उत्तर प्रदेश : ग्रामीण क्ष्ोत्रों तक खींची जाए विकास की रेखा


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 के सबसे बड़े राज्य यूपी में फरवरी में विधानसभा चुनाव हो सकते हैं। सूबे के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने रविवार को एक किताब विमोचन कार्यक्रम के दौरान इसके संकेत दिए हैं। उनका यह भी मानना था कि बहुत से लोग पहले चुनाव चाहते हैं। कुल मिलाकर इससे यही संकेत मिलता है कि अब प्रदेश में चुनाव के लिए बहुत कम समय रह गया है। समय की नजाकत को भांपते हुए पार्टियों के बीच सक्रियता भी दिखने लगी है। जहां कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी प्रदेश के किसानों से मिलकर उनका दु:ख-दर्द पूछ रहे हैं, वहीं सत्ताधारी पार्टी सपा अपने कार्यकाल में कराए गए कार्यों को लेकर जनता के बीच जा रही है।
बीजेपी भी किसी भी रूप में प्रदेश में हनक दिखाने में पीछे नहीं रहना चाहती है। हालांकि बीजेपी ने अभी सूबे में मुख्यमंत्री पद के लिए अपने उम्मीदवार की घोषणा नहीं की है, लेकिन जिस तजुर्बे से पार्टी लोगों से जुड़ने की रणनीति बना रही है, वह इस बात का संकेत देने के लिए काफी है कि पार्टी प्रदेश के चुनावों को हल्के में नहीं लेना चाहती है। प्रधानमंत्री मोदी का लखनऊ में जाकर रावण का पुतला दहन करने का कार्यक्रम भी इस बात को खुले तौर पर जाहिर करता है। बसपा सुप्रीमो मायावती ने भी कांशीराम की पुण्यतिथि पर बड़ी सभा कर जिस तरह से केन्द्र और प्रदेश सरकार पर हमला बोला, वह पार्टी की विधानसभा चुनावों को लेकर आक्रामक शुरुआत कही जा सकती है। वैसे तो पार्टियों द्बारा चुनावों को लेकर जमीनी तैयारियां पहले से चल रही हैं, लेकिन मंच से हमला बोलने का सिलसिला शुरू होने से चुनावी तैयारियों को और भी गति मिलेगी। 
यहां सवाल यह उठता है कि क्या आम जनता इस बात को भांप पाएगी कि उन्हें बेहतर सरकार कौन सी पार्टी दे सकती है? इसकी गंभीरता लोगों के लिए अवश्य ही चुनौती पैदा करती है, क्योंकि पार्टियों के बीच जिस तरह से गला काट प्रतियोगिता चल रही है, उस भंवर में आखिर जनता फंस ही जाती है। जिस प्रकार पार्टियां वास्तविक मुद्दों से हटकर फिजूल की बयानबाजी और आरोपों- प्रत्यारोपों में ज्यादा वक्त जाया कर रही हैं, वह निश्चित तौर पर जनता के सपनों को धराशायी करने के लिए काफी होता है। देश का बड़ा राज्य होने की वजह से उत्तर प्रदेश में समस्याएं भी अधिक हैं। इसीलिए इस राज्य में विकास की दरकार भी अधिक है। सूबे में अब तक आई सरकारों ने भले ही लखनऊ, नोएडा-ग्रेटर नोएडा, सैफई जैसी जगहों को चमका दिया, लेकिन दूर-दराज के ग्रामीण इलाकों में आज भी लोगों का जीवन स्तर बदतर ही बना हुआ है। 
क्या किसी भी पार्टी की सरकार ने ऐसे लोगों के जीवन स्तर को सुधारने का प्रयास किया? केन्द्र व राज्य स्तर पर कई ऐसी योजनाएं संचालित की जा रही हैं, जिनका सीध्ो तौर पर ग्रामीणों को लाभ मिलना चाहिए, लेकिन इन योजनाओं के तहत आवंटित होने वाली धनराशि का क्या हो रहा है? कहां खर्च की जा रही है वह धनराशि? ये ऐसे सवाल हैं जो हर चुनाव से पहले आम तौर पर पूछे जाते हैं, लेकिन कोई भी राजनीतिक दल इन सवालों का जवाब शायद नहीं दे पाता क्योंकि उन्हें इन सवालों से शायद कोई मतलब नहीं है। ऐसे में यह सवाल भी अहम है कि महज युवाओं के हाथों में लैपटॉप थमा देने से कुछ नहीं होने वाला है, बल्कि उन्हें तो पहले तकनीकी रूप से पारंगत बनाने की जरूरत है। साथ ही यह भी जरूरी है कि ग्रामीणों क्ष्ोत्रों तक विकास की रेखा उसी तरह से खींची जाए जैसे सैफई, लखनऊ व नोएडा में खींची गई है।

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