क्या फिर राजशाही की तरफ लौट रहा नेपाल ? I Is Nepal returning to the monarchy again

नेपाल, भारत का सबसे भरोसेमंद पड़ोसी। भले ही, इस दौर में भारत और नेपाल के रिश्तों में थोड़ी खटास आयी हो, पर तमाम सांस्कृतिक विभित्ताओं की वजह से भारत और नेपाल के रिश्ते प्रगाढ हैं ही। हाल की कड़वाहट के बाद जब भारत और नेपाल के बीच रिश्ते सामान्य हुए तो अब स्वयं नेपाल एक अलग-सी परिस्थितियों से गुजरता हुआ दिख रहा है। लोग अचानक राजशाही की मांग को लेकर सड़कों पर उतर आये हैं। जब दुनिया के तमाम देशों में लोकतंत्र को शासन का सबसे लचीला अच्छा फार्मूला माना जा रहा हो, ऐसे में, एक बार फिर राजशाही की तरफ लौटने की बात करना थोड़ा अजीब तो लगता ही है, जबकि नेपाल में लोकतंत्र की शुरूआत हुए अभी बहुत अधिक समय भी नहीं बीता है। 2008 में ही देश में आधारिक तौर पर राजशाही खत्म हुई है। केवल 12 सालों के अंतराल में ही लोग लोकतांत्रिक सिस्टम की क्यों तिलांजलि दे देना चाहते हैं। नेपाल में राजशाही की मांग को लेकर प्रदर्शन कर रहे लोगों ने अपने हाथों में तख्ती पकड़ी है और वे आखिरी राजा ज्ञानेंद्र और उनकी पत्नी की तस्वीर वाली टी-शर्ट पहने हुए नजर रहे हैं। साल 2008 में जब से देश से राजशाही आधिकारिक तौर पर खत्म हुई, तब से राजा ज्ञानेंद्र काफी ऐशो आराम भरी जिंद्गी जी रहे हैं, लेकिन गुमनाम तरीके से। अब राजशाही वापस लौटाने के मांग के साथ वे दोबारा सुर्खियों में हैं। 


नेपाल में नहीं हो सकी उन्नति

दरअसल, नेपाल में राजशाही खत्म होकर लोकतंत्र तो गया, लेकिन वहां सही मायने में वैसी उन्नति नहीं हो सकी, जिसकी अपेक्षा लोगों को थी, जबकि प्राकृतिक संपदा के लिहाज से नेपाल काफी संपन्न देश है और यहां पर्यटन भी काफी बड़ा उद्योग बन सकता है। पर यहां राजनीतिक पार्टियों के निजी स्वार्थ हमेशा  हावी रहे। 12 साल के अंतराल में राजनीतिक पार्टियों की आपसी तनातनी के बीच आम लोगों को कोई फायदा नहीं हुआ, जबकि इस दरम्यान सारी पार्टियां आजमाई जा चुकीं हैंं। यह लोगों की नराजगी का पहला कारण है। लोगों की नाराजगी को दूसरा बड़ा कारण है ओली सरकार के दौर में चीन के बढते दखल का। इसको लेकर नेपाली जनता काफी परेाान है। काठमांडू के मुख्य बाजार में जगह-जगह चीनी तख्ते लिखे दिखते हैं। ये वो दुकानें हैं, जो चीनी कारोबारियों ने 99 सालों के लिए लीज पर ले रखी हैं। इसके अलावा नेपाल में चीनी भाषा का वर्चस्व भी लगातार बढता जा रहा है। ऐसेे में, वहां की जनता को डर है कि कहीं चीन अपनी आक्रामकता के साथ उन पर भी कब्जा कर ले। यही वजह है कि वे मौजूदा सरकार को हटाकर राजतंत्र लौटाने की मांग कर रहे हैं।

