बैजयंत जे पांडा की पहल से सीख लें अन्य सांसद
शीतकालीन सत्र इस बार नोटबंदी के भ्ोंट चढ़ गया। संसद के इतिहास में यह एक अलग अनुभव देता है, क्योंकि शीतकालीन सत्र पिछले 15 वर्षों का ऐसा सत्र रहा, जिसमें सबसे कम काम हुआ। कुल मिलाकर दो ही बिल पास हो पाए। यह बात चौंकाती है कि 21 दिन के सत्र में लोकसभा की कार्यवाही महज 19 घंटे ही चली, वहीं राज्यसभा का भी वही हाल रहा। राज्यसभा महज 22 घंटे ही चल पाई। यह हाल तब है, जब संसद की कार्यवाही पर हर मिनट में 2.5 लाख रुपए तक खर्च होते हैं। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि हमारे सांसदों ने कितना काम किया? मोटी तनख्वाह और भत्ते लेने वाले सांसद जनता के प्रति कितनी जवाबदेही रखते हैं?
जनता द्बारा चुने गए प्रतिनिधि अगर ऐसा व्यवहार करेंगे तो लोकतंत्र की जड़ें कैसे मजबूत होंगी ? क्या इससे यह साबित नहीं होता है कि जनता द्बारा चुने गए प्रतिनिधि ही लोकतंत्र की जड़ों को कमजोर करने में लगे हुए हैं? जब बड़े स्तर पर सांसदों को जनता की चिंता ही नहीं है और वे मोटी पगार और भत्ते डकार क्यों लेते हैं? ऐसे में बीजेडी सांसद बैजयंत जे पांडा की पहल पर गौर करना जरूरी लगता है, क्योंकि उन्होंने जो पहल की है, शायद उससे अन्य सांसदों को भविष्य में यह सीख मिले कि कम-से-कम काम नहीं तो पैसा नहीं वाली परंपरा को वे सांसद भी स्वीकार करें, जिस तरह पांडा महज काम के अनुपात में ही सैलरी लेते हैं। यह कितनी अच्छी बात है कि बहुत से कामचोर सांसदों के बीच में वह ऐसा पिछले चार-पांच सालों से कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि उनकी आत्मा को यह बात कचोटती है कि बतौर सांसद हम वह काम नहीं कर रहे हैं, जो हमारा काम माना जाता है। सच भी यही है, जतना अपना प्रतिनिधि इसीलिए चुनती है कि वह संसद में जाकर उनकी बात उठाए और उनकी मांग मनवाए, लेकिन जब सांसद अपना कर्म ही नहीं करेंगे जो जनता का हित कैसे होगा? बीजेपी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी के अलावा देश के राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की संसद को लेकर चिंता यूं ही नहीं थी, उनके पास संसद का लंबा अनुभव रहा है।
राष्ट्रपति ने सांसदों से यह तक अपील की कि कम-से-कम सांसद अपना नैतिक काम करें। उन्हें जनता ने संसद में चर्चा के लिए भ्ोजा है। मुद्दों से सहमत होना या न होना उनका अधिकार है, लेकिन वे चर्चा तो करें, संसद को चलने तो दें। कुल मिलाकर जिस नोटबंदी को मुद्दा बनाकर विपक्षी पार्टियों ने संसद नहीं चलने दी, जनता के परिपेक्ष्य से देखा जाए तो फिजूल ही माना जाएगा, क्योंकि आमजनता में नोटबंदी को लेकर कोई भी विरोध देखने को नहीं मिला। अगर, आमलोगों में नोटबंदी का विरोध नहीं है तो नेताओं को क्यों दिक्कत हो रही है ? क्या इससे उनका स्वार्थ जुड़ा हुआ स्पष्ट नहीं होता है? अगर, काम नहीं तो सैलरी नहीं की तर्ज पर पांडा की तरह अन्य सांसद स्वयं वेतन व भत्ते वापस नहीं करते हैं तो क्या बिना के काम के सांसदों के वेतन-भत्ते नहीं काटे जाने चाहिए? इसे एक व्यवस्था के तौर पर शुरू कर दिया जाना चाहिए, कम-से-कम जनता के लिए नहीं तो अपने हित के सांसद संसद चलने देंगे। अगर, संसद चलेगी तो निश्चित तौर पर कुछ सकारात्मक परिणाम भी सामने आएंगे।
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