घुटन में थे नीतीश या 2024 का समीकरण किया सेट ! !
जिसकी आशंका व्यक्त की जा रही थी, आखिरकार बिहार में वही हुआ। भले ही, इसके 2024 के साथ सियासी मायने जोड़े जा रहे हों, लेकिन बिहार में जिस ढांचे के साथ सरकार चल रही थी, उससे यह सारा घटनाक्रम आश्चर्यजनक नहीं लगना चाहिए थे, बल्कि यह आश्चर्यजनक लगना चाहिए कि बीजेपी-जेडीयू गठबंधन दो साल तक चल गया, क्योंकि जब गठबंधन सरकार में कम सीट लाने वाली पार्टी का नेता मुख्यमंत्री हो तो सरकार चलाने में निश्चित ही अजमंजस की स्थिति रहती ही है और दूसरा जब केंद्र और देश के अधिकांश राज्यों में सत्तारूढ़ बीजेपी जैसी पार्टी अभियान लोटस चलाकर जोड़तोड़ में जुटी हो तो गठबंधन में कम सीटों वाली पार्टी को डर तो लगा ही रहेगा कि पता नहीं, उसके साथ भी कुछ खेला हो जाए। गंठबंधन टूटने पर ऐसी बातों की आशंका किसी भी रूप में आश्चर्यचकित करने वाली नहीं हैं, हालांकि इसी तरह के और भी बहुत सारे कारण हैं, जिसकी वजह से आज बिहार की राजनीति में बहुत बड़ा सियासी बदलाव देखने को मिला है। वैसे नीतीश कुमार राजनीति के मंजे हुए खिलाड़ी हैं, शायद उन्होंने विपक्ष के सामने 2024 को लेकर कोई शर्त रखी हो और तब जाकर बीजेपी के साथ गठबंधन को तिलांजलि दी हो। पर इसकी तह धीरे-धीरे खुलेगी, पर परोक्ष रूप में गठबंधन टूटने के जो कारण समझ में आते हैं, उनमें नीतीश के लिए मुख्यमंत्री रहते हुए बीजेपी की विधानसभा में अधिक सीटों को झेलना मुश्किल हो रहा था।
साल 2020 की कहानी की चर्चा करें तो जिन हालातों में कम सीट होने के बाद भी नीतीश को बिहार का मुख्यमंत्री बनाया गया, उसको लेकर बहुत अधिक आश्चर्य हो रहा था, भले ही नीतीश कुमार चुनाव के दौरान चेहरा ही क्यों नहीं थे। पर किसी को यह उम्मीद नहीं थी कि बीजेपी नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू से अधिक सीटें ले आएगी। बीजेपी-जेडीयू गठबंधन के आकड़ों को समझें तो बीजेपी के पास 77 सीटें हैं, जबकि जेडीयू के पास 45 सीटें। आरजेडी तो सबसे अधिक 79 सीटें जीती थी, जबकि कांग्रेस 19 और सीपीआईएमएल (एल) के नेतृत्व वाले वाम दलों ने 16 सीटें जीतीं। बीजेपी-जेडीयू गठबंधन की वजह से ही आरजेडी, कांग्रेस ओर सीपीआईएमएल जैसी पार्टियां मिलकर भी सरकार बनाने की स्थिति में नहीं आ पाईं थीं, हालांकि तब नीतीश कुमार ने कहा था कि वह मुख्यमंत्री नहीं बनना चाहते हैं, लेकिन बीजेपी ने दरियादिली दिखाते हुए उन्हें ही मुख्यमंत्री के रूप में ताजपोशी दिलाई। तब यह स्वयं नीतीश कुमार को ही क्या, जनता और राजनीतिक विश्लेषकों को बहुत ही आश्चर्यजनक लग रहा था, पर हमेशा ही नीतीश के चेहरे पर इस बात को लेकर उदासी देखी जाती रही कि वह गठबंधन में बीजेपी के मुकाबले उनकी भागीदारी कम है। इसको लेकर वह अक्सर दबाब में नजर आते रहे।