आखिरी राजा थे ज्ञानेंद्र

अगर, राजशाही की मांग होगी तो निचित ही राजा की बात भी होगी। ज्ञानेंद्र वहां के आखिरी राजा थे। इस सालभर में मौजूदा सरकार के खिलाफ विरोध जिस तरह से गहराया है, उसमें मुमकिन है कि ऐसा हो भी जाए, तब नेपाल के राजगद्दी के वारिस ज्ञानेंद्र दोबारा राजा हो सकते हैं। जब राजा ज्ञानेंद्र की बात हो ही रही है तो उनसे जुड़े कुछ तथ्य भी जान लेते हैं..... साल 1955 से 1972 तक नेपाल पर राज करने वाले महेन्द्र वीर बिक्रम शाह की संतान ज्ञानेंद्र वीर बिक्रम शाह का जीवन गद्दी के मामले में हमेशा से ही उथल-पुथल से भरा रहा, जब पहली बार उन्हें नेपाल का शासक घोषित किया गया, तब उनकी उम्र महज 3 साल थी। यह साल 1950 की बात है, जब राजनैतिक अस्थिरता के कारण बालक ज्ञानेंद्र को पूरे एक साल के लिए देश का राजा घोषित कर दिया गया, उनकी दूसरी पारी शाही परिवार की हत्या के बाद शुरू हुई, जो 2001 से लेकर 2008 तक चली। दरअसल, इस दौर को दुनिया के आखिरी हिदू राजा का दौर माना जाता है, जो नेपाल में लोकतंत्र के साथ ही खत्म हो गया।

ज्ञानेंद्र का बचपन काफी अकेलेपन में बीता। क्राउन प्रिंस महेंद्र की दूसरी संतान ज्ञानेंद्र के जन्म पर राजपरिवार के ज्योतिष ने राजा से कहा कि उनका इस संतान के साथ रहना दुर्भाग्य ला सकता है। ये सुनते ही शिशु ज्ञानेंद्र को नारायणहिति राजमहल से उसकी नानी के पास रहने के लिए भेज दिया गया, जब ज्ञानेंद्र 3 ही साल के थे, तब राजनैतिक हलचल के कारण पूरा राजपरिवार राजसी खानदान के इस अकेले बच्चे को छोड़कर भारत गया। तब राजपरिवार का अकेला पुरुष सदस्य होने के कारण 3 साल के बच्चे को ही देश का राजा मान लिया गया, तब बालक ज्ञानेंद्र के नाम पर ही सिक्के निकले, जिन पर नेपाल के नए राजा यानि ज्ञानेंद्र की तस्वीर थी। राजा ज्ञानेंद्र की स्कूली शिक्षा-दीक्षा भारत में ही हुई। वे दार्जिलिग के सेंट जोसेफ स्कूल में पढèते थे, जबकि ग्रेजुएशन काठमांडू से किया। पढ़ाई के बाद ज्ञानेंद्र अपने देश में रहते हुए पर्यावरण पर काम करने लगे, उन्हें काफी अच्छा पर्यावरणविद माना जाता था, जिन्होंने जंगलों और पशुओं पर खूब काम किया। 

वैसे, ज्ञानेंद्र को राजकाज चलाने में उतना सक्षम नहीं पाया गया, उन्होंने जब सत्ता संभाली, तब राजपरिवार के नरसंहार के कारण देश पहले से ही हिला हुआ था, इसके साथ ही देश में माओ आंदोलन भी सिर उठा रहा था। राजा ने वादा किया था कि वे 3 साल के भीतर देश में शांति ले आएंगे, लेकिन ऐसा नहीं हो सका। ये भी कहा जाता है कि खुद माओवादियों की मांग थी कि देश से राजपरिवार की सत्ता खत्म कर उसे लोकतांत्रिक बनाया जाए, इसी डील के तहत ज्ञानेंद्र को गद्दी से हटना पड़ा था। जहां तक राजपरिवार में हुए हत्याकांड का सवाल है, उसको लेकर ज्ञानेंद्र पर भी उंगलियां उठती रही हैं। कहा जाता रहा कि सत्ता पाने के लिए खुद उन्होंने अपने परिवार को मरवाया। इस मामले में जांच कमेटी की बात को भी संदिग्ध माना गया, जिसने क्राउन प्रिंस दीपेंद्र को मामले का जिम्मेदार ठहाराया था। सत्ता में आने के तुरंत बाद किग ज्ञानेंद्र ने त्रिभुवन सदन को तुड़वा दिया, जहां नरसंहार हुआ था। इससे भी शक गहराया। यही वजह है कि जब राजसत्ता खत्म कर लोकतंत्र लागू हुआ तो लोग खुश थे। पर इसे समय का चक्र ही कहेंगे कि जिस राजा को हटाने में लोग खुश हुये आज, फिर वे उन्हें राजगद्दी सौंपना चाहते हैं। 

