने के लिए भी कहा। इसमें आगे क्या रिजल्ट आएगा, यह देखना
महत्वपूर्ण होगा।
जब लंबित मामलों की बात हो
रही है तो हमें तथ्यों की और तह पर जाना चाहिए। हाईकोर्ट, जिला और तालुका अदालतों
में लंबित पड़े मामलों को अलग-अलग वर्गीकृत करें तो इसमें सिविल और आपराधिक मामलों
के संबंध में एक सी स्थिति है। बशर्तें, high courts के मुकाबले जिला और तालुका अदालतों में
अधिक मामले दर्ज हैं। बॉम्बे, दिल्ली और मध्यप्रदेश हाईकोर्ट को छोड़कर देश के अन्य राज्यों के
हाईकोर्ट में सिविल और क्रिमिनल के मिलाकर करीब 41,42,935 मामले दर्ज हैं, जिनमें
34,52,591 यानि 83.3 फीसदी मामले एक साल से भी अधिक समय से लंबित हैं। इसमें
11,90,216 मामले क्रिमिनल के हैं, इनमें से 9,55,116 यानि 80.25 फीसदी मामले एक
साल से अधिक समय से लंबित हैं। अगर, सिविल से जुड़े हुए मामलों की बात करें तो high courts में 29,52,719 मामले
दर्ज हैं, जिनमें से 24,97,475 मामले यानि 84.58 फीसदी मामले एक साल से भी अधिक
समय से लंबित हैं। जिला, तालुका अदालतों में कुल 3,32,90,873 मामले दर्ज हैं,
जिनमें 2,57,52,494 यानि 77.36 फीसदी मामले एक साल से भी अधिक समय से लंबित हैं,
जिनमें क्रिमिनल के 2,40,68,340 मामले शामिल हैं। इन क्रिमिनल के मामलों मे से
1,86,86,708 यानि 77.64 फीसदी मामले एक साल से भी अधिक समय से लंबित हैं। वहीं,
सिविल के 92,22,533 मामले दर्ज हैं, जिनमें से 70,65,786 यानि 76.61 फीसदी मामले
एक साल से भी अधिक समय से लंबित हैं।
अगर, इसी आधार पर 10 साल
या उससे अधिक वर्षों से लंबित पड़े मामलों की बात करें तो तब भी हाईकोर्ट, जिला और
तालुका अदालतों की तस्वीर भी लगभग एक ही नजर आएगी। इन अदालतों में 30 साल से ही
नहीं, बल्कि 30 साल से भी अधिक समय से भी मामले लंबित पड़े हुए हैं। high courts की बात करें तो 10 से 20 साल से लंबित पड़े मामलों की संख्या 6,33,317 यानि 15.29 फीसदी है और 20 से 30 साल
से लंबित पड़े मामलों की संख्या 91,707 यानि 2.88 फीसदी है। 30 साल से अधिक समय से
लंबित मामलों की संख्या 77,940 यानि 1.88 फीसदी है। जिला और तालुका अदालतों की बात
करें तो इनमें 10 से 20 साल से लंबित पड़े मामलों की संख्या 49,74,089 यानि 14.94
फीसदी है। 20 से 30 सालों से लंबित पड़े मामलों की संख्या 4,18,731 यानि 1.26 फीसदी
है। 30 साल से अधिक समय से लंबित पड़े मामलों की संख्या 85,661 यानि 0.26 फीसदी है।
30 साल से अधिक का समय
यानि इस दौर की आधी से अधिक की जिंद्गी। यह बात भी सभी जानते ही हैं कि बहुत लोग
अदालतों में इंसाफ मांगते-मांगते स्वर्ग सिधार जाते हैं। जिंद्गी पूरी कट जाती है,
लेकिन अदालतों में केवल तारीख पर तारीख, तारीख पर तारीख ही मिलती रहती है। जब इस
दौर में हर चीज को आसान करने की कवायद हो रही हो तो हमें अदालतों में लंबित मामलों
के बारे में भी सोचना चाहिए। उसके पीछे जो भी कारण हों, जैसे जजों की कम संख्या का होना,
मामलों की सुनवाई की प्रक्रिया का ढीला होना या फिर साक्ष्य जुटाने आदि में होने वाली देरी आदि आदि...। इनमें तेजी लाने की जरूरत है। मुख्यत: तो मामले
अदालतों में जजों की कम संख्या की वजह से ही लंबित होते हैं। देश की अदालतों में
जजों के बहुत से पद रिक्त हैं। ऐसे, खाली पदों को जल्द भर देना चाहिए। जिससे तारीख
पर तारीख, तारीख पर तारीख मिलने के बजाय लोगों के लिए न्याय पाने का रास्ता आसान
हो सके और लंबित मामलों की अवधि दहाई के आकड़े तक को भी न छू सके।
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