सबकी कहानी एक, कैसे फतह होगी यूपी !
उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनावों को लेकर सरगर्मी तेज हो गई है, लेकिन सपा की अंदरूनी लड़ाई खत्म होने का नाम नहीं ले रही है। जब सपा अपनी अंदरूनी लड़ाई से ही निपट नहीं पा रही है तो कैसे वह यूपी का मिशन फतह कर पाएगी ? यह तो सपा के लिए बड़ा ही मुश्किल काम दिखता है। सपा के अंदर चल रही खींचतान का विपक्षी पार्टियां कितना फायदा उठा पाती हैं, यह अवश्य देखने वाली बात होगी। जाहिर सी बात है कि दूसरी पार्टियां चुनावी रणभूमि में इसे मुद्दा अवश्य बनाएंगी। पर भुना कितना पाते हैं यह अधिक मायने रखता है। चुनाव तो समीकरणों का ख्ोल है।
समीकरण बनाने में कौन-सी पार्टी कितना सफल रहेंगी, यह बात महत्वपूर्ण तो है ही, लेकिन सपा के अंदर चल रहे झगड़े का समीकरण किस करवट बैठेगा, यह उससे भी अधिक महत्वपूर्ण है। यह तो मौके पर चौका लगाने वाली बात होगी। कांग्रेस ने शीला दीक्षित को सीएम फेस बना लिया है। खींचतान के बीच भी सपा अखिलेश को ही अपना सीएम चेहरा बनाना चाहती है। बसपा तो मायावती के हवाले है ही, पर बीजेपी का क्या होगा ? जो अपना सीएम फेस घोषित करने से कतरा रही है। इसके पीछे पार्टी का मकसद तो समझ से परे है। अब पार्टी कहती है कि नहीं हम दिल्ली वाली गलती नहीं दोहराएंगे। इसमें गलती कहां से हो गई भई। अगर, चुनाव से पहले चेहरा घोषित कर दिया तो जनता को भी समझने का समय मिल जाएगा ना। आखिर जो चेहरा तय किया गया है, वह सीएम पद के लायक है या नहीं ? बाद में तो थोपने वाली बात हो जाएगी।
पर बीजेपी यह बात समझेगी नहीं। सपा का अंदरूनी झगड़ा खत्म होगा नहीं, कांग्रेस तो वैसे ही डूबी पड़ी है और माया बहन भी कुछ कमाल करती दिख नहीं रही हैं, तो किसके हाथ यूपी की चाबी लगेगी? इसको लेकर संशय की स्थिति बनना तो लाजिमी है ही। स्थिति को देखते हुए यह लगता है कि यूपी चुनाव का मिशन तो वक्त के हवाले छोड़ दिया जाए। यानि कि वक्त पर कौन अच्छा स्ट्रोक मारेगा, वही मैदान मारने में सफल भी ेहो पाएगा। भई राजनीति के मैदान में तो वक्त पर मारा गया स्ट्रोक ही काम आएगा। अगर, बाजी मारनी है तो स्ट्रोक से नहीं मास्टर स्ट्रोक से ही काम चल पाएगा। विधानसभा चुनाव है तो थोड़ा-बहुत जाति-धर्म का भी ख्ोल चलेगा, लेकिन बात तो यह है कि इससे भी कितना काम चलेगा। काम चलाने के लिए तो जनता के बीच पार्टियों को कुछ पुख्ता संदेश तो देना ही होगा।
कुछ तो ऐसा वोट बैंक हर चुनाव में होता है, जो जाति-धर्म में न जाकर खुले समीकरणों के आधार पर वोट देता है। यह देखना तो मजेदार ही होगा कि कौन-सी पार्टी ऐसे लोगों को अपनी तरफ खींच पाती है। खींच लिया तो समझ भी लेना चाहिए कि काम बन गया। पर बात यहां आकर अटकती है कि कम-से-कम पार्टियां अपनी अंदरूनी चीजें तो ठीक कर लें और स्वयं की छवि जनता के बीच जाने लायक तो बना लें।
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