कुल मिलाकर वर्तमान हालातों में सियासी तौर पर इस घटनाक्रम को काफी महत्वपूर्ण ही कहा जाएगा। हालांकि, बिहार में सियासी बदलाव देखने को मिल सकता है, इसकी सुगबुगाहट कुछ समय के अंतराल में देखने को मिल रही थी। इसका सबसे ताजा उदाहरण हाल के दिनों में हुई नीति आयोग की बैठक रही। केसीआर की तरह ही नीतीश कुमार भी इस महत्वपूर्ण मीटिंग में नहीं पहुंचे, जहां सभी राज्यों के मुख्यमंत्री पहुंचे थे, जिनमें पीएम मोदी की धुर विरोधी पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी भी पहुंची थी, इसी से अंदाजा लगा जा रहा था कि पीएम मोदी और नीतीश कुमार के बीच सबकुछ ठीक नहीं चल रहा है। इसके अलावा हलिया दिनों में चार अन्य ऐसे मौके भी आए, जब नीतीश कुमार बीजेपी की मीटिंग में शामिल नहीं हुए, जबकि इससे पहले इस तरह की स्थिति देखने को नहीं मिली थी। फिर अचानक ऐसा क्या हुआ, यह सवाल सियासी गलियारों में तेजी से वायरल हो रहा है। क्या बीजेपी के साथ गंठबंधन में नीतीश कुमार कुछ ज्यादा ही घुटन महसूस करने लगे थे या फिर वह कांग्रेस, आरजेडी और दूसरी विपक्षी पार्टियों के साथ 2024 को लेकर कुछ और ही डील कर चुके हैं, जिसकी वजह से उन्होंने बीजेपी का साथ छोड़ने का फैसला लिया।
बता दें कि चुनाव के दौरान पहले चिराग पासवान का मुद्दा उठा और फिर आरसीपी सिंह का। बीजेपी आरसीपी सिंह को मंत्री पद पर बनाए रखना चाहती थी, लेकिन नीतीश कुमार ने उन्हें राज्यसभा टिकट नहीं दिया। नीतीश को लगने लगा था कि बिहार में भी महाराष्ट्र जैसा खेल बीजेपी खेल रही है और उनकी पार्टी में सेंधमारी की कोशिश कर रही है, हालांकि बीजेपी उन्हें ये भरोसा दिलाने की कोशिश करती रही कि ऐसा कुछ नहीं है।
भले ही, राज्य में बीजेपी-जेडीयू गठबंधन ने सरकार बना ली थी और सरकार चल भी रही थी, लेकिन दोनों तरफ से नेताओं का अपनी जुबान पर काबू नहीं था। हैरानी की बात यह थी कि बीजेपी लगातार नीतीश सरकार पर सवाल उठा रही थी, जिससे विपक्ष को फायदा मिल रहा था। ऐसे में, नीतीश सरकार का नेतृत्व करते हुए भी निराशा से गुजर रहे थे।
एक अन्य महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि एक तरफ बीजेपी के साथ गठबंधन में नीतीश कुमार निराशा महसूस कर रहे थे, वहीं दूसरी तरफ आरजेडी वेट एंड वॉच की भूमिका में थी। आरजेडी इस बात को बखूबी समझती थी कि अगर, नीतीश कुमार, बीजेपी के साथ गठबंधन तोड़ते हैं तो उनके पास आरजेडी से हाथ मिलाने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है, क्योंकि अगर नीतीश ने आरजेडी से हाथ नहीं मिलाया तो उनकी सरकार बिहार में गिर जाएगी, क्योंकि जेडीयू को एहसास हो गया था कि बीजेपी बिहार में जेडीयू की कीमत पर बढ़ रही है। नीतीश कुमार के कई विधायक और नेता बार-बार कह रहे थे कि बीजेपी नीतीश कुमार के नाम पर बिहार में आगे बढ़ रही है, जबकि जेडीयू कमजोर हो रही है।
जेडीयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष ललन सिंह ने अभी हाल ही में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस कर बिना बीजेपी का नाम लिए कहा था कि साल 2020 के विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार के खिलाफ साजिश हुई थी। लल्लन सिंह ने कहा था, सीएम नीतीश कुमार के खिलाफ साजिश थी और इसलिए हमने विधानसभा में केवल 43 सीटें जीतीं, लेकिन अब हम सतर्क हैं। साल 2020 के चुनाव में चिराग मॉडल लाया गया था और अब दूसरा चिराग बनाया जा रहा था। लल्लन सिंह ने यह भी कहा था कि साजिश कौन कर रहा है। वक्त आएगा तो बता देंगे।
