राजनीतिक दिशाहीनता से घायल हुआ लोकतंत्र



26 जनवरी का दिन प्रत्येक भारतवासी के लिए एक विश्ोष महत्व रखता है। 26 नवंबर 1949 को अपनी संविधान सभा में समवेत भारत के लोगों ने अपने लिए एक सर्वप्रभुत्व संपन्न गणराज्य का संविधान अंगीकृत किया। 26 जनवरी के राष्ट्रीय एवं ऐतिहासिक महत्व की स्मृति को स्थाई बनाने के उद्देश्य से संविधान को 26 जनवरी 195० को लागू किया गया और इस प्रकार भारत एक सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य बना।
 इस प्रकार संविधान को अंगीकृत किये हमें आधी सदी से भी अधिक समय हो गया है, लेकिन फिर भी हमें लग रहा है कि कई स्तरों पर हमारी आजादी आधी-अधूरी ही है। हमारा लोकतंत्र विकसित नहीं घायल हुआ है। साम्प्रदायिक फासीवाद का खतरा तलवार लिए खड़ा है। आर्थिक उपनिवेशवाद, जो उदारीकरण की पीठ पर सवार होकर भारत को कुचल रहा है। राजनीतिक दिशाहीनता और प्रशासनिक जड़ता इन सारे खतरों के साथ जुड़ी है।
 संविधान की उद्देशिका में अंगीकृत व्यवस्था, साम्प्रदायिक समाजवाद, पंथ निरपेक्षता, लोकतंत्र सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, न्याय, स्वतंत्रता, समता व्यक्ति की गरिमा व राष्ट्रीय एकता व अखंडता, ये सभी महत्वपूर्ण व प्रभावशाली शब्द, जो बुद्धिमत्ता, अनुभव के आधार पर सर्वोत्तम संकल्पनाओं व आदर्शों को प्रदर्शित करते हैं। ऐसा लग रहा है कि आज के परिवेश में ये सारे शब्द संविधान की पुस्तक की शोभा बढ़ाने मात्र के लिए ही रह गये हैं। इनके मूलभूत सिद्धांतों, आदर्शों और मूल्यों पर प्रश्न चिह्न लग गये हैं। 
 समाज भीतर-ही-भीतर विखंडित हो जा रहा है। हर तरफ तनाव और अलगाव का वातावरण है। नई आर्थिक नीतियों की चकाचौंध में आज तक गरीबी हटाने के नाम पर महज देश को लूटा गया। नेताओं को गरीबी, बेकारी, भुखमरी, बीमारी, बेरोजगारी, विषमता और भ्रष्टाचार से राष्ट्रीय सुरक्षा को कोई खतरा नजर नहीं आ रहा है। शहरों में बसे समृद्ध वर्ग में होड़-सी मची है। जो प्रत्येक व्यक्ति को रोटी, कपड़ा, मकान देने का वायदा किया था, वह राजनीति की गंदी हवा में काफूर हो गया है। आजादी के इतने लंबे सफर के बाद अमीर और गरीब के बीच की खाई कम नहीं हुई, बल्कि वह और भी गहरी होती चली गई। राजनीति में खुलेआम अपराधीकरण बढ़ा है। अपने-आप को सेक्यूलरवादी कहने वाले दलों ने ही जातिवादी शक्तियों को प्रश्रय दिया है। भ्रष्टाचार, लूट-खसोट, भाई-भतीजावाद की राजनीति व समाज से नैतिक तत्वों का पूर्ण रूप से हस हुआ है। अपराध और कानून एक-दूसरे के करीब आये हैं। अपराध पहले होता है और कानून बाद में बनता है। आज के परिवेश में व्यक्ति स्वतंत्र नहीं है। उनके पास प्रतिभा और विकास व अपनी सामथ्र्य के साथ आगे बढ़ने के साधन नहीं हैं, बजाय स्वदेशी आर्थिक बढèत के। विदेशी तकनीक प्रबंधक बाजार और जीवन श्ौली को बढ़ावा मिल रहा है।
 वर्तमान परिवेश में जो व्यवस्था पैदा हुई है और फूली-फली है, उसमें आम आदमी असहाय है। जनता को अशिक्षित व गरीब रखने में नेतृत्व का निहित स्वार्थ है, लेकिन सच तो यह है कि जब तक आम आदमी को, प्रत्येक नागरिक को आर्थिक सुरक्षा और शिक्षा नहीं मिलती, तब तक मतदान के अधिकार की समानता के कोई मायने नहीं हैं। जब अधिकांश लोग आर्थिक, सामाजिक और श्ौक्षिक दृष्टि से पिछड़े हैं, पराश्रित हैं, भला वे स्वतंत्र कैसे हो सकते हैं ?
