विजयादशमी पर्व के व्यावहारिक मायनों को समझने की है जरूरत



 बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक विजयादशमी पर्व धूमधाम से मनाया गया। देश के हर कोने में विजयादशमी पर्व की धूम रही। लोग सांझ के उस वक्त का इंतजार कर रहे थ्ो, जब रावण के पुतले के दहन का समय आता है। अगर, इंतजार किया तो जाहिर सी बात है कि रावण के पुतले के दहन के वक्त लोगों के मन में भारी उल्लास रहा होगा। इससे यही लगा कि लोग बुराई पर अच्छाई की जीत को देखते हुए कितने खुश होते हैं और खुशी में झूम उठते हैं, लेकिन जब समाज की सचाई की तरफ क्षणिक रुख करते हैं तो सहज ही लगने लगता है कि समाज में जिस प्रकार बुराई का प्रभुत्व बढ़ रहा है, वह इस पर्व के बिल्कुल ही प्रतिकूल है।
 चाहे वह समाज का ताना-बाना हो, या फिर देश को विकास के पथ पर आगे ले जाने की जिम्मेदारी संभालने वाले राजनेता हों, सभी को समाज में बढ़ती बुराइयों के खात्मे के बारे में सोचना होगा। सिर्फ यह कहने मात्र से काम नहीं चलने वाला है कि आखिर समाज में यह क्या हो रहा है? समाज और राजनीति की दिशा किस ओर भाग रही है? हर तरफ स्वार्थ सिद्धि का जो चलन चल पड़ा है, वह कितना घातक है। वह समाज की नींव को कमजोर करने वाला है। पुरानी संस्कृति व सभ्यता को तहस-नहस करने वाला है, इस बात को समझना होगा। सत्ता में बैठे लोगों के बीच तो यह चलन और भी तेज गति से चल पड़ा है, जिसका खामियाजा आम लोगों को भुगतना पड़ रहा है। 
 स्वार्थ, लालच, भ्रष्टाचार और धोख्ो की मानसिकता जिस तरह गति पकड़ रही है, उससे समाज और देश की डोर तो कमजोर हो ही रही है। विभिन्न धर्मों व सम्प्रदायों को जोड़कर भारतवर्ष का निर्माण हुआ है, उसके पीछे देश की मजबूत संस्कृति, सभ्यता और परंपरा रही है। उस संस्कृति, सभ्यता और परंपरा को बनाए रखने के लिए हमें विजयादशमी पर्व के मायने समझने होंगे। अगर, हमें विजयादशमी के पर्व की व्यावहारिकता को समझना है तो हमें समाज में व्या’ कुरीतियों को समा’ करना होगा। बुराई के खिलाफ खड़ा होना पड़ेगा, उसके लिए एकजुटता को बढ़ावा देना होगा। आपसी मतभ्ोदों को भुलाना होगा। इससे न केवल समाज में व्या’ बुराइयों का अंत होगा, बल्कि लगातार बढ़ रहे आतंकवाद व आतंकवादियों का खात्मा भी आसान हो जाएगा। भगवान श्रीराम ने जिस तरह कमजोर, आमजन, वनवासियों व वानरों की सेना को अपने साथ जोड़कर महाबली, महापराक्रमी व महाज्ञानी लंकापति रावण व उसके राक्षस योद्धाओं का खात्मा किया था, उसी प्रकार देश के शीर्ष पदों पर बैठे लोगों को भी आमजन तक अपनी पैठ बढ़ानी होगी। उन्हें अपनी जिम्मेदारी के सार्थक मायने समझने होंगे। 
आमजन की भावनाओं व जरूरतों को समझते हुए उन्हें अपने साथ जोड़ना होगा। उन्हें महज वोट बैंक नहीं समझकर यह मानकर चलना होगा कि उनके विकास के बगैर देश का सर्वांगीण विकास संभव हो ही नहीं सकता है। उनके बीच भी विकास, समृद्धि और ज्ञान की ऐसी गंगा बहानी होगी, जिसमें उनकी गरीबी व अशिक्षा रूपी रावण का अंत हो सके। तभी लगेगा कि समाज के प्रभुत्वशाली लोगों व राजनेताओं की मानसिकता में घुसा रावण समा’ हो गया है। यह तभी संभव होगा जब हर नेता, अधिकारी और यहां तक कि आम व्यक्ति भी अपनी सोच, अपनी व्यावहारिकता व अपने मन में भगवान श्रीराम के विचारों को आत्मसात कर लेगा। 

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