योगी को हटाना मोदी-शाह के लिए आसान नहीं !
राजनीतिक गलियारों में एकदम उत्तर-प्रदेश का नाम उछलने लगा है। और बात हो रही है, सूबे में नेतृत्व परिवर्तन की। तमाम तरह के कयास लगाए जा रहे हैं। पर सूबे में नेतृत्व परिवर्तन की बात क्यों उठ रही है? क्या मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ केंद्रीय नेतृत्व की उम्मीद पर खरे नहीं उतर रहें हैं ? अगर, बीजेपी उन्हें हटाने का जोखिम उठाती है तो फिर योगी नहीं तो कौन हो सकता है यूपी में बीजेपी का चेहरा ? पर इन सवालों के बीच जो सबसे महत्वपूर्ण सवाल है, वह यह है कि क्या योगी के बिना बीजेपी का यूपी में लौटना मुमकिन है ? यह मोदी-शाह के लिए सबसे अधिक उलझन वाला सवाल बना हुआ है, इसीलिए पर्यवेक्षकों के यूपी दौरे के बाद योगी के खिलाफ किसी ने कुछ भी नहीं बोला है। लेकिन इतना तो तय है कि मोदी-शाह और योगी के बीच सबकुछ ठीक नहीं हैं, क्योंकि जहां मोदी-शाह यूपी में पैराशूट के रूप में उतारे गए पूर्व नौकरशाह अरविंद कुमार शर्मा को यूपी में बीजेपी के भविष्य के रूप में पेश करना चाहते हैं, वहीं, योगी ऐसा कतई नहीं होने देना चाहते हैं। बकायदा, इस मामले में उन्होंने अपनी बात स्पष्ट भी कर दी है और कहा है कि अरविद शर्मा को कोई महत्वपूर्ण विभाग तो छोड़िए, कैबिनेट मंत्री भी बनाना मुश्किल है। सीएम योगी राज्य मंत्री से ज्यादा उन्हें कुछ भी देने को तैयार नहीं हैं। अरविंद शर्मा के मामले में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के रवैये को सीधे तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अवहेलना और उन्हें चुनौती देने के तौर पर देखा जा रहा है। योगी के रवैये पर बीजेपी हाईकमान की नाराजगी भले ही खुलकर सामने नहीं आई हो, लेकिन जिस तरह योगी के जन्मदिन पर मोदी, शाह और बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा द्बारा शुभकामना नहीं दिए जाने की बात सामने आ रही है, उस परिस्थिति में नाराजगी का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है।
कुल मिलाकर मामला वहीं आकर फंस गया है, जिस तरह 2017 में विधानसभा चुनाव जीतकर राज्य में बीजेपी के लिए मुख्यमंत्री का नाम घोषित करना काफी मुश्किल हो गया था। बशर्ते, मनोज सिन्हा सहित कई नाम राजनीतिक गलियारों में चल रहे थे, लेकिन बाजी मारी योगी आदित्यनाथ ने। पर योगी ने आंख तरेरकर मुख्यमंत्री की कुर्सी हासिल की थी, क्योंकि चुनाव जीतने के बाद जब उन्हें बहुत अधिक तब्बजो नहीं दी गई तो उन्होंने हिंदू युवा वाहिनी को जाग्रत कर दिया था, इसी से घबराकर संघ को बीच-बचाव के लिए आगे आना पड़ा था और आखिरकार, उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी देनी पड़ी। पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व योगी आदित्यनाथ को यह अक्सर याद दिलाता रहता है कि वो मुख्यमंत्री किसकी वजह से बने हैं। पर इस मामले में योगी आदित्यनाथ भी पीछे नहीं रहते हैं, मौका मिलने पर वह भी यह जताने में कोई कसर नहीं छोड़ते कि नरेंद्र मोदी के बाद बीजेपी में प्रधानमंत्री के विकल्प वो ही हैं।
