नोटबंदी : विरोध के जाल में खुद ही फंस गये विपक्षी
नोटबंदी के मसले पर विरोध के जाल में खुद विपक्षी ही फंसने लगे हैं। जिस तरह की रणनीति का ख्वाब विपक्षी पार्टियों ने देखा था, अब लग रहा है कि वे इससे स्वयं ही अघा गये हैं। इसीलिए उनके बीच तरह-तरह का विरोधाभास सामने आ रहा है। मंगलवार से नोटबंदी पर सरकार को घ्ोरने के लिए जिस रणनीति को लेकर विपक्षियों में एकजुटता दिखनी थी, वह कहीं भी देखने को नहीं मिली, ऐसे में लगता है कि विपक्षियों द्बारा सरकार को घ्ोरने के लिए बुना गया जाल स्वयं उन्हीं के लिए परेशानी का सबब सा बन गया है।
लोकतंत्र की धुरी देश की जनता होती है। जनता के समर्थन से ही सरकार भी मजबूत रहती है और लोकतंत्र भी। ऐसा कुछ सीन नोटबंदी के बाद भी देखने को मिला। जिस तरह नोटबंदी पर सरकार को जन समर्थन मिला, वह अपने-आप में चौंकाने वाला है। इसी का परिणाम रहा कि नोटबंदी को लेकर लामबंद हुए विपक्षी स्वयं ही धराशाही होने लगे। जिस तरह का जुनून शीतकालीन सत्र के शुरुआती दिन दिखा, विभिन्न पार्टियां सरकार के विरोध में सड़कों पर उतरीं। हैरान करने वाली बात यह रही कि विपक्षी पार्टियों ने संसद तक नहीं चलने दी, लेकिन इसके उलट राहुल गांधी सहित अन्य नेताओं ने इसका ठींकरा सरकार के सिर पर ही फोड़ने की कोशिश की। विपक्ष को लगा कि उन्हें इस मसले पर जनता का समर्थन मिलेगा। देखा जाए तो कई बैंकों ने तो सरकार के साथ विपक्षियों की तरह ही व्यवहार किया, जिस तरह बैंकों ने पिछले दरवाजे से सरकार की नीतियों के खिलाफ जाकर कालेधन को सफेद किया, वह निहायत ही गिरा हुआ काम है। इसका नुकसान न केवल देश की आम जनता को भोगना पड़ा, बल्कि सरकार की भी उतनी ही बदनामी हुई। इसका परिणाम यह रहा कि आज केन्द्र सरकार डेडलाइन लाइन तक सबकुछ ठीक करने की स्थिति में नहीं है। अब जब भ्रष्ट बैंक कर्मचारियों व अधिकारियों के खिलाफ धकाधक कार्रवाइयां हो रही हैं, तब जाकर स्थिति में थोड़ा-बहुत नियंत्रण दिख रहा है, लेकिन इन सबके बीच, जिस तरह विपक्षी पार्टियों का अभियान फेल हुआ है, वह आम जनता की जीत के साथ-साथ लोकतंत्र की मजबूती का उदाहरण भी है। यानी कि जहां जनसमर्थन है, वही उपयोगी रास्ता भी। यहां यह समझ लेना जरूरी है कि अगर, जनता के बीच नोटबंदी का विरोध होता तो विपक्षियों के साथ स्वयं जनता जुटती। जनता संघर्ष करती रही, लेकिन विपक्षियों ने उसे राजनीति में तब्दील करने के अलावा कुछ और नहीं किया, क्योंकि उन्हें जनता के हित की परवाह नहीं थी, बल्कि उन्हें तो अपने कालेधन की चिंता हो रही थी। बसपा के खाते में जमा हुई 1०4 करोड़ रुपये की रकम, क्या इसका बड़ा उदाहरण नहीं है? किस तरह जनता की गाढ़ी कमाई को नेताओं ने अपनी बपौती बना लिया है। जनता एक-एक पैसे के लिए हाय-हाय कर रही है और नेताओं व पार्टियों के खातों में करोड़ों-अरबों रुपये जमा हो रहे हैं। देखा जाए तो सबसे बड़े टैक्स चोर तो देश के नेता ही हैं, जो लोकतंत्र मजबूत करने की राह में आगे बढ़ने के बजाय लोकतंत्र की जड़ों को खोखला कर रहे हैं। जिस मसले पर जनता संघर्ष करने के लिए तैयार है तो वहां सभी पार्टियों को एक साथ खड़े होने की जरूरत है। महज, नोटबंदी का ही मसला नहीं है बल्कि और भी कई ऐसे मसले हैं, जिन पर बेवजह राजनीति की जाती है। पार्टियां जनता की परवाह किये बगैर अपने राजनीतिक हितों की सुरक्षा को ज्यादा तब्बजो देने लगती हैं, जो कि बिल्कुल ठीक नहीं है।
papola ji badhut achha likha hai aap ne, badhayee ho.
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