दिग्विजय सिंह के राहुल विरोधी सुरों पर होता है संदेह
कुमार समीर
कांग्रेस के अंदर चल रहा घमासान थमने का नाम नहीं ले रहा है। इसमें कांग्रेस के भरोसेमंद नेता दिग्विजय सिंह के आने के बाद सियासी तूफान और बढ़ गया है। जब पार्टी में नए अध्यक्ष पद को लेकर हलचल तेज हो रही है, ऐसे में पार्टी के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह का यह कहना कि पार्टी में ये असंतोष एक दिन में नहीं फैला, बल्कि धीरे-धीरे इसकी नींव पड़ी है। यह क्या संदेश देता है। क्या वाकई दिग्गी राजा भी पार्टी की विस्फोटक स्थिति से इतने विचलित हैं या फिर उनकी यह कोई नई चाल है। कहीं वह राहुल विरोध का नाटक कर विपक्षी गुट में घुसपैठ की कोशिश तो नहीं कर रहे हैं। दिग्गी राजा कांग्रेस के भरोसेमंद नेता हैं और सोनिया को बहन भी मानते हैं। और राहुल के साथ उनकी अच्छी जुगलबंदी भी है। ऐसे में क्या वह राहुल के खिलाफ कुछ भी बोल सकते हैं। यह थोड़ा संदेश पैदा करने वाली स्थिति है। राजनीतिक तौर पर देखें तो दिग्गी का यह बयान बहुत बड़ा है, जिसमें वह यह कहने की हिम्मत करते हैं कि भले ही राहुल गांधी ने अध्यक्ष का पद छोड़ दिया, लेकिन पार्टी पर उनका नियंत्रण बना रहा, इसका सबूत पार्टी पदाधिकारियों की नियुक्ति से मिलता है।
इंडिया टुडे की रिपोर्ट के मुताबिक दिग्विजय सिह ने कहा, 'ऐसा प्रतीत होता है कि पार्टी नेताओं में असंतोष का एक कारण यही बना कि राहुल गांधी भले ही अध्यक्ष नहीं रहे, लेकिन पर्दे के पीछे वे पार्टी पर नियंत्रण जारी रखे हुए थे.। दिग्गी राजा अभी कांग्रेस से राज्यसभा सांसद हैं। राहुल को सीधे तौर पर निशाने में लेने के साथ ही उन्होंने विरोधी गुट में शामिल नेताओं को भी नसीहत दे डाली। उन्होंने कहा कि जो पार्टी के नेतृत्व से असंतुष्ट हैं, उन्हें सामने आकर अपनी बात रखनी चाहिए थी, उन्हें चिट्ठी लिखने की जरूरत नहीं थी। जब उन्होंने कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को चुनौती नहीं दी तो आखिर वो कहना क्या चाहते हैं, इसको लेकर स्थिति साफ करनी चाहिए। सिह ने कहा, 'मैं नहीं मानता कि जो अपनी बात रखना चाहते हैं, उन्हें सोनिया गांधी या राहुल गांधी समय नहीं देते।
इससे पहले दिग्विजय ने कहा था कि उन्हें राहुल गांधी से कोई भी दिक्कत नहीं है, ना ही बात करने में कोई समस्या है। सोनिया गांधी लगातार लोगों से बात करती हैं, ऐसे में चिट्ठी लिखने की नौबत ही नहीं आनी चाहिए थी। दिग्जिवय सिंह का राजनीतिक करियर बड़ा ही अलग किस्म का रहा है। राजनीतिक पंडित भी उन्हें आसानी से नहीं समझ सकते हैं। इसीलिए उनके बयानों में डबलगेम वाली स्थिति का भी आभास होता है। बशर्ते, उन्होंने विपक्षी गुट में शामिल लोगों पर सीेधेतौर पर निशाना नहीं साधा, लेकिन राहुल पर सीधे तौर पर निशाना साधना एक अलग किस्म का उदाहरण पेश करता है, क्योंकि दिग्गी राजा पार्टी हाईकमान की भरोसेमंद सूची में शामिल हैं। इसीलिए उनके इन बयानों में संदेश का आभास होता है कि कहीं वह कांग्रेस हाईकमान के डैमेज कंट्रोल की रणनीति के तहत विपक्षी खेमे में घुसने की कोशिश तो नहीं कर रहे हैं, जिससे विपक्षी गुट की रणनीति को समझते हुए आगे का माजरा तय किया जाए।
इन परिस्थितियों में उनकी पार्टी हाईकमान से मिलीभगत का संदेश इसीलिए भी होता है, जब पार्टी के 32 नेताओं ने महज पार्टी में बदलाव की मांग की तो उन्हें राहुल की नाराजगी का शिकार होना पड़ा, लेकिन जब दिग्गी राजा खुलतौर पर राहुल को निशाने पर ले रहे हैं तो दिग्गी के खिलाफ किसी तरह की कोई प्रतिक्रिया नहीं। यह बड़ा सवाल है। बकायदा उन्हें ईनाम के तौर पर उस कमेटी में शामिल कर दिया, जो भाजपा सरकार की गतिविधियों पर नजर रखेगी, जबकि उसमें न तो गुलाम नबी आजाद को जगह दी गई और न ही आनंद शर्मा को। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की बनाई गई इस कमेटी में जिन नेताओं को रखा गया है, उनमें पी चिदंबरम, दिग्विजय सिह, जयराम रमेश, डॉ अमर सिह और गौरव गोगोई शामिल हैं। इस समिति के संयोजन की जिम्मेदारी जयराम रमेश को सौंपी गई है। यह कमेटी केंद्र की ओर से जारी प्रमुख अध्यादेशों पर चर्चा और पार्टी का रुख तय करने का काम करेगी।
उधर, सोनिया गांधी को पत्र लिखने वाले नेताओं में गुलाम नबी आजाद प्रमुख नेताओं में शामिल हैं। उन पर भाजपा समर्थक होने का आरोप भी लगा, जिससे वह नाराज हैं। कहा जाता है कि आजाद इन आरोपों से दुखी हैं और उन्होंने तब भी इसे बेबुनियाद बताते हुए इस्तीफे की पेशकश की थी। पत्र लिखने वाले दूसरे नेताओं ने भी इन आरोपों का खंडन किया था। कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में हंगामे के बाद गांधी परिवार डैमेज कंट्रोल की कवायद में जुट गया है। चिठ्ठी लिखने वाले असंतुष्ट धड़े की अगुवाई करने वाले गुलाम नबी आजाद को मनाने के लिए सोनिया गांधी ने मोर्चा संभाला हुआ है। बैठक के तुरंत बाद राहुल गांधी ने भी गुलाम नबी आजाद से बात कर गिले शिकवे दूर करने की कोशिश की थी। गुलाम नबी आजाद राज्य सभा में विपक्ष के नेता के साथ संसद में कांग्रेस की दमदार आवाज भी हैं। इससे पहले वे जम्मू और कश्मीर राज्य के मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं। एक महीने के अंदर ही संसद का मानसून सत्र शुरू होने वाला है। ऐसी स्थिति में कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व यह नहीं चाहता कि पार्टी की एकता को खतरा हो और संसद में उनकी आवाज कमजोर पड़े। इसीलिए गुलाम नबी आजाद को मनाना बहुत जरूरी है।
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