भारत की भूमिका

आइए अब बात भारत की करते हैं। क्या भारत भी नेपाल में राजााही के पक्ष में है। आपको याद होगा, नेपाल में लोकतंत्र स्थापित करने में भारत की बड़ी भूमिका रही थी। यानि नेपाल में कुछ भी घटित होता है-कहीं--कहीं उसमें भारत परोक्ष और अपरोक्ष रूप से जुड़ा जरूर होता है। जब देा में राजशाही की मांग फिर उठ रही हो तो उसमें भारत की भूमिका से कैसे इनकार किया जा सकता है। माना जाता है कि तत्कालीन राजशाही के जरिए चीन की घुसपैठ रोकने के लिए भारत की खुफिया एजेंसी रॉ ने काफी काम किया था। घटना 1989-90 के दौर की है, तब नेपाल की जनता के बीच लोकतंत्र की मांग धीरे-धीरे उठने लगी थी। पड़ोसी देश और खुद लोकतांत्रिक देश होने के नाते भारत भी यही चाहता था कि नेपाल में भी लोकतंत्र जाए, हालांकि नेपाल का आंतरिक मामला होने के कारण भारत तब किसी चीज में सीधे दखल नहीं दे रहा था, लेकिन कूटनीतिक स्तर पर इस तरह के संकेत देने लगा था कि नेपाल में राजशाही का अंत होना चाहिए, राजीव गांधी सरकार भी उस दौरान जन-आंदोलन का अप्रत्यक्ष तौर पर समर्थन कर रही थी।

राजशाही के खात्मे की बात उठती देख नेपाल का राजपरिवार परेशान हो उठा था। उसने चीन की मदद मांगी ताकि राजसी परिवार का शासन बना रहे, यह बात खुफिया तरीके से भारत को पता लगी, क्योंकि नेपाल में चीन का दखल भारत के लिए कई मामलों में, खासकर सुरक्षा के लिए भी खतरा है। इस बात को समझते हुए भारत ने कूटनीतिक तरीके के साथ दूसरे कई तरीके भी आजमाने शुरू किए ताकि नेपाल के राजपरिवार पर दबाव बने, जैसे नेपाल में भारत की ओर से फूड सप्लाई को डिस्टर्ब कर दिया गया, ये सब काफी गुप्त तरीके से हुआ ताकि राजतंत्र को संकेत भी चला जाए और देश के बीच रिश्ते भी खराब हों।

इस तरीके से भी बात नहीं बनी, इधर नेपाल में चीन का दखल बढता दिख रहा था। जब मामला ज्यादा गंभीर हो गया था, तब भारत की खुफिया एजेंसी रॉ ने दखल दिया। तब इस खुफिया एजेंसी के तत्कालीन चीफ ने इस काम के लिए अपने सबसे अच्छे अफसर जीवनाथन को चुना। इस रॉ एजेंट ने वो काम शुरू किया, जो देश की डिप्लोमेटिक लॉबी भी नहीं कर पाई थी। राजतंत्र के खात्मे और लोकतंत्र की बहाली के लिए इस रॉ एजेंट ने नेपाल के तत्कालीन माओवादी नेता पुष्पकमल दहल की मदद ली। ये वही नेता थे, जो आगे चलकर दो बार नेपाल के पीएम बने। अब हाल में नेपाल में चल रही राजनैतिक उठापटक में भी दहल की बड़ी भूमिका रही। वह कथित तौर पर नेपाल के पीएम ओपी शर्मा ओली और चीन की मिलीभगत को खत्म करना चाहते हैं। उस वक्त भी रॉ के साथ मिलकर पुष्पकमल दहल ने काम किया। रणनीति के तहत ये माओ नेता दूसरी पार्टियों के साथ मिल गया ताकि राजतंत्र का पलड़ा हल्का हो सके।

चीन के मंसूबे नाकामयाब करने में रॉ की कोशिश रंग लाई और साल 2008 में भारत के इस पड़ोसी देश ने राजशाही खत्म करके खुद को लोकतांत्रिक देश घोषित कर दिया। रॉ के जरिए भारत की मदद करने वाले प्रचंड लोकतांत्रिक नेपाल के पहले पीएम बने। इन सारी बातों का जिक्र खुद रॉ के फॉर्मल स्पेशल डायरेक्टर अमर भूषण ने अपनी किताब इनसाइड नेपाल में भी किया है, लेकिन भारत राजा ज्ञानेंद्र को लेकर कभी खुा नहीं रहा। ऐसे में, अगर, नेपाल में दोबारा राजशाही लौटती है तो ज्ञानेंद्र की जगह उनके परिवार के किसी दूसरे शख्स का राजतिलक देखने को मिले, इसमें कोई संदेह नहीं होगा। 


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