अनायास बढ़ आया हर कदम...



'ठन गई! मौत से ठन गई’!
जूझने का मेरा इरादा न था, 
मोड़ पर मिलेंगे, इसका वादा न था,
रास्ता रोककर वह खड़ी हो गई,
यूं लगा जिंदगी से बड़ी हो गई।
मौत की उमर क्या है ? दो पल की नहीं।
जिंदगी सिलसिला, आज कल की नहीं।
मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूं,
 'लौटकर आऊंगा, कूच से क्यों डरूं’?
 कवि ''अटल बिहारी वाजपेयी’’ की यह कविता जीवन के उस सत्य की रुबरू कराती है, जिससे सबका का परिचय होना है, लेकिन जिंदगी जीने और मौत से ठनना, फिर उसके बाद लौटकर आने का दृढ़ विश्वास, उस जीवटता का परिचायक है, जो आत्मा का भले ही त्याग तो कर चुका है, लेकिन वह अपनी विराट समावेशी सोच, दूर दृष्टिता, विलक्षण वाणी, कविता के रूप में पिरोए गए शब्दों की जादूगरी के लिए इस भारत भूमि में हमेशा विद्यमान रहेगा। यही उनके लौटने के उस दृढ़ विश्वास को चरितार्थ करता है। 



 आत्मा जब शरीर का त्याग कर देती है तो वह परमात्मा में विलीन हो जाती है, क्योंकि आत्मा कभी मरती नहीं, वह अजर और अमर रहती है, लेकिन ऐसी कुछेक आत्माएं होती हैं, जो शरीर के पंचतत्व में विलीन हो जाने के बाद भी हमेशा लोगों के दिलों में विचरण करती रहती हैं, उन्हें जगाती हैं और प्रेरणा देती हैं। वाजपेयी भी इसके एक उदाहरण बन गए। वह लोगों के दिलों में राज करने वाले बेताज बदशाह थ्ो। ओजस्वी वाणी, जीवन की सच्चाई और जीने, मरने की अटूट लालसा से भरपूर उनकी कविताओं, अदूभुत राजनीतिक कौशल और उनके विराट व्यक्तित्व ने लोगों के दिलों में अमिट छाप छोड़ी। 
 उनकी अनंत की यात्रा में भी एक अजीब संयोग दिखा, जिनको सुनने, देखने के लिए उनके सभाओं में लोगों का हुजूम जमा हो जाता था, वैसा ही हुजूम उनकी अनंत की यात्रा में भी बरबस जुड़ गया...। हर कदम उनकी तरफ खिंचा चला आया...। हर फूल की पंखुड़ी उनकी तरफ उड़ चली आई...। उनके जाने की वेदना को मन में लिए हुए, आंखों में तैरते हुए आंसुओं को लिए हुए। जब एक युग किसी से विदा होता है तो उसका ऐसा ही नजारा होता है, हर चेहरा गम से भरा होता है, आंखों में तैरते आंसू, उसके जाने के दर्द को बयां कर रहे होते हैं। हर कदम अनायास ही उसकी तरफ खिंचा चला जाता है।
बस उसकी तरफ...।
 क्योंकि उसके जीवन की लकीर ही ऐसी होती है, जिस लकीर को वह अपने से छूटने नहीं देना चाहता है, बस वह उसे पकड़ना चाहता है। अपनी तरफ खींचना चाहता है...। उसे तब भी विश्वास होता है कि जिस लकीर पर हमने चलना सीखा, जीना सीखा, बोलना सीखा, सह्दता सीखी, शब्दों का, ज्ञान का भंडार सीखा, वह हमसे छूट नहीं सकती है, उससे जुड़ी हमारी डोर टूट नहीं सकती है। 
भले ही ''अटल’’ पंचतत्व में विलीन हो गए, लेकिन वह उस लकीर से और उस डोर से जोड़े रखने के लिए हमें बहुत कुछ दे गए। हमें वह लकीर, वह डोर, हमेशा जोड़े रख्ोगी।
 उनसे...
उनके उन गीतों से, जिनमें साहस है, मौत से लड़ने और मौत को इस बात का चलेंज करने का।
 तू दबे पांव, चोरी-छिपे न आ, 
''सामने से वार कर, फिर मुझे आजमा’’।
 फिर मुझे आजमा...।


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