यूपी को साधने की कोशिश


   
   लोकसभा चुनावों के लिए चुनाव आयोग की तरफ से भले ही अभी तिथियों का ऐलान नहीं हुआ हो, लेकिन राजनीतिक मैदान पूरी तरह से सज चुका है। महागठबंधन की बात तो काफी समय से चल रही थी, लेकिन कांग्रेस की तरफ से प्रियंका गांधी को मैदान में उतार कर निश्चित ही ट्रंप कार्ड खेला गया है। हालांकि, यह बाद का विषय है कि यह ट्रंप कार्ड पार्टी को कितना फायदा दिला पाता है। प्रियंका को पूर्वी उत्तर-प्रदेश की कमान सौंपी गई है। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर-प्रदेश में पूर्वी उत्तर-प्रदेश राजनीतिक समीकरणों के आधार पर काफी महत्व रखता है। 2०14 में बीजेपी के यूपी में दमदार प्रदर्शन की वजह से विपक्षी पार्टियों में बैचेनी इसीलिए है कि कहीं पिछला प्रदर्शन बीजेपी ने दोहरा दिया तो हम कहीं के नहीं रहेंगे। लिहाजा, वे अपने सिद्धांतों को तिलांजलि देकर भी गठबंधन की राह को आसान कर रही हैं। इस परिपेक्ष्य में उत्तर-प्रदेश में सपा-बसपा गठबंधन को देखा जा सकता है। धुर-विरोधी पार्टियां जब गठबंधन करती हैं तो लगता है कि उनका ध्येय सिद्धांतों पर काम करने का नहीं, बल्कि अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को पूरा करने की है। जब दोनों पार्टियों ने सीध्ो तौर पर कांग्रेस को गठबंधन में शामिल नहीं किया तो उसके सामने प्रियंका को ट्रंप कार्ड के रूप में मैदान में उतारने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं था। सपा-बसपा और कांग्रेस ने यूपी के राजनीतिक समीकरणों को समझते हुए राजनीतिक मैदान को तैयार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है, लेकिन यह निर्भर करेगा कि इस दौर का मतदाता इसे कितना महत्व देता है, क्योंकि इस दौर में मतदान को लेकर कुछ परिस्थितियां तो बदली हैं। 


सपा-बसपा, कांग्रेस और बीजेपी, ये चारों पार्टियों के लिए यूपी ही मर्म स्थल है। यूपी देश का सबसे बड़ा राज्य है और यहां लोकसभा की 8० सीटें हैं। ये सीटें दिल्ली की राह को आसान करती हैं। लिहाजा, यह कहा जा सकता है कि यूपी उक्त सभी पार्टियों का मर्मस्थल है। यानि यहां चूक गए तो सब गया। अगर, यहां बाजी मार तो दिल्ली पहुंचने से कोई रोक नहीं सकता है। 2०14 का लोकसभा चुनाव इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। बीजेपी ने 8० में से 71 सीटें जीतीं थीं। परिणाम यह रहा कि बीजेपी प्रचंड बहुमत के साथ केंद्र में सरकार बनाने में सफल रही। 
 अगर, कांग्रेस के परिपेक्ष्य में देख्ों तो उत्तर-प्रदेश के हाथ से निकल जाने की वजह से ही कांग्रेस की दुर्गति होती रही है। वर्ष 2००4 में कांग्रेस को महज 9 सीटें मिलीं थीं, जबकि 2००9 में यह आकड़ा बढ़कर 22 तक पहुंच गया था, जिसमें खास बात यह है कि इन 22 सीटों में कांग्रेस ने 15 सीटें पूर्वी उत्तर-प्रदेश से जीतीं थीं। 2०14 में पूर्वी उत्तर-प्रदेश में कांग्रेस का वोट प्रतिशत लगभग 19 प्रतिशत था, जबकि 2०14 में मोदी लहर ने सबकुछ तबाह कर दिया और कांग्रेस का यहां वोट प्रतिशत घटकर महज 8 प्रतिशत पर आ गया। इसका परिणाम यह हुआ कि कांग्रेस महज 2 सीटों पर सिमट कर रह गई। यह 2 सीटें भी रायबरेली और अमेठी की थीं। अपने पिछले रिकॉर्ड को देखकर कांग्रेस हाईकमान उत्तर-प्रदेश में पूर्वी उत्तर-प्रदेश के महत्व को समझता है। यही कारण है कि पार्टी ने बड़ा फैसला लेते हुए प्रियंका गांधी को मैदान में उतारकर ट्रंप कार्ड ख्ोल दिया। यहां बता दें कि पूर्वी उत्तर-प्रदेश में लोकसभा की कुल 33 सीटें हैं, जिनकी कमान प्रियंका गांधी को दी गई है। संभवत: स्वास्थ्य खराब होने की वजह से सोनिया गांधी रायबरेली से चुनाव नहीं लड़ेंगी, इसीलिए यहां से प्रियंका गांधी को चुनाव लड़ाने की तैयारी चल रही है। पूर्वी उत्तर-प्रदेश के महत्व को इसीलिए भी समझा जा सकता है, क्योंकि इस क्ष्ोत्र ने भारत को 8 प्रधानमंत्री दिए हैं। इसीलिए पूर्वी उत्तर-प्रदेश में कांग्रेस का तानाबाना काफी पुराना है। लिहाजा, वह आने वाले लोकसभा चुनावों में अपने वोट बैंक को अपनी तरफ खींचने का पूरा प्रयास करेगी। 
 राज्य में मुसलमानों के बाद सबसे बड़ा वोट बैंक ब्राह्मणों का है। जानकार बताते हैं कि प्रदेश में मुसलमानों का वोट बैंक करीब 21 फीसदी है, जबकि ब्राह्मण वोट बैंक का अनुपात 16-17 फीसदी के बीच है। ब्राह्मण वोट बैंक शुरू से ही कांग्रेस का रहा है। इसके अतिरिक्त पार्टी ने मुसलमानों और दलितों के नाम पर भी खूब वोट बटोरे, पर राज्य में जैसे-जैसे सपा-बसपा और बीजेपी का वर्चस्व बढ़ा तो कांग्रेस के हाथ से यह वोट छिटकता गया। ऐसे में, इस बार पार्टी के समक्ष अपने उसी पुराने वोट बैंक को अपनी तरफ खींचने की बड़ी चुनौती होगी। कांग्रेस के पिछले इतिहास पर नजर डालें तो इंदिरा गांधी जब 1966 में प्रधानमंत्री बनीं थीं तो उस वक्त कांग्रेस की लोकसभा में 283 सीटें थीं। जब सोनिया गांधी के पास पार्टी की कमान आई तो लोकसभा में सीटों की संख्या घटकर 14० रह गईं थीं। अब प्रियंका गांधी को ऐसे समय में पार्टी में लाया गया है, जब कांग्रेस की लोकसभा में महज 45 सीटें हैं। लिहाजा, इस बार की चुनौती कहीं अधिक बड़ी है। दूसरा, देश में मोदी के पक्ष में जिस प्रकार माहौल बन रहा है, ऐसे में, चुनौती और भी बढ़ जाती है। ऐसे में, सवाल उठता है कि क्या प्रियंका गांधी कड़ी चुनौती के बीच वर्तमान चुनावी हालातों में सेंध लगा पाएंगी ? सवाल और भी बहुत सारे हैं, लेकिन कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि इस बार का चुनाव बेहद दिलचस्प होने जा रहा है। 


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