दूसरी तरफ, अभी हाल ही में बीजपी संयुक्त मोर्चा राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में शामिल होने पटना पहुंचे जेपी नड्डा ने कहा था कि क्षेत्रीय दल सफाया होने की कगार पर हैं और रहेगी तो सिर्फ बीजेपी। शायद, ये बात जेडीयू को खटक गई थी, क्योंकि एनडीए की साथी जेडीयू भी क्षेत्रीय पार्टी है। अब इससे सीधी चेतावनी और क्या हो सकती थी। ऐसे में, जेडीयू का डर सच साबित होने लगा कि बीजेपी उसके अस्तित्व को खत्म कर देना चाहती है।
नीतीश कुमार और उनकी पार्टी जेडीयू के सामने महाराष्ट्र का उदाहरण भी सामने था। कैसे शिवसेना में फूट और उद्धव ठाकरे से मंत्रीपद छिन गया और कैसे एकनाथ शिंदे ने बीजेपी से हाथ मिलाकर अपने ही बॉस उद्धव को किनारे लगा दिया। शायद, नीतीश नहीं चाहते होंगे कि बीजेपी किसी आरसीपी के सहारे उन्हें किनारे लगाए या उनकी पार्टी में फूट हो। ये भी एक बड़ी वजह रही होगा कि नीतीश ने खुद को बीजेपी से दूर कर लिया।
वैचारिक तौर पर भी दोनों पार्टियों के बीच कई मुद्दों को लेकर टकराव कई बार देखने को मिला। बीजेपी और जेडीयू में सबसे बड़ा फर्क सेकुलर छवि का है। नीतीश की छवि सेक्यूलर और प्रोग्रेसिव नेता की है, नीतीश समाजवाद की राजनीति करने वालों में से हैं, इसलिए वो कभी भी खुद को किसी एक धर्म से जोड़कर नहीं रखते हैं, इसके अलावा अगर मुद्दों की बात करें तो जाति जनगणना का मुद्दा हो या बिहार को स्पेशल दर्जा देने का, नीतीश बीजेपी के स्टैंड से अलग खड़े दिखते रहे हैं। विचारधारा पर समझौते के कारण उन्हें वोटबैंक कटने का भी डर था। मुसलमान उनसे दूर हो रहे थे और अगड़ी जातियां बीजेपी की ओर जा रही थीं। इतना ही नहीं, बीजेपी की सोशल इंजीनियरिंग के कारण ओबीसी और महादलित भी नीतीश की पार्टी से कटने लगे थे।
इसके उलट अगर, नीतीश आरजेडी के साथ आ गए हैं तो उन पर सेक्युलर छवि होने के बाद भी हिंदुत्व के एजेंडे के लिए काम करने का आरोप नहीं लगेगा। साथ ही, उनका ओबीसी और महादलित वोटबैंक मजबूत होगा। इसी सोच के साथ, एक बार नीतीश ने पांच साल पहले जैसे ही कहानी को फिर दोहरा दिया था, जब सावन के महीने में ही उन्होंने लालू यादव की राष्ट्रीय जनता दल से नाता तोड़ लिया था और बीजेपी के साथ सरकार बनाई थी और अब पांच साल बाद बिहार में एनडीए की सरकार गिर गई है, लेकिन नीतीश जिस तरह मंझे हुए राजनीतिज्ञ हैं, उसमें बिल्कुल भी यह नहीं लगता कि उन्होंने बीजेपी का साथ छोड़कर कोई घाटे का सौदा किया होगा। जिस स्वरूप में वह बिहार में सरकार चला रहे थे, अब भी वही स्थिति है। आरजेडी के पास जेडीयू से ज्यादा सीटें हैं। ऐसी परिस्थिति में 2024 लोकसभा चुनाव को लेकर कोई सियासी समीकरण न तय हुआ हो, इससे बिल्कुल भी इनकार नहीं किया जा सकता है।
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