राजनीतिक विशलेषक मानते हैं कि यूपी बड़ा राज्य है। यहां का मुख्यमंत्री खुद को अगले प्रधानमंत्री के तौर पर देखने ही लगता है। चाहे वो बीजेपी के नेता हों या फिर क्षेत्रीय दलों के नेता। योगी के साथ अच्छी बात यह है कि उनके साथ संघ है। तमाम विरोधों के बावजूद संघ की वजह से ही वो मुख्यमंत्री बने थे और अभी भी वो संघ की पसंद हैं। अरविद शर्मा के मामले में भी संघ का मत योगी की तरह ही है। संघ भी अरविंद शर्मा को पैराशूट की तरह यूपी भेजने के कदम को ठीक नहीं मानता है। पर इसके बावजूद भी अगर राज्य में नेतृत्व परिवर्तन की बात उठ रही है तो ऐसा लगता है कि दोनों तरफ से स्थिति समझौते जैसी नहीं लग रही हैं। अब से पहले इस तरह की चर्चाएं हुईं भी तो वो शुरू होने के साथ ही दम तोड़ देती थीं। इसके पीछे चाहे कानून-व्यवस्था को लेकर अक्सर सरकार को घिरने का मामला रहा हो या फिर बड़ी संख्या में नाराज बीजेपी विधायकों के विधानसभा में धरने पर बैठने का मामला रहा हो।
पर इससे पहले पिछले चार सालों में आरएसएस और बीजेपी संगठन की बैठकों में मंत्रियों को अकेले-अकेले बुलाकर फीडबैक लेने की घटनाएं नहीं हुईं। इसका अर्थ यह है कि बीजेपी हाईकमान चुनाव से पहले वह सबकुछ पता लगा लेना चाहता है, जिससे नेतृत्व परिवर्तन कोे लेकर कोई भी कदम उठाया जाए तो फूंक-फूंककर। फीडबैक के दौरान जिस तरह मंत्रियों व विधायकों की शिकायतें हैं-कि उन्हें कोई महत्व नहीं दिया जाता है और सिर्फ कुछ चुनिंदा अधिकारी ही पूरी सरकार चला रहे हैं, ऐसे में, यह तो तय है कि योगी आदित्यनाथ की कार्यशैली को लेकर मंथन शुरू हो गया है। पर इसको लेकर पार्टी और संघ कितना एकमत होते हैं, यह सबसे महत्वपूर्ण होगा, क्योंकि योगी आदित्यनाथ की ताकत को संघ भी जानता है, इसीलिए उन्हें हटाने का जोखिम उठाना आसान नहीं दिख रहा है, पर जिस तरह योगी अभी से मोदी और शाह के लिए चुनौती बन रहे हैं, उन परिस्थितियों में बीजेपी योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में अगला चुनाव लड़ने की हिम्मत भी नहीं जुटा पा रही है।
इसीलिए योगी के कद को देखते हुए उनके खिलाफ अक्सर अपनी नाराजगी को सार्वजनिक करने वाले मंत्री और विधायक भी बात करने से कतरा रहे हैं। नाम न छापने की शर्त पर कुछ विधायक जरूर कहते हैं कि कोविड संक्रमण के दौरान राज्य सरकार की कार्यशैली से केंद्रीय नेतृत्व बहुत नाखुश है। सार्वजनिक तौर पर भले ही इस प्रकरण को मैनेज करने की कोशिश की गई, लेकिन उसके बाद की बैठकेंं इसी का नतीजा हैं। पंचायत चुनाव के नतीजों से भी योगी बैकफुट पर हैं। इस कहानी के इतर योगी द्बारा खुली चुनौती पेश की है, इसका सच तब सामने आया, जब पिछले सप्ताह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर कार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले यूपी की राजनीतिक नब्ज टटोलने के लिए लखनऊ गए थे, इससे तीन दिन पहले, दिल्ली में उत्तर प्रदेश के राजनीतिक माहौल पर चर्चा के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह, बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा के साथ दत्तात्रेय होसबाले की अहम बैठक हुई थी। इस बैठक में यूपी बीजेपी के संगठन मंत्री सुनील बंसल भी शामिल हुए थे। यूपी की राजनीति पर चर्चा के लिए हुई इस अहम बैठक में न तो मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और न ही प्रदेश बीजेपी अध्यक्ष स्वतंत्र देव सिह को बुलाया गया था। ऐसा माना