 गत वर्षों में जितने भंयकर व शर्मनाक घोटाले सामने आये हैं वह लोकतंत्र पर बड़ी चोट है। जिस प्रकार देश की सम्प्रभुता को तिलांजलि दी गई है और आर्थिक अस्मिता विदेशियों को सौंपी गयी है, वह यह बताने के लिए काफी है कि हमारे नेता ही देश के विकास के लिए गंभीर नहीं रहे। देश के कई राज्य, जिनमें भारी आबादी वाले बिहार और उत्तर प्रदेश शामिल हैं, भले ही इन राज्यों में सत्ता पाने की होड़ हर पार्टी में दिखती हो, लेकिन यही राज्य आज सबसे पिछड़े हैं। जिन प्रदेशों में पुरातनकाल में, आज से हजारों वर्ष पूर्व वैदिक काल में और बौद्ध काल में लोकतंत्रात्मक संस्थाओं और गणतंत्रों को संसार में सबसे पहली बार जन्म दिया था, जिन्हें लोकतंत्र और गणतंत्र की जन्मभूमि कहा जा सकता है, उन्हीं में आज लोकतंत्र व उनके आदर्श घुटने टेकते हुए नजर आ रहे हैं।
 स्वदेशी और आत्मनिर्भरता के बजाय आज साबुन, टूथपेस्ट, क्रीम व अन्य सौंदर्य प्रसाधन के सामान भी विदेशी कंपनियों के होते हैं। उदारीकरण की नीति का यही एक प्रत्यक्ष परिणाम जनता के सामने आया है कि महंगाई दिन-प्रतिदिन आसमान छू रही है। ऐसी स्थिति में लगता है कि गुलामी नये वेश में फिर आ गई है।
वस्तुत: वे कौन-से कारण रहे हैं, जिन्होंने कालान्तर में उस संवैधानिक व्यवस्था को खोखला किया है, जो देश की श्रेष्टतम प्रतिभाओं द्बारा निर्मित थी। भारतीय संविधान निर्माताओं से ऐसी कौन-सी चूक हुई, जिससे वे इसको ऐसी शासन प्रणाली, राजनीतिक व्यवस्था और उससे उपजने वाले नेताओं की नई पीढिèयों को जन्म देने के लिए उर्वरक भूमि तैयार नहीं कर सके, जो दीर्घकाल तक मानव की आकांक्षाओं की भूख मिटाती रहती।
इससे मुड़कर हमें उन परिस्थितियों पर भी नजर डालनी चाहिए, जिनमें भारतीय संविधान गढ़ा गया था और उसकी कोख से भारतीय गणतंत्र ने जन्म लिया था। जब अंग्रेजों ने शुरू में भारत छोड़ा, तब हम एक सामंती बहुलवादी और बिखरा हुआ समाज थ्ो। विभिन्न प्रकार के दबाबों और समूहगत कुठांओं से ग्रसित थ्ो। धर्म, जाति, सम्प्रदाय, भाषा क्ष्ोत्र आदि के आधार पर संकीर्ण निहित स्वार्थ हमें अलग-अलग दिशाओं में खींचते थ्ो और छोटे-छोटे टुकड़ों में बांटते थ्ो। भंयकर गरीबी, निरक्षरता और पिछड़ापन हमारे लिए अभिशाप थ्ो, क्योंकि तब हम एक राष्ट्र नहीं बन पाये थ्ो।
संसदीय लोकतंत्र तो एक अत्यंत परिष्कृत और सुविकसित प्रणाली है, लेकिन ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के अतिरिक्त भी संसदीय लोकतंत्रतात्मक प्रणाली की सफलता के लिए कुछ पूर्व अपेक्षायें और अनिवार्य शर्तें हैं, जैसे भूखंड विश्ोष के लोगों को एक राष्ट्र का सा रूप मिल गया होना चाहिए। उनके हितों में कुछ समरूपता आ गई होनी चाहिए। लोकजीवन के प्रत्येक क्ष्ोत्र में व्या’ एक स्पष्ट पहचान के साथ-साथ हमें चाहिए आर्थिक स्थिरता और समृद्धि का न्यूनतम स्तर, जो सामाजिक तनावों के अभाव का और अपेक्षाकृत शांति का किंचित स्तर लोकतंत्रात्मक व्यवस्था परंपरागत प्राय: समरूप जन समुदाय, जनसाधारण में यथ्ोस्ट राजनीतिक चेतना को लेकर अच्छी प्रतिद्बंदिता करते हों, लेकिन इस अर्से के दौरान हमारे सामने इसके पीड़ादायक पहलू ही सामने आये हैं। इस व्यवस्था की जड़े मजबूत नहीं खोखली हुईं हैं।
संसदीय शासन व्यवस्था ने राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया को दुष्कर ही बनाया है। जहां कुछ भी व्यवस्थित नहीं है, सबकुछ उसी प्रकार बिखरा पड़ा है। विघटनकारी तत्व सर उठाये खड़े हैं। कई प्रमुख क्ष्ोत्र और शाक्तिशाली समूह संघ की सत्ता को ही अस्वीकार करने में लगे हैं। वे अपनी अलग पहचान पर जोर दे रहे हैं। संसदीय लोकतंत्रात्मक व्यवस्था ने इन सबको प्रोत्साहन मात्र ही दिया है। ऐसी स्थिति में संसदीय लोकतंत्र की सुखद भविष्य की कामना नहीं की जा सकती है।
आज के परिवेश में फिर लगने लगा है कि संविधान का पुन: अवलोकन किया जाए और आवश्यकता पड़ने पर जरूरी बदलाव किये जाए, तभी हम अपने गणतंत्र को बचा पायेंगे। लोकतंत्र के लिए हमें जागरूक भी होना पड़ेगा। हम हर बार नया अच्छा प्रतिनिधि चुनें ताकि वह हमारे अनुकूल शासन कर सके। 
--

No comments