कोविड की मार से जल्द मुक्त नहीं होंगे कामगार I Workers will not be freed due to Covid's effect soon


भविष्य में भी मजूदरी पर चलती रहेगी कैंची

आईएलओ की नई ग्लोबल वेज रिपोर्ट 2020-21 में जताई गई है संभावना

कोविड-19 महामारी की सबसे पहली और सबसे अधिक मार कामगारों पर ही पड़ी। केंद्र राज्य सरकारें तो दावा ही करतीं रह गयीं कि जो कामगार जहां है, उसे वहीं काम दिलाया जायेगा, पर कामगारों की समस्या खत्म नहीं हो पायी। उन्हें फिर से शहरों की तरफ लौटना तो पड़ा ही, बल्कि शहरों में आकर भी उन्हें कम वेतन और मजदूरी में काम करने के लिये मजबूर होना पड़ रहा है। हैरानी इस बात पर होती है कि अब सरकारें इस संबंध में कुछ भी बोलने को तैयार नहीं हैं। पिस रहा है तो सिर्फ कामगार।

इस बीच कामगार के लिये एक और बुरी खबर है। वह खबर यह है कि उन्हें जल्द माहामारी ही मार से मुक्ति मिलने वाली नहीं है यानि उनके मेहनताने या फिर मजदूरी पर निकट भविष्य में भी कैंची चलती ही रहेगी। यह स्थिति भारत में ही नहीं होने वाली है, बल्कि दुनिया के हर देश के कामगारों को इस संकट से जूझते रहना पड़ेगा। जी हां, अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन यानि आईएलओ ने अपनी एक नई ग्लोबल वेज रिपोर्ट 2020-21 में इसकी संभावना व्यक्त की है। आईएलओ की तरफ से यह चिंता व्यक्त की गयी है कि यह कामगारों की आर्थिक रूप से कमर ही नहीं तोड़ेगा बल्कि इससे सामाजिक और आर्थिक अस्थिरता की विरासत को भी गंभीर खतरा पैदा हो होगा, जो विनाशकारी होगा। 

रिपोर्ट में बताया गया है कि कोविड-19 महामारी की शुरूआत से पहले पाया गया था कि भारत सहित दुनिया के अन्य देशों में जो लोग मजदूरी से जुड़े हुये थे, उनमें प्रतिघंटा कम कमाने वालों की संख्या लगभग 15 प्रतिशत के आसपास थी, लेकिन कोविड-19 महामारी के दौरान इसका ग्रॉफ काफी बढ़ गया। कम मजदूरी की बात तो दूर, उन्हें रोजगार से ही हाथ धोना पड़ा। अगर, उन्हें अब काम मिला भी है तो कम मजूदरी पर वे काम करने को मजबूर हैं और उन पर भविष्य में भी यह दबाव बना रहेगा। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि कई स्थितियों में कामगारों को रोजगार हासिल करने के लिये भी जूझना पड़ेगा।

दरअसल, ग्लोबल वेज रिपोर्ट 2020-21 के तहत महामारी से पहले के चार वर्षों में 136 देशों में मजदूरी के रुझान को भी दर्शाया गया है, जिसमें पाया गया कि वैकि वास्तविक वेतन वृद्धि में 1.6 से 2.2 प्रतिशत के बीच उतार-चढ़ाव आया। वास्तविक मजदूरी एशिया और प्रशांत और पूर्वी यूरोप में सबसे तेजी से बढ़ी और उत्तरी अमेरिका और उत्तरी, दक्षिणी और पश्चिमी यूरोप में बहुत धीरे-धीरे। पर इस महामारी के दौरान इस उतार-चढ़ाव के बीच गैप का अनुपात कई गुना बढ़ गया, जिस गैप को बहुत जल्द भरना काफी मुश्किल होगा, जिसका सबसे बड़ा नुकसान कामगारों को ही उठाना पड़ेगा। आईएलओ की रिपोर्ट यह भी दर्शाती है कि सभी मजदूर संकट से समान रूप से प्रभावित नहीं हुए हैं बल्कि महिलाओं पर इसका असर पुरुषों की तुलना में अधिक हुआ है, जो आने वाले दिनों में भी जारी रहेगा। 28 यूरोपीय देशों के नमूनों के आधार पर अनुमान लगाया गया है कि मजदूरी सब्सिडी के बिना, महिलाओं को पुरुषों की तुलना में 5.4 प्रतिशत की तुलना में अपनी मजदूरी का 8.1 प्रतिशत का नुकसान होगा। मजदूर वर्ग में भी जो निचले यानि कम भुगतान पर मजदूरी कर रहे थे, वे अधिक प्रभावित रहे। रिपोर्ट के मुताबिक कम-कुशल व्यवसायों में उन्होंने उच्च-भुगतान वाली प्रबंधकीय और पेशेवर नौकरियों की तुलना में अधिक काम के घंटे खो दिये थे और सबसे कम भुगतान किए गए 5 प्रतिशत श्रमिकों को अनुमानित 17.3 प्रतिशत मजदूरी का नुकसान हुआ। 

आईएलओ के महानिदेशक गाय राइडर के अनुसार कोविड-19 संकट से पैदा हुई असमानता ने केवल गरीबी को बढ़ाया है बल्कि इसने सामाजिक और आर्थिक अस्थिरता की विरासत को भी खतरे में डाल दिया है, जो विनाशकारी साबित हो सकता है। उन्होंने कहा कि हमें पर्यावेतन नीतियों की आवश्यकता है, जो नौकरियों और उद्यमों के बीच स्थिरता को कायम रखने में मदद्गार साबित हो सके।

वास्तव में, यह हैरान करने वाला सच है। हम अर्थव्यवस्था के कमजोर होने का रोना रोते रहते हैं, लेकिन क्या कभी यह समझने की जहमत उठा पाते हैं कि कम से कम अर्थव्यवस्था को गति देने वाले कामगार को उसकी मेहनत की सही मजदूरी दे दें। जब तक समाज और सिस्टम में इसको लेकर ईमानदारी नहीं बरती जायेगी, इसी तरह अर्थव्यवस्था पर भी चोट पड़ती रहेगी। सरकारों को महज दावों पर नहीं, हकीकत पर भरोसा करना होगा। कामगार के लिये उचित काम और मजदूरी तय करनी होगी। अगर, कामगार खुश होगा तो निश्चित ही दुनिया भी खुशहाल होगी। 


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