जा रहा है कि यह बात भी सीएम योगी आदित्यनाथ को अखर गई थी। होसबाले का लखनऊ आना और दो दिन रुकने के बावजूद योगी का उनसे न मिलना इसी का नतीजा था। वैसे, होसबाले का लखनउ में दो दिन रुकने का कोई कार्यक्रम नहीं था, लेकिन सीएम योगी उस दिन सोनभद्र चले गए थे, इसलिए उन्हें अपना प्रवास बढ़ाना पड़ा। होसबाले अगले दिन इसीलिए भी रुके रहे, लेकिन सीएम योगी नहीं आए और वहीं से पहले मिर्जापुर और फिर गोरखपुर चले गए। होसबाले ने उनके दफ्तर में पता भी किया कि मैं रूकूं या मुंबई चला जाऊं ? पर योगी का कोई जवाब नहीं मिला तो वो लखनऊ से मुंबई चले गए।
इस घटनाक्रम की पुष्टि भी बीजेपी के कुछ नेताओं ने की है और इसका सीधा राजनीतिक अर्थ यही निकाला जा रहा है कि योगी आदित्यनाथ केंद्र सरकार या बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व के रबर स्टैंप की तरह नहीं रहना चाहते और केंद्रीय नेतृत्व को यह स्पष्ट भी कर देना चाहते हैं। पर विशलेषक मानते हैं कि फिलहाल, योगी केंद्रीय नेतृत्व को चुनौती देने की स्थिति में नहीं हैं, कोशिश भले ही करें क्योंकि वह अचीवर नहीं हैं, नामित हैं, क्योंकि उन्हें सीएम की कुर्सी दी गई है। लिहाजा, वह केंद्रीय नेतृत्व को चुनौती नहीं दे सकते हैं, पर विशलेषक यही नहीं रूकते हैं, उनका यह भी कहना है कि केंद्रीय नेतृत्व योगी के कद को देखते हुए कोई जल्दबाजी भी नहीं कर सकता, क्योंकि योगी आदित्यनाथ ने तमाम विरोध के बीच अपनी एक अलग छवि बनाई है। वह यूं ही देश के सबसे प्रभावशाली मुख्यमंत्रियों में शुमार नहीं है, इसके लिए वह लगातार काम कर रहे हैं। इसीलिए केंद्रीय नेतृत्व के सामने संकट यह है कि यदि, 2०22 में बीजेपी यूपी चुनाव हारी तो इसका असर 2०24 में होने वाले लोकसभा चुनाव पर भी पड़ेगा, क्योंकि पश्चिम बंगाल चुनाव के हार का दंश बीजेपी अभी भूलने की स्थिति में नहीं है। मोदी-शाह भले ही सीएम योगी आदित्यनाथ से नाराज हों, लेकिन इस वक्त योगी के बजाय केंद्र के प्रति लोगों के बीच अधिक नाराजगी है। कहीं-न-कहीं यह सांय भी मोदी-शाह के लिए बड़ी चिंता का विषय है, इसीलिए केंद्रीय नेतृत्व यूपी में अगले विधानसभा चुनाव को लेकर कोई भी जोखिम लेने की स्थिति में नहीं दिख रहा है। यह स्थिति उसके बाद भी है, जब योगी आदित्यनाथ के पक्ष में न तो बहुत ज्यादा विधायक हैं, न मंत्री हैं और न ही संघ इतनी मजबूती से उनके साथ खड़ा है, क्योंकि संघ के बीच योगी के प्रति नाराजगी इसीलिए बताई जा रही है, क्योंकि ब्यूरोक्रेसी को लेकर संघ पदाधिकारियों को वैसी ही शिकायत है, जैसी पार्टी के विधायकों को।
पर पार्टी के पर्यवेक्षकों की तरफ से खुलकर कुछ भी नहीं बताए जाने का मतलब है कि योगी के खिलाफ एक्शन लेना इतना आसान नहीं है, क्योंकि व्यक्तिगत रूप से योगी का पक्ष काफी मजबूत है, क्योंकि न तो उन पर व्यक्तिगत तौर पर भ्रष्टाचार का कोई आरोप है और न ही किसी अन्य तरह का कोई दूसरा व्यक्तिगत आक्षेप। और उनका काम करने का तरीका भी मौजूदा राजनीतिक परिपेक्ष्य में काफी अच्छा साबित हो रहा है। और देश की जनता उन्हें मोदी के बाद प्रधानमंत्री के तौर में दूसरे विकल्प के तौर पर देख रही है और योगी ने स्वयं को उसी रूप में साबित भी किया है।
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