सड़क के बदले 'जेल’
'मध्यप्रदेश’ के 'नरसिंहपुर’ जिले में एक 61 वर्षीय बुजुर्ग 'पीके पुरोहित’ ने 'कलेक्टर’ 'अभय वर्मा’ से गांव की सड़क बनाने की मांग की तो कलेक्टर ने उस बुजुर्ग को जेल भिजवा दिया। बुजुर्ग को चार दिन जेल में रहना पड़ा। यह पहला मामला नहीं है, जब किसी सरकारी अफसर ने इस तरह का कर्म-कांड किया है। पहले भी सरकारी अफसरों द्बारा इस तरह का रौब दिखाने के मामले सामने आते रहे हैं। यह मामला इसीलिए थोड़ा गंभीर है, क्योंकि एक कलेक्टर की वजह से एक बुजुर्ग को जेल की हवा खानी पड़ी। अगर, एक 'अफसर’ में आम आदमी की समस्या सुनने का साहस ही नहीं है तो उससे समस्याओं के समाधान की कैसे उम्मीद की जा सकती है ? ऐसे में यह सवाल गंभीर बन जाता है कि एक 'सरकारी अफसर’ 'जनसेवक’ कैसे बने। यह नितांत सामयिक सवाल भी है, क्योंकि यह सवाल अपने आधारभूत रूप में चारित्रिक संकट और नैतिक मूल्यों के पतन से भी जुड़ा हुआ है।
सरकारी विभागों में तकनीकी युग के जमाने में भी अगर बहुत से मामले लंबित रहते हैं तो इसका जिम्मेदार कौन है। ये ही अफसर। और इनका अवमानवीय और शुष्क व्यवहार। अफसर यह मानकर चलता है कि वह जिस कुर्सी पर बैठ गया है, वह कुर्सी किसी ऐसे राजा की कुर्सी से कम नहीं है, जो अपनी मनमर्जी से प्रशासन को चलाए, वह जो कर रहा है, वही ठीक है। और आम आदमी अपनी हक की लड़ाई लड़े भी तो वह कोई ऐसा अपराध है, जिसकी वजह से उसको जेल भी जाना पड़े। उसमें असफर द्बारा यह कहा जाना कि वह शराब पीकर आया था, उसके द्बारा दुर्व्यवहार किया जा रहा था, इस बात का द्योतक है कि अफसरों में पेशंस की कितनी कमी होती जा रही है। अपने गांव की समस्या को लेकर जनसुनवाई में पहुंचे व्यक्ति की समस्या को शांतिपूर्ण ढंग से सुना भी जा सकता था। अगर, उसका संतुष्टिपूर्ण जबाव मिल जाता तो शायद उसे दुर्व्यवहार करने की जरूरत नहीं पड़ती। अगर, उसने दुर्व्यवहार किया भी तो उसका जिम्मेदार तो एक अफसर का ही अमानवीय व्यवहार और कार्य के प्रति शुष्कता ही है।
सरकारी विभागों में तकनीकी युग के जमाने में भी अगर बहुत से मामले लंबित रहते हैं तो इसका जिम्मेदार कौन है। ये ही अफसर। और इनका अवमानवीय और शुष्क व्यवहार। अफसर यह मानकर चलता है कि वह जिस कुर्सी पर बैठ गया है, वह कुर्सी किसी ऐसे राजा की कुर्सी से कम नहीं है, जो अपनी मनमर्जी से प्रशासन को चलाए, वह जो कर रहा है, वही ठीक है। और आम आदमी अपनी हक की लड़ाई लड़े भी तो वह कोई ऐसा अपराध है, जिसकी वजह से उसको जेल भी जाना पड़े। उसमें असफर द्बारा यह कहा जाना कि वह शराब पीकर आया था, उसके द्बारा दुर्व्यवहार किया जा रहा था, इस बात का द्योतक है कि अफसरों में पेशंस की कितनी कमी होती जा रही है। अपने गांव की समस्या को लेकर जनसुनवाई में पहुंचे व्यक्ति की समस्या को शांतिपूर्ण ढंग से सुना भी जा सकता था। अगर, उसका संतुष्टिपूर्ण जबाव मिल जाता तो शायद उसे दुर्व्यवहार करने की जरूरत नहीं पड़ती। अगर, उसने दुर्व्यवहार किया भी तो उसका जिम्मेदार तो एक अफसर का ही अमानवीय व्यवहार और कार्य के प्रति शुष्कता ही है।
अफसरों में इस तरह की जो मनोवृत्ति पैदा हो रही है, वह सिस्टम के लिए घातक तो है ही बल्कि आमजन के लिए उससे भी अधिक घातक है, क्योंकि उसके पास अपनी समस्या को रखने का विकल्प ही नहीं रहेगा। नेताओं के पास टाइम है नहीं, उन्हें सिर्फ राजनीतिक रोटियां सेंकनी हैं। कर्मचारी भ्रष्टाचार में लि’ हैं और अफसर अपनी बात रखने पर जेल भिजवा देते हैं या फिर झापड़ मारने की धमकी देते हैं।
लोगों की समस्या के समाधान के लिए हर जिले में कैंप अवश्य लगाए जाते हैं, लेकिन कोई इन अफसरों से पूछे कि जितनी समस्याएं आती हैं,उनमें से कितनी समस्याओं का निस्तारण आप कर पाते हैं या फिर अधीनस्त अधिकारियों और कर्मचारियों से करवा पाते हैं। पीके पुरोहित की तरह लोगों को बार-बार आपके पास क्यों आना पड़ता है ? बार-बार अपनी समस्याएं आपके सामने क्यों रखती पड़ती हैं? इसका मूल कारण आपका अमानवीय व्यवहार और कार्य के प्रति शुष्कता ही है। लोगों की समस्याओं को अगर आप गंभीरता से सुनते। उसकी समस्या का उचित समाधान तलाशते तो किसी को न तो ऊंची आवाज में बात करने की जरूरत पड़ती और न ही सरकारी विभागों में फाइलों का बोझ बढ़ता। इसका अवमानवीय पहलू यह भी कह सकते हैं कि अगर कोई आम आदमी, सरकारी अफसरों की शुष्कता की वजह से झल्लाहट में ऊंची आवाज में बात कर भी लेता है तो क्या एक ऊंचे ओहदे पर बैठे अफसर को शांति से उसकी बात नहीं सुननी चाहिए ? उसको उसकी समस्या का ठीक समाधान नहीं बताना चाहिए ?
