संसद की हार का कारण बना नोटबंदी का विरोध


नोटबंदी के मुद्दे पर विपक्षी पार्टियां शुक्रवार को राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से मिले। उन्होंने केन्द्र सरकार को घ्ोरते हुए आरोप लगाया कि नोटबंदी की वजह से बहुत से लोगों की मौत हो रही है। पीएम मोदी ने देश को लाइन में खड़ा कर दिया है आदि-आदि...। लेकिन यहां जिस तरह स्वयं विपक्षी पार्टियों के अंदर फुट का दृश्य देखने को मिला, वह बड़ा ही चौंकाने वाला है। बीएसपी, एनसीपी, एसपी और वामदल के नेता राष्ट्रपति से मिलने वाले दल में शामिल ही नहीं थ्ो। इससे साफ था कि विपक्षी पार्टियों में नोटबंदी के मामले में सरकार को घ्ोरने के संबंध में कोई विश्ोष एकजुटकता नहीं है।
एकजुटता के साथ-साथ उनके पास पर्या’ तर्क भी नहीं हैं, क्योंकि विपक्षी पार्टियों के चिल्लाने से ऐसा लगता है कि वे जनता की भलाई के लिए नहीं बल्कि अपनी भलाई के लिए संसद नहीं चलने दे रहे थ्ो। आम जनता ने नोटबंदी के मामले में जिस तरह का संयम बनाया हुआ है, वह अपने-आप में दूरदर्शी सोच को इंगित करता है। क्या ऐसे में विपक्ष को ऐसी सोच इंगित नहीं करनी चाहिए थी ? पूरा शीतकालीन सत्र विरोध के भ्ोंट चढ़ गया। अगर, विपक्ष को देश व आम जनता की थोड़ी-सी भी चिंता होती तो वे सरकार से बहस करते। तर्क करते। सरकार से सवाल पूछते। उन्होंने इस बात की हिम्मत क्यों नहीं जुटाई ? क्या इससे यह साफ नहीं है कि जबरदस्ती संसद को हराने का प्रयास किया गया। देश के राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से लेकर बीजेपी के सीनियर लीडर लालकृष्ण आडवाणी भी संसद बाधित होने को लेकर गंभीर चिंता जता चुके हैं। इसे दुर्भाग्य ही कहेंगे की विपक्षियों ने इसकी जरूरत ही नहीं समझी। नोटबंदी पर सरकार के कदम के बाद आम लोगों को दिक्कतें जरूर हुईं हैं, लेकिन सरकार के विरोध में किसी भी आम-आदमी की आवाज सामने नहीं आई है। विपक्षी पार्टियों ने नोटबंदी को किसान व मजदूर विरोधी बताया, लेकिन यूपी के किसी हिस्से में एक-दो दिन पूर्व हुए किसान सम्मेलन का वाक्या बिल्कुल अलग था, जो इस बात को साफ करता है कि मजदूर और किसानों में नोटबंदी को लेकर कोई भी विरोध नहीं है। सम्मेलन में जिस तरह संबंधित संगठन के पदाधिकारियों ने नोटबंदी पर केन्द्र सरकार को घ्ोरने का प्रयास किया तो किसानों ने पीएम के पक्ष में नारे लगाए और सम्मेलन का बहिष्कार करते हुए मौके से चले गये। क्या यह इस बात का अंदाजा लगाने के लिए काफी नहीं है कि किसान भी सरकार के साथ खड़े हैं। अगर, किसान, मजदूर सरकार के साथ खड़े हैं तो विपक्षी किसकी लड़ाई लड़ रहे हैं? कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने पीएम मोदी के पर्सनल भ्रष्टाचार की जानकारी होने की बात कही, लेकिन क्यों नहीं उन्होंने इस मुद्दे को संसद में उठाने की जहमत उठाई। यह कितना दुर्भाग्यपूणã है कि स्वयं विपक्षी पार्टियां संसद का काम बाधित कर रही थीं, तो ऐसे में उन्होंने इस बात की पहल क्यों नहीं की कि संसद में खुली बहस की जाए और पीएम मोदी के संबंध में जो भ्रष्टाचार की जानकारी है, उसे सबके साथ श्ोयर किया जाए। एक बड़ी पार्टी के नेता होने के नाते राहुल को यह पहल करनी चाहिए थी। संसद को चलने दिया जाता और नोटबंदी को जनता के हवाले छोड़कर चुनावों का इंतजार कर लिया जाता, क्योंकि लोकतंत्र में जनता की अदालत ही सबसे बड़ी अदालत होती है। अगर, आम लोग सरकार के खिलाफ होते तो निश्चिततौरआगामी चुनावों में उसका हिसाब वे अवश्य लेते।



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