एक आम आदमी को जेल भ्ोजने के बजाय क्या संबंधित विभाग के अफसरों को बुलवाकर यह नहीं पूछा जा सकता था कि गांव की सड़क बनाने की इनकी मांग इतने दिनों तक क्यों पूरी नहीं हुई ? शायद, इस पड़ताल से पीड़ित की समस्या के समाधान की वास्तविक स्थिति भी पता लग जाती और वह इस बात की उम्मीद लेकर लौट जाता है कि शायद बड़े अफसर के आश्वासन के बाद उसके गांव में सड़क बन जाएगी।
किसी भी अफसर को यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि अगर उसके कुछ नियम-कानून है तो एक आम-आदमी के भी कुछ अधिकार हैं। जिन्हें मांगने का उसका हक और अधिकार है। एक अफसर को इसीलिए तैनात किया जाता है कि वह आम-आदमी की समस्या को सुने और उसका समाधान करे। हम सामान्य आदमी के रूप में एक अफसर से जो उम्मीद करते हैं, अफसर हो जाने पर स्वयं उस चिंतन को तिरोहित क्यों हो जाने देते हैं। असल में, अफसर का अस्तित्व सामान्य आदमी के अधिकारों की सुरक्षा और उसको अपने कर्तव्य पालन में सहायता करने के लिए हैं। सामान्य आदमी के लिए अफसर हो सकता है, पर अफसर के लिए सामान्य आदमी की बलि नहीं दी जा सकती है। अफसर में आम आदमी के अधिकारों के प्रति गहरा सम्मान होना चाहिए। जिस प्रकार अफसरों में आम आदमी के प्रति यह सम्मान लु’ हो रहा है, वह बेहद चिंताजनक है।
सामान्यतया: आजकल यह देखने को मिलता है कि अफसर अपने सामने बैठे व्यक्ति को वक्त जाया करने वाला प्राणी समझता है, जबकि अफसर आम आदमी की समस्या के समाधान का कोई रामबाण इलाज भी नहीं है और न ही वह सर्वकालिक, सार्वदेशिक व सर्वव्यापी हो सकता है। लिहाजा, अफसर को ऐसा होने की जरूरत भी नहीं होनी चाहिए। जन साधारण की उससे प्राथमिक अप्ोक्षा केवल इतनी ही है कि उसके करों से पोषित यह सुविधाभोगी प्रज्ञा पुरुष ध्ौर्यपूर्वक उसकी बात सुनने के लिए समय तो देना सीख ही ले, बल्कि उसका उदारतापूर्वक त्वरित निर्णय करने का साहस भी रख्ो। जिससे उसकी सही प्रतिबद्धता भी आमजन के सामने दिखाई पड़े।
लेकिन, आम जनता अफसरों से जिस प्रतिबद्धता की उम्मीद करती है, आज सवाल भी इसी प्रतिबद्धता का ही है। अफसर की प्रतिबद्धता व्यक्तियों और दलों के प्रति नहीं हो सकती,, स्वयं अपने प्रति तो हर्गिज नहीं। धन के दलदल में धीरे-धीरे डूबता अफसर अपनी सुरक्षा और प्रतिष्ठा का हक नहीं मांग सकता। अगर, ऐसा नहीं हो पा रहा है तो इसका नतीजा आज हमारे सामने है। बहुमुखी लूट का सूत्रधार आज अफसर को कठपुतली बनाकर केवल इसीलिए नचा रहा कि अफसर स्वयं के लिए कई प्रकार की कमजारियों और स्वार्थ के पहाड़ को खड़ा कर ले। ऐसा हो भी रहा है। मंत्रियों और राजनेताओं के इशारे पर अफसर बड़े-बड़े घोटालों को अंजाम दे रहे हैं, सिस्टम में करप्शन को बढ़ावा दे रहे हैं।
सिस्टम की परिणति ऐसी हो गई है कि योग्य और वरिष्ठ अफसर भी अपने कल्पित अल्प-अवधि स्वार्थ के कारण चारित्रिक दृढ़ता को खोता जा रहा है। उसके अपने अंतर के स्वस्थ प्रेरणा स्रोत सुखाकर स्वार्थपूरक शक्तियों की चाकरी में लगने को उत्सुक हो उठा है। इसका परिणाम यह हो रहा है कि अफसर की प्रतिबद्धता की परिधि आज अपने तक ही सीमित होकर रह गई है। लिहाजा, ऐसे व्यक्ति से जनसेवा की अपेक्षा रखना किसी भावुकता से कम नहीं है।
नमस्कार पपोला जी, हमें पूर्ण विश्वास है कि आपके इन लेखों से सरकारी तंत्र में कुछ तो खलबल मचेगी, जिसका परिणाम आगे चलकर अच्छा ही होगा।
ReplyDelete